....अभी भी रात बाकी है!

सरकार तो सरकार होती है जनाब, वह चाहे सोती हो, या जागती भी हो। सरकार सोती हो, तो सिर्फ चोर-लुटेरे लूटते हैं, कभी-कभी पीटते भी हैं। सरकार जागती हो, तो जो कुछ बचा होता है, उसे भी छीन ले जाती है। एक थाने में चोरी की रपट लिखाने गये मज़ाहिया किस्म के एक शख्स ने चोरी गये सामान की फेहरिस्त गिनाने के बाद, हाथ में पकड़ी कांसी की गागर थानेदार की ओर बढ़ाते हुए कहा—...और यह एक गागर भी लिख लीजिये हुज़ूर !
—मज़ाक करता है, साले! उठा कर अन्दर डाल दूंगा हवालात में। गागर तो तेरे हाथ में पकड़ी हुई है। थानेदार के साथ उसके हाथ में पकड़ा डंडा भी एक साथ गरजे थे।
ज़ाहिर है हुज़ूर। यह गागर मेरे ही हाथ में है, तो मेरी ही होगी, किन्तु जनाब, यह थोड़ी ही देर की बात है। आपने रिपोर्ट लिख तो ली, किन्तु उस पर कार्रवाई आयद कराने के लिए आपकी ़िखदमत में भी तो कुछ पेश करना ही पड़ेगा न! उस शख्स ने गिड़गिड़ाने जैसे अन्दाज़ में, हाथों को जोड़ते हुए कहा था। 
यूं सरकार किसी भी देश अथवा प्रदेश की सरकार भी हो सकती है जो अक्सर कुम्भकर्ण की नींद सोई रहती है।. अपनी हवेली के निजी तख्त-ए-ताऊस यानि तख्त-पोश पर विराजमान ‘सरकार’ भी तो सरकार ही होते हैं जिनका अपना राज होता है, और अपना दंड-विधान। ये ‘सरकार’ अक्सर मुजरा-मुजारों में मशगूल रहते हैं, किन्तु ये भी जब जागते हैं, तो दो-एक ज़िन्दाओं को जीते-जी ही हवेली के पिछवाड़े वाले ‘बुड्ढे नाले’ में फिंकवा देते हैं, अथवा किसी जलते तंदूर की अग्नि को मांस के लोथड़े डाल-डाल कर और भड़का देते हैं। देश-प्रदेश के समाज में अपराध बढ़ते हैं, तो बढ़ते जाएं...सरकार की बला से। रियाया नारे लगाती है, हाय-तौबा मचाती है, तो करती रहे ये नौटंकिया हरकतें।
सरकार के पास पैसे की कमी कभी नहीं आती। आ भी जाए, तो उसके अपने अनेक धन-कुबेर भामाशाह बन कर मैदान-ए-जंग में नितर आते हैं। वे अपनी थैलियों और तिजोरियों के मुंह खोल देते हैं। बदले में वे फिर अपनी थैलियां बड़ी कर लेते हैं, और तिजोरियां और मजबूत कर लेते हैं।
सरकार इस पैसे के बल पर कुछ लोगों को खरीद लेती है। कुछ पहरेदार भी होते हैं, जो अक्सर नीलामी के हथौड़े की मार तले रहते हैं—एक, दो और तीन। पहरेदारों की आवाज़ के एक-दो अक्षर अपने आप बदल जाते हैं, तो इबारत के पूरे शब्द और मायने भी बदल जाते हैं।
एक दिन की बात है...एक बड़े समाचार पत्र ने अपनी हैड-लाईन सुर्खी में, कुछ दिन पहले ही लुटेरों के हाथों लुट चुके और घायल हुए एक शख्स की पौत्री की पीड़ा को ये शब्द दिये थे—रात को जल्दी घर आ जाना...बाहर ़खतरा है...रास्तों पर न लाईट है, न पुलिस। इसी दिन एक दूसरी अ़खबार ने भी पहले पन्ने की अपनी बड़ी सुर्खी में अपने वतन के मीर-ए-कारवां का ब्यान छापा था—बदल रहा है मेरा देश...आ रहे उद्योग... मिल रहीं पक्की नौकरियां...रोकेंगे प्रतिभा का पलायन।
अभी हम इन दोनों ़खबरों के तवाज़न को भांप ही रहे थे, कि इसी अखबार के एक और प्रथम पृष्ठ पर नज़र पड़ी, तो पता चला, कि पहले दो पृष्ठों पर, दो पृष्ठों के सरकारी विज्ञापन छपे थे। ज़ाहिर है, अखबारें आज कल विज्ञापनों पर पलती हैं, और सरकारें भी आजकल पूरी तरह से विज्ञापनबाज़ हो गई हैं...यानि पैसा फैंको, तमाशा देखो। 
हमारे शहर में एक बाग है...कभी बहुत बड़ा रकबा था इसका। थोड़ा-थोड़ा करके शहर के छोटे-छोटे मीर-ए-कारवां इसका एक-एक टुकड़ा करके खाते गये, और आज यह बाग एक बागड़ी जैसा बन गया है। इस बागड़ी में एक फव्वारा है जिसका पानी, इसे स्थापित करने वाले दिन आधे आसमान तक जाता था। धीरे-धीरे इस फव्वारे के पानी की रफ्तार और ऊंचाई कम होती गई, और एक दिन इसका पानी पंजाब की धरती पर जून महीनों में आकर सूख गये सतलुज की भांति हो गया।
शहर के मीर-ए-कारवां को एक दिन बड़ी दूर की सूझी। मीडिया के लोगों, पत्रकारों को बुलाया और उन्हें बताया कि इस फव्वारे और बाग को पुन: पहले जैसी तासीर दी जाएगी। अखबारों में फव्वारे के बीच खड़े मीर-ए-कारवां के चित्र छपे, तो हम भी बड़े खुश हुए थे। पत्रकारों को ़खबर चाहिए थी...फव्वारे से उन्हें क्या लेना-देना। 
छेदी लाल जी उस दिन मिले, तो बड़े चुलबुले-से अन्दाज़ में...ढीली-ढाली पैंट, वैसा ही ढीला कुर्ता। दाएं हाथ में देव आनन्द स्टाईल तितलियां फांसने वाली धागा-बकेट। सिर पर ब्रिटिश काऊ-ब्वाय हैट। हमने हैरान होते हुए पूछा—किस शिकार पर निकले हैं  जनाब, हमें भी तो बताइये।
वो बोले-अरे जनाब! बड़ी मुश्किल से मिली है यह बकेट! सुना है, अपना देश एक बार फिर सोने की चिड़ियाओं का चम्बा बनने जा रहा है। अपने देश के मौजूदा मीर-ए-कारवां बड़े दयाल हैं आजकल...हर रोज़ नौकरियां बांटते हैं, गफ्फे लुटाते हैं वायदों के, दावों के। डालियां बांटते हैं....घोषणाओं की। 
—वो तो ठीक है, लेकिन यह हुलिया क्या बना रखा है आपने, काऊ ब्वायज़ जैसा। हमने आश्चर्य व्यक्त किया, तो छेदी लाल जैसे अपने पुराने रंग-ढंग में लौट आए—अब क्या बताएं जी! यह सारा नाटक इसलिए कि शायद सोने की कोई चिड़िया हमारे इस जाल में भी फंस जाए, या शायद मीर-ए-कारवां द्वारा बांटे जा रहे गफ्फों में से उड़ता हुआ जुगनूं इधर को आ जाए।
हमें तब सचमुच छेदी लाल जी की बुद्धिमता पर गर्व हुआ था। हम द्रवित भी हुए थे, किन्तु कर तो हम कुछ भी नहीं सकते थे न! सो, बड़ी मासूमियत से बोले—कोई बात नहीं छेदी लाल जी! दिन तो एक दिन रूड़ी के भी फिरते हैं, मियां! हो सकता है, किसी दिन आपको भी किसी उड़न-खटोलवा से गिरा कोई पैकेट मिल जाए। वो जो अपने मीर-ए-कारवां हैं न... वो आजकल उड़न-खटोले में बैठ कर लोगों के लिए हवा-हवाई वायदों की डोलियां बांटते फिर रहे हैं। इतना कह कर हमने उनकी पथराई जाती आंखों में झांक कर देखा—ढेरों मरे हुए सपने थे वहां...आशाओं के बुझे हुए दीप...ढेरों जुगनू थे किन्तु जिनकी पीठ पर रोशनी वाली गांठ खाली हो चुकी थी।
—कहां जी, अपनी किस्मत में ऐसा सुख कहां! वो हमारे मरहूम दादा जी भी नौकरी न मिलने की नमोशी में चल बसे थे। अपने अब्बा जान भी इस एक नेमत के लिए दर-दर भटकते रहे...और वो जो अपने लालवा हैं न मेरे वाले उनकी किस्मत में भी शायद यही बदा है।
छेदी लाल जी की इस बात का जवाब अब हमारे पास भी नहीं था। हम तो क्या, शायद वो चिराग वाले अलादीन के पास भी नहीं रहा होगा जिसकी उम्मीद में मेरे देश के लोग और से और आस लगाये जिये जा रहे हैं।
छेदी लाल जी चुपचाप उठे, और फिर चुप-चाप ही पिछले पांव मुड़ कर चल भी दिये। बरबस हमारे मुंह से एक फिलपदिया शे’अर उतर कर वक्त अन्धेरी सुरंगों में विलीन हो गया—
कोई सुनता नहीं है क्यों,
 हमारी बात अभी बाकी है
कोई जुगनू ही ले आओ, 
अभी भी रात बाकी है।