भारत ने दिलाई मोटे अनाज को अंतर्राष्ट्रीय पहचान

मोटा अनाज यानी की श्रीअन्न आज दुनिया की पहली पसंद बनता जा रहा है। दूरगामी सोच का ही परिणाम है कि आज समूची दुनिया वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट ईयर के रुप में मना रही है। मोटे अनाज के महत्व और पोषकता को देखते हुए ही इसे श्रीअन्न कहकर पुकारा। देखा जाए तो जब 2018 में भारत ने मोटे अनाज को पोषक अनाज घोषित करने के लिए विश्वव्यापी अभियान चलाया था, तब पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे कि संयुक्त राष्ट्र संघ मोटे अनाज के महत्व को समझते हुए 2023 को इंटरनेशनल मिलेट ईयर घोषित कर देगा। यह भी लगभग असंभव लगता था कि दुनिया के देश इतनी जल्दी मोटे अनाज के प्रति जागरुक होंगे। दरअसल गलत खान-पान के कारण लोग स्वास्थ्य समस्याओं से दो चार होने लगे हैं। ऐसे में मोटा अनाज एक बेहतर विकल्प के रूप में उभरा है। जिस तरह से अभियान चलाकर मोटे अनाज को प्रमोट करने का अभियान चलाया गया है, उससे देश-विदेश में मोटे अनाज का गुणगान होने लगा है। मोटापा, डायबिटीज, विटामिन्स की डेफिसिएंसी, एनिमिया, पाचन समस्या, कैल्शियम की कमी या यों कहें कि अच्छा खाने के बाद भी खोखले होते शरीर के कारण केमिकल्स पर आधारित दवाओं से अलग हटकर अब लोग मोटे अनाज में विकल्प खोजने लगे हैं। खरीफ  की प्रमुख फसल बाजरा का तो इस साल और अधिक उत्पादन होने जा रहा है। किसान इससे उत्साहित हैं तो स्टार्टअप्स और खाद्य प्रसंस्करण इकाईयां बेहद उत्साहित हैं। 
दरअसल गत शताब्दी के छठे-सातवें दशक तक हमारे यहां खास तौर पर गांवों का मुख्य भोजन मोटा अनाज ही रहा है। 1960 के दशक में खाद्यान्न संकट के विकल्प के रूप में हरित क्रांति का दौर आरंभ हुआ और ऐसे में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना पहली प्राथमिकता बनी और इसके लिए गेहूं को प्रमुख विकल्प माना गया। इसके बाद गेहूं के आयात, गेहूं का उत्पादन बढ़ाने के नाम पर रासायनिक उर्वरकों का दौर शुरु हुआ। रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रचार तंत्र को सक्रिय किया गया और आज हमारे कृषि वैज्ञानिकों, नीति नियंताओं और अन्नदाताओं की मेहनत से देश खाद्यान्न को लेकर आत्मनिर्भर बन गया है। कोरोना त्रासदी से लेकर अब तक ज़रुरतमंद लोगों तक नि:शुल्क खाद्यान्न की उपलब्धता बड़ा सहारा बनी है। हरित क्रांति समय की मांग थी और आज भी है, परन्तु अब समूची दुनिया में रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से होने वाले दुष्परिणामों और नित नई बीमारियों से त्रस्त होने के कारण विकल्प तलाशा जाने लगा है और मोटे अनाज को दुनिया के देश बेहतर विकल्प और आशा के रूप में देख रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक समय था जब मोटा अनाज प्रमुख भोजन होता था। आज भी दुनिया में कुल उत्पादित मोटे अनाज में भारत की भागीदारी 41 प्रतिशत है। आज मोटे अनाज के निर्यात में भी भारत प्रमुख देश है। गत साल 2.69 करोड़ डॉलर का मोटा अनाज भारत से अमरीका को निर्यात किया गया है। 
मोटे अनाज को प्रमोट करने के विश्वव्यापी प्रयास आरंभ हो गए हैं। युवा एंटरप्रोन्योर स्टार्टअप्स के माध्यम से आगे आ रहे हैं। लोगों को मिलेट रेसिपी भाने भी लगी है। लोग इनके महत्व को समझने लगे हैं। पुरानी पीढ़ी के लोगों को याद होगा कि राजस्थान में तो खासतौर से एक समय था जब घर पर मेहमान आने पर ही गेहूं की चपाती बनती थी। धीरे-धीरे मोटे अनाज का उत्पादन और उपयोग दोनों ही प्रभावित हुए। यह सब तो तब रहा जब कि बाजरा आदि मोटे अनाज के खेती में कम पानी और कम लागत आती रही, तो दूसरी और मोटा अनाज प्राकृतिक स्वास्थ्यवर्द्धक तत्वों से भरपूर रहा है और इनकी उपयोगिता को आज वैज्ञानिक सिद्ध कर रहे हैं। मौसम के अनुसार खेती होने से फसलों की तासीर भी पैदावार बाजार में आने के बाद उसके उपयोग से तय होती रही है। मोटा अनाज खासतौर से बाजरा खरीफ  की प्रमुख फसल है। अब आसानी से समझा जा सकता है कि खरीफ  की फसल पक कर तैयार हो जाती है तो उस समय तक सर्दी का मौसम आरंभ हो जाता है। सर्दी में बाजरा कितना स्वास्थ्यवर्द्धक होता है, इसको बताने की आवश्यकता नहीं है तो गर्मी में बाजरे की राबड़ी की अपनी पहचान हैं। समय का बदलाव देखिए कि गांव-गरीब का भोजन आज पंच सितारा होटलों में शाही व्यंजन बन चुका है। शादियों में बाजरे की खिचड़ी या छाछ राबडी प्रमुखता से परोसी जाने लगी है। 
देश में कृषि क्षेत्र में निरंतर सुधार हो रहे हैं। कृषि बजट में प्रतिवर्ष उल्लेखनीय बढ़ोतरी की जा रही है। अब कृषि वैज्ञानिकों के सामने नई चुनौती मोटे अनाज की उन्नत व गुणवत्तापूर्ण किस्में विकसित करने की है जिसे सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस क्षेत्र में शोध और अनुसंधान को बढ़ावा दिया जा रहा है और किसानों को मोटे अनाज के उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक प्रेरित करने के समन्वित प्रयास किए जा रहे हैं। 
 

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