लोक संस्कृति की अमूल्य धरोहर रंगोली

प्राय: उत्सवों, त्योहारों के समय में और विशेषकर दीपावली के समय में घर को लीपने पोतने का, सजाने-संवारने का कार्य किया जाता है। आधुनिक समय में दीवारों को सजाने का कार्य पेंटिग्स, पोट्रेट ने ले लिया है। वहीं घर के बाहर बनी-बनाई रंगोली के स्टीकर भी मिलने लगे हैं। कई स्थानों पर तो रंगोली बनाने के लिये विभिन्न डिजाइन के साधन भी मिलने लगे हैं। जिनमें चावल का आटा भर कर जमीन पर चलाना मात्र होता है और सुन्दर आकृतियां उभर आती हैं। यह एक प्रकार से स्त्रियों द्वारा अपनी रचनात्मकता दिखाने का अवसर भी होता है। ग्रामीण परिवेश अभी भी आधुनिकता से अछूता है। वहां, घर के बाहर की दीवारों पर, आंगन में, मुख्य द्वार के बाहर विभिन्न रंगों की अद्भुत रंगोली देखने को मिल जाएगी। दीपावली पर रंगोली सजाकर स्त्रियां सम्पूर्ण वातावरण को रंग-बिरंगा बना देती हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि आधुनिक और पढ़ी-लिखी स्त्रियों में भी रंगोली अल्पना के प्रति गहरा आकर्षण दिखाई देता है। रंगोली लोक जीवन का एक बहुत ही अभिन्न अंग है। देश के विभिन्न हिस्सों में रंगोली सजाने का अपना अलग-अलग स्वरूप है और अलग-अलग महत्व भी। दक्षिण भारत में स्त्रियां प्रात: काल उठते ही अपने-अपने दरवाजों को विभिन्न रंगों की रंगोली सजाती हैं। उत्तर भारत में रंगोली को अल्पना या चौक पूरना भी कहा जाता है। त्योहार और उत्सव तो जैसे रंगोली के बिना अधूरे-अधूरे ही लगते हैं। प्रतीकोपासना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। यही कारण है कि प्राचीन काल से अब तक इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट परिहार के लिए विविध प्रतीकों के पूजने की प्रथा प्रचलित है। आज के पाश्चात्य प्रभाव की पर्याप्त पैठ शहरों में होने के कारण हमारे लोक-संस्कृति के प्रतीक शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गांवों में अधिक लोकप्रिय है, जिन्हें हम अल्पना, चौक पूरना, रंगोली, मांडणे मांडना, कोलम, साखिया आदि नामों से पुकारते हैं। इन प्रतीकों में असीम आस्था, श्रद्धा तथा कल्याण की कामना समाई हुई है। तभी तो पर्व-त्योहारों, सांस्कृतिक समारोहों, मांगलिक कार्यों इत्यादि पर उक्त प्रतीक बनाए जाने की लोक परंपरा और प्रचलन है।
मांगलिक अवसरों पर घर में बनाए जाने वाले चित्रांकन प्राय: कुंवारी कन्याओं अथवा स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं, जिनमें अल्पना, रंगोली, मांडने, अपने-अपने क्षेत्रों के अनुसार उकेरे जाते हैं। प्रारंभ में गाय के गोबर से उस स्थान को लीपा जाता है, फिर सींक, सलाई, रुई, ब्रश अथवा उंगली के सहारे अल्पना, रंगोली, लोक चित्रकारी आदि बनाने का कार्य प्रारंभ कर दिया जाता है तथा अवसर के अनुरूप लक्ष्मी, कमल का फूल, स्वास्तिक, चिड़िया, हाथी, शेर, मोर, फूल आदि बड़ी श्रद्धा भक्ति के साथ बनाए जाते हैं। यही नहीं, गावों में तो जो लोकगीत इस अवसर पर गाए जाते हैं, उन्हें सुनकर श्रोता मुग्ध हो जाते हैं। (सुमन सागर)