चीन के साथ रिश्तों की पींग, आखिर मंशा क्या है भूटान की ?

ख्माओ ने चीन के विस्तारवादी इरादों को जाहिर करते हुए कहा था कि ‘तिब्बत चीन की हथेली है, लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और अरुणाचल इस हाथ की अंगुलियां। इस मुट्ठी के बंधते ही चीन का प्रभुत्व पूरे एशिया पर हो जाएगा।’ इस उद्धरण के संदर्भ में भूटान का चीन के साथ बदलते रिश्ते और उस पर भारतीय राजनय की खामोशी महत्वपूर्ण है। सरकार को बताना चाहिये कि भूटान नरेश ने भूटान के सीमा विवाद में शामिल डोकलाम पर चीन से वार्ता के बावत भारत को विश्वास में न लेने पर क्या कहा? भूटान नरेश जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वार्ता सफल, सकारात्मक रही। स्वाभाविक तौर पर प्रधानमंत्री ने अपने पड़ोसी को उसके सामाजिक, आर्थिक विकास हेतु अपना पूर्ण समर्थन देने का वायदा किया। आपसी सम्पर्क, व्यापार, बुनियादी ढांचे, पर्यटन और ऊर्जा क्षेत्र को विस्तार देने के अलावा बनारहाट और भूटान के समत्से तक लाइन बिछाने और कोकराझार को भूटान के गेलेफू से जोड़ने वाले प्रस्तावित रेल लिंक हेतु सर्वेक्षण पर सहमत हुए। पारस्परिक निवेश, स्वास्थ्य, शिक्षा, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी पहलुओं के साथ-साथ आपसी हित के क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर चर्चा करने की बात संयुक्त बयान के जरिये पता लगी। पर जो बात सब जानना चाहते थे, उसके बारे में तो कुछ भी पता नहीं चला। यहां तक कि कोई स्पष्ट या परोक्ष संकेत भी नहीं मिला। 
भूटान के राजा की यह भारत यात्रा भूटान की चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाव चीन में हुई 25वें दौर की वार्ता के कुछ ही हफ्ते बाद हो रही है, सो वांगचुक के प्रधानमंत्री और एस. जयशंकर से मुलाकात से पहले यह चर्चा आम थी कि चीन के साथ पींगें बढ़ा रहे भूटान को प्रधानमंत्री से सख्त संदेश मिलेगा। भारत द्वारा संरक्षित भूटान संप्रभु है, पर उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत पर है। उसे स्वतंत्र और संप्रभु देश की सबसे पहले मान्यता हमने दी थी। उसके पुलिस अधिकारियों को हम प्रशिक्षित करते हैं। भारतीय सेना की कुछ बटालियन भूटान में सुरक्षा के लिए रहती हैं। वह अमूमन भारत की विदेशनीति का अनुसरण करता रहा है। वही भूटान आज डोकलाम विवाद हल करने के लिए चीन से सीधे बात कर रहा है, इस वार्ता के बारे में भारत को न तो कोई खबर थी, न उसमें उसकी कोई भूमिका। बातचीत में किन शर्तों पर क्या समझौते हुए इसकी जानकारी न तो चीन ने उजागर की न भूटान ने भारत को दिया।
हमारे पड़ोसियों को लगातार भड़काने में जुटा चीन अब उस भूटान तक पहुंच गया जो कभी हमारे विपरीत नहीं गया। हैरानी की बात है कि भारत को घेरना चीनी विदेश नीति का सर्वोपरि लक्ष्य है, यह जानते बूझते भूटान सरकार चीनी हुकूमत के साथ आयी। भूटानी प्रधानमंत्री लोताय शेरिंग ने डोकलाम में जमीन की अदला-बदली के चीनी प्रस्ताव को बता दिया लेकिन भारतीय राजनय को भूटान को तब या तो भूटान को यह नहीं कहा कि यह मुद्दा त्रिपक्षीय है, बिना उसको शामिल किए कोई बात न हो या भूटान ने इसको अनसुना कर दिया आखिरकार ‘चीन-भूटान सीमा वार्ता में तेज़ी लाने के लिए तीन-चरणीय रोडमैप पर समझौता हो गया। यहां तक कि दोरजी ने बीजिंग में बयान दिया कि भूटान चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया तेज़ करेगा। वह चीन से सीमा विवाद सुलझाने को तैयार है। राजनयिक संबंध स्थापित कर चीनी चंगुल में फंसने का उसको इमकान हो न हो पर यह तो उसे पता है कि उसके साथ देने से डोकलाम के नज़दीक 60 किलोमीटर लम्बा और 22 किलोमीटर चौड़ा चिकन नेक गलियारा जो उत्तर पूर्व के 7 राज्यों को भारत के साथ जोड़ता है उसे हथियाने में चीन को कामयाबी मिल सकती है। चीन, भारत और भूटान तीनों देशों की सीमाएं डोकलाम में मिलती हैं और दो बरस पहले 2021 में चीन और भूटान ने ‘थ्री-स्टेप रोडमैप’ के समझौते पर दस्तखत किए थे। 
चीन चाहता है कि भूटान के साथ जमीन की अदला बदली के तहत तीनों देशों की सीमाओं के मिलन स्थल को बटांग ला की ओर सात किलोमीटर दक्षिण की ओर बढ़ा दिया जाए। ऐसे में पूरे डोकलाम पर चीन का कानूनी कब्ज़ा हो जाएगा। ऐसे में युद्ध जैसी स्थिति में चीन पूर्वोत्तर को देश के बाकी हिस्से से काट सकता है। अपना एकमात्र पड़ोसी जो चीन के बी.आर.आई. में शामिल नहीं हुआ वह चीन की विस्तारवादी योजना ‘कर्ज दो कब्जा करो’ का शिकार नहीं बनेगा। जब भूटान नरेश हफ्ते भर से ज्यादा समय के लिए भारत आये तब इस बात की उम्मीद बढ़ी कि वे अपनी सफाई में कुछ कहेंगे, चीन के साथ सीमा वार्ता पर भूटान का पक्ष समझाएंगे। पर ऐसा कुछ हुआ, पता नहीं। चीन के साथ भूटान का कोई राजनीतिक संबंध नहीं है, जाहिर है ऐसे में वहां उसका दूतावास भी नहीं है और न वहां उसका कोई आर्थिक कार्यक्रम। चीन द्वारा जबरन राजनीतिक संबंध बनाने के लिए मज़बूर करने पर भूटान भयभीत या असहज है, असुरक्षित महसूस कर रहा हो, ऐसा कभी नहीं लगा बल्कि विदेश मंत्री शेरिंग ने बेल्जियम के एक दैनिक ला लिबरे को दिए साक्षात्कार में साफ कहा है कि चीन भूटान के साथ अपने सीमा विवाद को सुलझाने के लिए उत्सुक है। 
भूटान भारत और चीन के दो पाटों के बीच पिसना नहीं चाहता इसलिए वह संप्रभुता, सुरक्षा, भू-राजनीतिक रणनीति, कूटनीति इत्यादि के कारकों को ध्यान में रखकर अपनी चिंताएं सार्वजनिक नहीं करना चाहता, परन्तु राष्ट्र की सुरक्षा, सरोकार का संबंध सेना और सरकार के साथ आमजन का भी होता है। वह भी जानना चाहती है कि कहीं हंबनटोटा में चीन के जासूसी जहाज को ठहराने में जिस तरह श्रीलंका ने डबल गेम खेला, भारत को पहले आश्वस्त किया कि वे इसकी इजाज़त नहीं देंगे, देंगे तो महज ईंधन भरने की, फिर कहा कि यान भारत की सहमति से बने नीति नियमन के तहत यहां ठहरेगा और आज वह जहाज वहां रहकर अपना काम कर रहा है, भारत कोई प्रतिरोध न कर सका। तो कहीं भूटान भी डोकलम मामला सुलझाने के मामले में उसी तरह का ‘डबल क्रॉस’ तो नहीं कर रहा। ऐसे में यह जानना ज़रूरी है कि भूटान और चीन के बदलते रिश्ते की असलियत क्या है? ऐसे में ये सवाल लाजिमी है कि क्या भारत ने वांगचुक और उनके अमले से पूछा कि चीन जाकर इस त्रिपक्षीय मामले में उसे बिन बताये वार्ता किन परिस्थितियों में हुई। जब यह तय है कि कोई एक पक्ष इस स्थिति को बदल नहीं सकता तो इस वार्ता का मतलब ही क्या है? भूटान भारत की चिंताओं को कितनी प्राथमिकता देता है और भारत उसकी मंशा पर किस स्तर तक भरोसा करे, सड़क और दूसरे अवसंरचनात्मक सहयोग में चीनी सहायता के प्रस्ताव के उत्तर में उसकी रणनीति और इरादा क्या है? सरकार ने ये सवाल पूछे होंगे।     

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