किसी चीज़ के समाप्त होने पर ही नई का सृजन होता है

मनुष्य की अनेक इच्छाओं, अभिलाषाओं में से एक होती है कि अपना, स्वयम् का एक ऐसा घर हो जहां बिना किसी भय और चिंता के रहा जा सके। यह संतोष बना रहना कि दुर्दिन आने पर भी सिर के उपर छत है, सुख से रहने का महत्वपूर्ण सहारा है। अपने घर में चाहे जैसे रहें, कौन देखने या कुछ कहने वाला है, यह भावना ही जीवन के उतार-चढ़ाव सहने के लिए पर्याप्त है।
अध्यात्म की भाषा में कहा जाये तो हमारा शरीर वह स्थान है जहां आत्मा रहती है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति को अपने रहने की जगह साफ सुथरी, सुंदर, आकर्षक और सभी सुविधाओं से युक्त चाहिये होती है, उसी प्रकार आत्मा को भी एक स्वस्थ, बलशाली, हष्ट-पुष्ट और उर्जावान शरीर चाहिए। किसी को भी कमज़ोर, अशक्त और कांतिहीन शरीर अच्छा नहीं लगता। होता यह है कि ऐसे व्यक्ति का अनादर, तिरस्कार करने या फिर उसे अपना गुलाम बनाने की मानसिकता बनने लगती है। आत्मा को भी ऐसे शरीर में रहना अच्छा नहीं लगता और वह उसे छोड़कर चली जाने के लिए विवश है। इसे हम अकाल या असमय मृत्यु कहते हैं। आत्मा क्या है, यह और कुछ नहीं भू-मंडल में व्याप्त उर्जा ही है जिसका अस्तित्व सृष्टि के आरंभ से है और क्योंकि यह शाश्वत है, इसलिए अक्षय है, कभी न समाप्त होने वाली वस्तु है। अनेक रूपों में हमारे आसपास, जीवन के चारों ओर विद्यमान रहती है। यह संसार उसका घर है जिसे वह अपनी मज़र्ी और प्रकृति के अनुसार सजाती, संवारती है। जब कहीं कुछ टूटता, बिखरता या विध्वंस होता है तो उसका अर्थ यह है कि उर्जा को वह बात पसंद नहीं या उस वस्तु में पहले जैसी बात नहीं रही और उसका नष्ट हो जाना ही श्रेष्ठ है। मतलब यह कि किसी चीज के समाप्त होने पर ही नये का सृजन होता है। कलुषित यानी जो शरीर ख़राब है, अशोभनीय और अमानुषिक है, उसमें स्वच्छ और निर्मल आत्मा का वास नहीं होता।
आत्मा का, अपनी अतृप्त इच्छाओं को वर्तमान शरीर द्वारा पूरा किए जाने में असमर्थ होने पर, उसे छोड़कर चले जाना, स्वभाव है। सांसारिक भाषा में यह मृत्यु या जीवन का अंत है पर आध्यात्मिक रूप से यह निर्वाण है जिसमें न शोक है, न आनंद है, केवल स्थान परिवर्तन है। घर बदल लिया इतना ही समझना काफी है। जिनका घर नहीं होता, उनके लिए गालिब का यह शे’अर है, ‘कितना खौफ  होता है शाम के अंधेरों में, पूछो उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते।’
आत्मा अपने आप में पूर्ण है, उसे किसी साथी की जरूरत नहीं क्योंकि शरीर उसका आत्मिक, आत्मीय यानी सोलमेट है। दोनों को एक साथ जीना है। कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति बुरा काम करता है, तो आत्मा उसका साथ नहीं देती और कहा जाता है कि इसकी आत्मा मर गई है। आत्मा विहीन शरीर शव के समान है और ऐसा व्यक्ति कभी भी समाज में आदर का पात्र नहीं होता। ऐसे व्यक्ति को मृत्यु का भय नहीं होता क्योंकि एक प्रकार से वह अपने दुष्कर्मों के कारण मरे हुए के समान है। वह मानसिक रूप से विकारग्रस्त है, विक्षिप्त की तरह है और कभी कभी तो पशुओं जैसा व्यवहार करता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन इसीलिए धिक्कार का कारण बनता है। उसे दण्ड देना चाहे मृत्युदंड ही क्यों न देना पड़े, सर्वथा उचित और न्यायोचित है।
आत्मा जिस शरीर में है उसमें गुण और अवगुण दोनों रहते हैं। यह हमारे मन और बुद्धि पर निर्भर है कि हम इन्हें कितना स्वीकार करते हैं और कितना नहीं। हमारा स्वभाव उसी के अनुसार बनता जाता है। इसीलिए शरीर की भांति मन की भी सफाई करते रहना ज़रूरी है। यह उन सभी दुर्गुणों पर झाड़ू फेरने जैसा है जो मनुष्य को हैवान बना देते हैं। इस श्रेणी में जो काम आते हैं, उनमें प्रमुख हैं य किसी को बिना किसी मतलब के हानि पहुंचाने, समाज या राष्ट्र विरोधी विचारों का आदान-प्रदान और उन्हें पनपने देना और इसी प्रकार के दूसरे यत्न करना जिनसे अपना लाभ भले ही न हो पर दूसरे को नुकसान पहुंचे। इस प्रकार की मानसिकता वाले लोगों का मुकाबला करना आसान नहीं बल्कि बहुत कठिन है। इस के लिये मन को तैयार करना पड़ता है। इसका मार्ग तप, साधना, योग तथा विचारों की शुद्धि है।
आत्मा कभी भी ऐसी सोच को स्वीकार न तो करती है और न ही बढ़ावा देती है जो अपने लिए लाभकारी तो हो लेकिन उसमें दूसरों की सुविधा का ध्यान न रखा गया हो। आत्मतुष्टि यही है और इसी से वह तृप्त रहती है। इसका सीधा प्रभाव हमारे कार्यों पर पड़ता है। यदि हम आत्मा के संकेत को न समझकर या जानते बूझते किसी का अहित करने का काम करते हैं तो हमारी उर्जा तो नष्ट होती ही है, अपनी नजरों में भी गिर जाते हैं। बाहर से चाहे कितने भी दबंग बने रहें लेकिन आत्मा तो कचोटती ही रहती है और जब तक हम अपनी सोच और अपने कामों को नहीं बदलते तब तक अपराध भावना से ग्रस्त रहना हमारा स्वभाव बन जाता है। आत्मा की ध्वनि या आवाज़ अनसुनी कर जो भी काम किए जाते हैं, उनका दण्ड मिलना तय होता है।
आत्मा का एक ही स्वार्थ है और वह यह कि प्रेम की गंगा बहती रहती है, उसमें न कोई रुकावट न कोई व्यवधान, शरीर को सावधान करती रहती है कि यदि किसी के साथ अन्याय किया या होने दिया तो उसे अलग होने में समय नहीं लगेगा। इसका एक धर्म यह भी है कि जिससे अनुराग है, लगाव है, प्रेम है, उसके प्रति कोमल भाव रखते हुए अपने दिल की बात कहने में संकोच न करें। यही जीवन का सार तत्व भी है।