स्वतंत्रता सेनानियों का अनुसरण करते हुए

वर्ष 2023 अभी समाप्त नहीं हुआ परन्तु इस वर्ष पंजाब के लेखकों ने स्वतंत्रता सेनानियों को खूब याद किया है। पंजाब की सरकार ने भी करतार सिंह सराभा के शहीदी दिवस 16 नवम्बर को सभी सरकारी संस्थान बंद रखने की घोषणा की। जसवंत राय ने शहीद बाबू हरनाम सिंह काहरी साहरी की जीवनी ‘कौम का सितारा’ पाठकों की झोली में डाली है। जगतार सिंह तथा गुरदर्शन सिंह बाहिया ने ‘काला पानी’ नामक पुस्तक में पंजाबियों के योगदान को अंग्रेज़ी भाषा में कलमबद्ध किया है। इसी प्रकार गुरदेव सिंह सिद्धू ने गदरी बाबा निधान सिंह महेसरी, मास्टर गज्जन सिंह गोबिंदपुरी तथा ज्ञानी ऊधम सिंह जैसे उपेक्षित स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनी के बारे तीन पंजाबी पुस्तकें जारी की हैं। जहां तक स्वतंत्रता संग्राम में पंजाबियों, विशेषकर सिखों के योगदान का संबंध है, ‘काला पानी’ नामक अंग्रेज़ी पुस्तक में इसका भरपूर ज़िक्र तो किया ही है, साथ ही इसे सात समुद्र पार के अंग्रेज़ी पाठकों तक भी पहुंचाया है। 
इसमें गंडा सिंह, फौजा सिंह जैसे इतिहासकारों तथा मालविन्दरजीत सिंह वड़ैच जैसे समाज शास्त्रियों के हवाले से यह दर्शाया गया है कि भारत का प्रवेश द्वार होने के नाते पंजाब का सिकन्दर तथा बाबर जैसे हमलावरों का मुकाबला करना सिद्ध करता है कि अनखीले पंजाबी शुरू से धरती माता के लिए कुर्बान होते आए हैं। इन्होंने ब्रिटिश सेना को सतलुज नदी से आगे नहीं बढ़ने दिया। 
पंजाब जिसमें वर्तमान पाकिस्तान भी शामिल था, स्वतंत्रता संग्राम का अद्वितीय झूला रहा है। शाह मुहम्मद के शब्दों में अंग्रेज़ सेना का नींबू की भांति रक्त निचोड़ने वालों में मेवा सिंह तथा माखे खां दोनों ने ही तय करके लड़ाई की थी। 19 वर्ष की आयु में शहीद होने वाले करतार सिंह तथा 23 वर्षीय शहीद भगत सिंह ने भी अंग्रेज़ सरकार से डट कर मुकाबला किया।
इनके अतिरिक्त काले पानी की सज़ा भुगतने वाले संग्रामियों का भी कोई अंत नहीं। अंग्रेज़ सरकार से आज़ाद होने के लिए नामधारियों, गदरियों तथा बब्बर अकालियों का योगदान भी भूलने वाला नहीं, जलियांवाला बाग के शहीदों सहित। 
यह पुस्तक पंजाबियों के योगदान की बात करते समय मुसलमान संग्रांिमयों का ज़िक्र भी गर्व से करती है। बड़ी बात यह कि यह रचना वीर सावरकर द्वारा मांगे माफीनामे से पर्दा भी उठाती है जिसके सिर पर स्वतंत्रता का ताज पहनाने में मुम्बई वालों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। ताज़ा पुस्तक यह भी बताती है कि अंडमान की बंद कोठरी जेल में राजनीतिक कैदियों को ऐसे कमरों में रहना पड़ता था जहां रौशनी की खिड़की भी नाममात्र थी और शौच-लघुशंका भी काल कोठरी में करनी पड़ती थी। 
जगतार सिंह तथा गुरदर्शन बाहिया को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने यह रचना अंग्रेज़ी भाषा में लिख कर पंजाबियों के योगदान को विश्व भर के अंग्रेज़ी पढ़ने वालों तक पहुंचाया है। पुस्तक वास्तव में ही पढ़ने योग्य है।
कुछ उपेक्षित स्वतंत्रता सेनानी
उक्त पुस्तक की बात करते हुए मैं यह बताना भूल गया कि 1909 से 1921 तक जिन संग्रामियों ने अंडमान तथा निकोबार की जेल में सज़ा काटी, उनमें 73 पंजाब से थे, 9 यूनाइड प्रोविंस से तथा 3 मुम्बई से जिन्में माफी मांगने वाला विनायक दामोदर सावरकर भी था। वर्ष 2023 में खुशी की बात यह है कि गुरदेव सिंह सिद्धू ने निधान सिंह महेसरी, मास्टर गज्जन सिंह गोबिन्दगढ़ तथा ज्ञानी ऊधम सिंह की जीवन-कहानी बारे तीन पुस्तकें इसी वर्ष प्रकाशित करवाई हैं। 
निधान सिंह में स्वतंत्रता की भावना अमरीका जाकर पैदा हुई। फिर वहां की सरकार ने उन्हें देश निकाला दे दिया तो निधान सिंह सोवियत यूनियन चले गए और वापस आकर अपने गांव महेसरी संधुयां में रह कर सामाजिक गतिविधियों में व्यस्त हो गए। इस दौरान कुछ समय तत्कालीन पंजाब की राजधानी लाहौर में भी सक्रिय रहे। याद रहे कि जो सड़क उनके गांव को लुधियाना-फिरोज़पुर सड़क से जोड़ती है, उसका नाम बाबा निधान सिंह मार्ग रखा गया है। खुशी की बात यह है कि वह पूरी उम्र वामपंथी विचारधारा को समर्पित रहे। 
उपेक्षित मास्टर गज्जन सिंह लुधियाना जिले के गांव साहनेवाल के पड़ोसी गांव गोबिन्दगढ़ में जन्मे थे। उन्होंने  पहले विश्व युद्ध के समाप्त होते ही 18 वर्ष की आयु में शिंघाई चले गए थे। वहां जाकर रोज़ी-रोटी के लिए तो स्कूल अध्यपक बन गए, परन्तु तन-मन से क्रांतिकारी रहे। उन्हें शिंघाई की जेल में भी रहना पड़ा। यहीं बस नहीं कलकत्ता पहुंचते ही उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया और बंगाल की मिदनापुर तथा ढाका जेलों के बाद लुधियाना जेल में बंद कर दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद मास्टर जी को सिंध प्रांत की किरती लहर की ज़िम्मेदारी सौंपी गई, परन्तु जल्द ही अंग्रेज़ सरकार ने किरती किसान पार्टी को गैर-कानूनी संगठन घोषित कर दिया और मास्टर गज्जन सिंह पर सीमाबंदी लागू कर दी। फिर दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्हें पुन: गिरफ्तार करके दयोली कैंप की जेल में बंद कर दिया गया। गलत बात यह कि 1947 के देश विभाजन के बाद भी धार्मिक चरमपंथियों ने मास्टर जी को चैन से बैठने नहीं दिया और वह मानसिक पीड़ा का शिकार हो गए। यह बात अलग है कि इस अवस्था में भी वह जो शब्द बोलते उसमें से निडरता छलक पड़ती थी। 
रियासत नाभा के गांव खनियान में जन्मे एक और योद्ध ने सेना में भर्ती होते समय तो बाबू सिंह के नाम से विचरण किया परन्तु 28 वर्ष की आयु में अकाली दल में शामिल होते समय उन्होंने अमृतपान किया और ऊधम सिंह हो गया। पायल के गुरुद्वारा में ग्रंथी के रूप में सेवा निभाने तथा मेरठ छावनी में किरती प्रचार करने वाले ऊधम सिंह को 1923 में महाराजा नाभा को अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़बरन गद्दी से उतारे जाने के खिलाफ दीवान सजाने के कारण तथा 1929 में सेवा सिंह ठीकरीवाल के साथ मिल कर अकाली दल बनाने के आरोप में जेल जाना पड़ा।
उसके बाद मार्च 1941 को फौजी बगावत भड़काने के आरोप में गिरफ्तार करके सिकंदराबाद, मीयांवाली, मुजफ्फरगंज तथा लायलपुर की जेल में बंद रखा गया। यहां से रिहाई के बाद उन्होंने धमोट के गुरुद्वारा साहिब में ग्रंथी की सेवा निभानी शुरू कर दी। जब 1960 में वह भी निधान सिंह की भांति अधरंग का शिकार हो गया तो उसे कूहली कलां रहती बहन नंद कौर अपने पास ले आई जहां 20 नवम्बर, 1964 को उसने अंतिक श्वास लिए। भारतीय सेना, किरती पार्टी तथा गुरुद्वारों में ग्रंथी की सेवा निभाने वाले इस व्यक्ति का जीवन रंग रंगीला था। 
गुरदेव सिंह सिद्धू द्वारा उपेक्षित स्वतंत्रता सेनानियों को याद रखते समय पारिवारिक तस्वीरों सहित पेश करने का स्वागत करना बनता है।