बच्चों के मन में भय न पनपने दें

सभी माता-पिता अपने बच्चों के मन में भय उत्पन्न करने वाले भावों को लेकर चिंतित होते हैं पर कई बार अनजाने में ही वे अनुचित प्रतिक्रि या व्यक्त करके बच्चों के भय को दूर करने की बजाय उनके डर को कहीं ज्यादा बढ़ा देते हैं। यह ठीक है कि कोई भी माता-पिता बच्चों के प्रति जान-बूझकर निर्दयी या संवेदनहीनता का व्यवहार नहीं करते लेकिन मौके पर वे समझ ही नहीं पाते कि अपने बच्चों से कैसा व्यवहार करें ताकि बच्चे आश्वस्त हो सकें व भय के निर्मूल भाव से उबर सकें।
बच्चे प्राय: तेज़ आवाज़, छाया, अंधेरे से घबरा जाते हैं। बच्चे का घबरा जाना, उसका भयभीत हो कर रोना व मां-बाप के पास ही बने रहने की जिद करना स्वाभाविक-सी बात है। बच्चे के लिए उसका हर भय वास्तविक ही होता है भले ही वह छोटा ही हो व बड़ों के लिए उसका कोई भी अर्थ न हो। बचपन में अधिकांश भय बच्चों के लिए न केवल वास्तविक होते हैं, उनके विकास के स्वाभाविक अंग भी होते हैं। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, उनके भय भी सच्चाई जान लेने पर या फिर बड़ों के समझाने पर जाते रहते हैं।
नैसर्गिक भय दो प्रकार के होते हैं- गिरने का भय और किसी भी तेज़ व अचानक हुई आवाज़ का भय। ये दोनों प्रकार के भय तब पैदा होते हैं जब बच्चे को अपनी सुरक्षा के लिए संभावित खतरा महसूस होता है।
एक और तरह का भय भी बच्चों को परेशान करता है, वह है अकेलेपन का भय। यह भय असुरक्षा की भावना की प्रतिक्रि या स्वरूप उपजता है और जैसे ही मां या कोई भी दूसरा व्यक्ति जिसे बच्चा पहचानता है, आ जाता है तो भय खत्म हो जाता है। वैसे कई स्थितियों में बड़ी उम्र में भी एकाकीपन का भय लोगों को डराता है।
यदि मां बाप समझदारी से काम लें व उसके भय को दूर करने का प्रयास करें तो बच्चा बड़ों के आश्वासन पर विश्वास करना सीख जाता है। बच्चा बिना शरमाए व खीझे अपने भय पर काबू पा सके, इसके लिए उसे बताया जा सकता है कि सभी बच्चे इस उम्र में इस तरह डरते हैं। 
यह नई बात नहीं है, पर यह सच है कि इस तरह डरने की कोई ज़रूरत नहीं है इसके लिए बच्चों की पूरी बात सुनना, उनके मन की छोटी-छोटी आशंकाएं बच्चा जिस नजरिए से देख या सोच रहा है, उसके भय को उसी के स्तर तक देखना ज़रूरी होगा, तभी वह बात समझेगा व आश्वस्त भी हो पाएगा। 
(उर्वशी)