पुराने शिलालेख : नयी इबारत

गरीबी की सुरंग, नैतिकता के पतन का मेनहोल, और एक ऐसा बोरवैल जिसमें देश के नौनिहाल अचानक जा गिरे, और लगातार धंसते ही चले गये। वायदा था, ‘एक दो दिन में इन्हें बाहर निकाल लेंगे। हमने इस काम के लिए विदेशी मशीनें लगा दी हैं। अफसरशाही चाक-चौबन्द खड़ी है—अखबारों को खबरें देने के लिए तैयार-बर-तैयार।’ जो सुरंग से लेकर बोरवैल तक में गिरा है, वह स्वस्थ, प्रसन्न है। उसे समय-समय पर मुफ्त खाना और पानी पहुंचाया जा रहा है। बाहर इकट्ठे हो गये नाते-रिश्तेदारों से बातचीत करवायी जा रही है। कुशल मंगल का माहौल है। नेता जी अपनी कुर्सी पर तैयार बैठे हैं। जैसे ही गिरे हुए लोगों के बच कर निकल आने की सूचना मिलेगी, वह तुरन्त पधारेंगे, बचे लोगों को लम्बी ज़िन्दगी का आशीर्वाद देने। उनके साथ तस्वीर खिंचवाने के लिये।
पर यह केवल एक सुरंग, एक मेनहोल एक बोरवैल की कहानी नहीं है। रूप बदल कर ये बोरवैल हमें हर जगह-जगह दिखायी देते हैं। शायद ही कभी कोई इनसे बच कर निकलता दिखायी देता है। पहले दो एक दिन बचने की उम्मीद के शूरवीर सूत्रों से समाचार, फिर पराजय, निराशा और खामोशी, परिणाम अब इनकी खबरों पर काली पट्टी नहीं लगती। बस किसी न किसी तरह इनकी अन्तिम सूचना से बच निकल जाने का प्रयास होता है।
अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाली सुरंग कहां ध्वस्त हो गयी? कल तक जो सपाट सड़क थी, उस पर यह गहरा अंधेरा मेनहोल कहां से निकल आया? बिना ढक्कन का बोरवैल इतना गहरा क्यों हो गया कि नई सुबह के नवजात इसमें गिरे, तो आशाजनक वायदों के बावजूद इनमें से निकल नहीं पाये? आखिर दोषी कौन है? अवश्य पिछली सरकार के मसीहा होंगे, जिन्होंने अपनी सत्ता को चिरन्तन बनाने के लिये इन नई सुरंगों, मेनहोलों, और बोरवैलों के द्वारा एक नयी दुनिया रच देने के वायदे किये होंगे। इन वायदों के निशान तो आज भी बाकी हैं, लेकिन टूटी सुंरगों, अन्धे कुओं जैसे मेनहोलों ने चिरजीवी होकर सपना देखने वालों को निराशा और असफलता भरी कैद दे दी। अब इन्हें बाहर निकाल लेने के जितने चाहे आंकड़े प्रसारित कर लो, जो एक बार इनमें गिरा है, कभी वापस नहीं आया है।
आप पूछ सकते हैं, हमारी ज़िन्दगी के लिये ये सूचनातंत्र के अखबारी शीर्षक क्यों प्रतीक रूप से टिका रहे हो? क्या इनके बिना आम ज़िन्दगी के निरन्तर वीभत्स हो जाने की तस्वीर साफ दिखायी नहीं देती?
बेशक दिखायी देती है। सुरंगों की याद तो इस लिये आ गयी, क्योंकि समय के मसीहा अन्धी-अन्धेरी सुरंगों में कैद मासूमों को आजकल आतंकवादी कह कर मौत के हवाले कर रहे हैं। यहां युद्ध लड़ने की घोषणा कोई करता है, और पर्दे के पीछे उसकी पीठ थपथपाने वाले उसे खत्म नहीं होने देते। मरती हुई ज़िन्दगियां आर्त्तनाद करती हैं लेकिन उन्हें खत्म कर देने का दावा करने वाली ताकतें अपनी मिसाइलों और टैंकों के मुंह बन्द नहीं करतीं। आजकल ये युद्ध आन,बान और शान के लिए नहीं, व्यावसायिक हितों का पोषण करने के लिए लड़े जाते हैं बन्धु! अमन, चैन का सन्देश सुन कर अगर ये युद्ध बन्द हो गये, तो हथियार बनाने वाली फैक्टरियां अपने हथियार कहां बेचेंगी। इसलिए हथियार बेचते रहने के लिए ज़रूरी है कि कहीं न कहीं हिंसक तनाव पैदा किये रखो। शांति के संवाद का सन्देश अवश्य देते रहो, लेकिन यह भी देख लो कि अरबों रुपयों से बनी हथियार फैक्टरियों पर ताले न लग जायें।
यह देश के बाहर की बात थी, और देश के अन्दर भी माहौल को इसी तरह संवारते रहो। हर नयी सत्तारूढ़ सरकार भ्रष्टाचार को ज़ीरो कर देने का वायदा अवश्य करे, लेकिन भ्रष्टाचार को ज़िन्दा रखने के लिये मध्यजनों की टोपियां अवश्य बदल दे। ‘यहां सब चलता है’ की संस्कृति वही रहे, लेकिन उसके चेहरे पर एक नयी नकाब अवश्य चढ़ा दे। चोर दरवाज़ा, संस्कृति की निंदा करनी है है तो करो, लेकिन अपने लिये कुछ नयी सुरंगें अवश्य निकाल लो। इन सुरंगों की निर्माण प्रक्रिया में अगर कुछ मासूम लोग घिर कर चल बसें तो चिन्ता न करना क्योंकि कुछ खोने के बाद ही कुछ प्राप्त होता है। ईमानदारी, सत्य और चरित्र खोते हो, तभी तो आधुनिकता के नये मीनार पैदा होते हैं।
हां, इन पर नये शिलालेख अवश्य लगवाये जा सकते हैं। ‘हमने गरीबी खत्म कर दी’, एक शिलालेख कहता है, क्योंकि देश के नब्बे करोड़ लोगों के लिये हमने रियायती गेहूं का इंतजाम कर दिया। अब कोई भूख से नहीं मरता। मरता है तो इस नई सदी में मिसफिट होकर मानसिक विज्ञिप्तता के कारण मरता है। देखते नहीं हो, हमने समाजवाद का नारा दिया तो गरीब और अमीर का भेद ही मिटा दिया। बस दस प्रतिशत धनाढ्य देश की सम्पदा पर काबिज और नब्बे प्रतिशत उनकी चाकरी बजाते हैं। ये पुराने तथ्य बने रहे। आखिर नित्य नयी उभरती अट्टालिकाओं के साथ इस पुरानेपन को भी तो बने रहना चाहिये।
जैसे आजकल हर पार्टी के चुनावी एजेंडे में हमने रेवड़ियां बांटने की प्रतियोगिता शुरू कर रखी है। नीलाम घरों की तरह एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर अनुकम्पा घोषणायें होती हैं, लेकिन याद रखना कि यह करते हुए हम अपनी पुरातन संस्कृति का अभिषेक ही तो कर रहे हैं, जिसमें लिखा है, दया धर्म का मूल है।