भयावह दौर से गुजरता युवा वर्ग

पिछले लम्बे समय से देश का युवा भयावह दौर से गुजर रहा है। कोरोना काल और सरकारी नौकरी पर विश्व बैंक के दबाव ने केन्द्र और राज्य सरकार की भारी भरकम नौकरियां खत्म कर दी है। रही सही कसर ठेका प्रणाली ने पूरी कर दी है। सरकारी क्षेत्रों में रिक्तियां होने के बावजूद नौकरी के विज्ञापन न आने के कारण लाखों युवा नौकरी की उम्र पार कर गए है। कुल मिलाकर देश का युवा वर्तमान समय में भयावह दौर से गुजर रहा है। उसकी मानसिक हालत दिन ब दिन बिगड़ रही है। महंगाई और बेरोज़गारी 2022 की सबसे बड़ी चिंताएं थीं जो विरासत में 2023 में भी एक ख़तरनाक, लम्बी और तकलीफ देह मंदी बनी रही। 2008 की आर्थिक मंदी की भविष्यवाणी करने वाले अर्थशास्त्री नूरिएल रुबिनी तो कह चुके हैं कि दुनिया 1970 के दौर जैसी विकट आर्थिक स्थिति की ओर जा रही है। आर्थिक, सामाजिक बदलावों के साथ मध्यवर्ग का स्वरूप बदल रहा है। यह अब 30-40 करोड़ लोगों का देशव्यापी वर्ग है, जो प्रभावशाली है, जिसकी आवाज़ मजबूत है। 2014 में जब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय फलक पर बड़े नेता के तौर पर उभरे तो इसके पीछे मध्यवर्ग का बड़ा हाथ था। यह वर्ग देश की बागडोर मजबूत, निर्णायक नेतृत्व के हाथ में देखना चाहता था। इसके पीछे मध्यवर्ग के अपने स्वार्थ थे। मध्यवर्ग की ख्वाहिश थी कि आर्थिक तरक्की उस दिशा में हो, जिसकी उपलब्धियों का लाभ उसे मिले। लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी रोज़ी-रोज़गार के घटते अवसर, सरकारी भर्तियों पर अघोषित रोक व बंद होते कल-कारखानों के कारण युवा पीढ़ी भटकाव की तरफ बढ़ रही है। कुछ लोग अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जरायम पेशा अपनाने को मज़बूर हैं। 
वहीं उच्च शिक्षा प्राप्त युवा वर्ग रोज़ी-रोज़गार के लिए नेताओं के पीछे-पीछे चलने को मज़बूर हैं। बावजूद इसके उन्हें रोज़गार नहीं मिल पा रहा है लेकिन नेताओं की तिजोरियां ज़रूर भर रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुद्रा योजना से युवाओं को स्वरोज़गार के लिए कई योजनाओं की घोषणा कर रखी है, लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों में जनहित के प्रति उपेक्षात्मक रवैया व बैंकों के असहयोग के चलते उनकी योजनाएं परवान नहीं चढ़ पा रही है। अभी हाल कई उद्योग ने हज़ारों कामगारों को काम न होने के कारण निकाल दिया। इस तरह की हज़ारों कम्पनियों ने रास्ता अख्तियार किया है, जिससे लाखों लोगों की नौकरियां चली गई और सरकारें इस पर चुप्पी साधे हुई है। अगर यही क्रम जारी रहा है तो आगे क्या होगा, यह कहना कठिन होगा। इसी मुद्दे पर क्षेत्र के प्रमुख लोगों से बात करने पर उनके अंदर से कुछ इस तरह के विचार सामने आए। भले सरकार विकसित भारत या खुशहाल भारत का ढिढोरा पीटे, किन्तु आज रोज़ी-रोज़गार के नाम पर देश की स्थिति भयावह है। जो नीतियां इस संदर्भ में मनमोहन सिंह की सरकार ने लागू की थी, उसी को मोदी सरकार आगे बढ़ा रही है और काफी तेज़ी से आगे बढ़ा रही है। इससे युवाओं को नौकरियां नहीं मिल पा रही है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी छोटी-छोटी नौकरियों के लिए युवा लाइन लगा रहे हैं। बावजूद उन्हें नौकरियां नहीं मिल पा रही है। ऐसे में समृद्ध भारत का नारा किस तरह साकार होगा, समझ में नहीं आ रहा है।
सबसे खास बॉत यह कि जब सरकार स्वयं इस बात को स्वीकार कर रही है कि देश की आधी से अधिक आबादी के भरण पोषण के लिए नि:शुल्क गेहूं चावल दे रही है तो पता चलता है कि देश की आधी से अधिक आबादी के हालत कितनी बद्दतर है? 
यूपीए-2 सरकार के मुकाबले नरेंद्र मोदी के रूप में मज़बूत और निर्णायक नेतृत्व सामने आया, जो देश की रक्षा और अर्थव्यवस्था से जुड़े बड़े फैसले लेने में सक्षम था। मध्यवर्ग को मिली इस कामयाबी से देश में खुशनुमा माहौल बना था। लेकिन आज यह उत्साह ठंडा पड़ता दिख रहा है। मध्यवर्ग में उदासी है। मोदी जैसे सशक्त नेतृत्व से उसकी जो अपेक्षाएं थीं, वे पूरी नहीं हो पाईं। सबसे ज्यादा परेशानी नौकरियों और अर्थव्यवस्था को लेकर है। ऐसा नहीं कि पिछले तीन-चार साल में आर्थिक तरक्की कतई नहीं हुई, मगर जैसी उम्मीद थी, वैसे नतीजे नहीं आए। हालांकि, इस दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ, कच्चे तेल के दाम भी काबू में रहे। मगर भारत में यह रोज़गारहीन विकास का दौर रहा। नई नौकरियों के पैदा होने की रफ्तार बेहद सुस्त पड़ गई। कुल मिलाकर मोदी सरकार के वायदों और उनके पूरा होने के बीच एक फासला है! रही-सही कसर नोटबंदी और जीएसटी ने पूरी कर दी। नोटबंदी के दौरान जो मध्यवर्ग मोदी सरकार का पक्का समर्थक बनकर लाइनों में खड़ा रहा, जीएसटी ने उसकी भी सोच बदल दी।  जिन-जिन वजहों से मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं के लिए नरेंद्र मोदी में भरोसा किया था, उससे मोहभंग हुआ है। वैसे, माना जाता है कि मध्यवर्ग थोड़ा स्वार्थी और खुद में सिमटा वर्ग है। वह समाज की व्यापक पीड़ा से जुड़ता नहीं है। लेकिन मीडिया के असर और कई दूसरी वजहों से भी यह स्थिति बदल रही है। अब मध्यवर्ग देशव्यापी है। शहर की तरह गांवों में भी एक मध्यवर्ग है। किसानों के बीच भी एक मध्यवर्ग बन गया है जो कृषि की दुर्दशा और आरक्षण के झगड़ों से खुद को जोड़कर देखता है। मध्यवर्ग अब शहरी-ग्रामीण फिनॉमिना बन गया है। सबसे छोटा शहर, एक बड़ा गांव है। बहुत बड़ा गांव, एक छोटा शहर। शहर और गांव का विभाजन मिटता जा रहा है। इसलिए अब ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कृषि संकट से मध्यवर्ग का कोई लेना-देना नहीं है।