पंजाबी विश्वविद्यालय की अंतर्राष्ट्रीय विकास कान्फ्रैंस 

पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला अपनी स्थापना के आरंभ से आज तक पंजाबी भाषा, साहित्य तथा संस्कृति के विकास के लिए वचनबद्ध है। विश्वविद्यालय के पंजाबी भाषा विकास द्वारा 5-7 दिसम्बर, 2023 को आयोजित की गई तीन दिवसीय विकास कांफ्रैंस इसका 35वां संस्करण था। इसकी आधा दर्जन से अधिक बैठकों में विश्वविद्यालय के पंजाबी विभाग, पंजाबी साहित्य अध्ययन विभाग तथा भाषा विज्ञान एवं पंजाबी कोषकारी विभाग ने इसे सफल करने में एक-दूसरे के साथ मिल कर शिरकत की जिस में विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो. अरविंद तथा डीन भाषाएं राजिन्दर पाल सिंह बराड़ की सहमति एवं सहयोग प्रत्यक्ष था, विभाग के मुखी परमिन्दरजीत कौर की योजनाबंदी सहित। 
कांफ्रैंस का मुख्य उद्देश्य समकालीन समाज में पंजाबी के भविष्योन्मुख दृष्टिकोण के भिन्न-भिन्न पक्षों को लेकर सकारात्मक परिणाम निकालना था, जिसमें दूर रहते पंजाबी प्रेमियों ने ही नहीं सात समुद्र पार वालों ने भी भाग लिया। उद्घाटनी बैठक की अध्यक्षता करते हुए प्रोफैसर अरविंद ने स्पष्ट कहा कि भाषाई परिवर्तन एक प्राकृतिक घटनाक्रम है और हमें किसी भी भाषा से शब्द लेते हुए संकोच करने की ज़रूरत नहीं। इससे हमारा नाता ज्ञान-विज्ञान से जुड़ता है। इस बैठक की बड़ी उपलब्धि यह थी कि यहां मानवीय जीवन में भाषा, साहित्य, कला तथा संगीत के महत्व को अच्छी तरह उजागर किया गया है। कुल मिला कर कांफ्रैंस की सभी बैठकों में पंजाबी भाषा तथा भाषा विज्ञान के महत्व सहित प्रवासी सभ्याचार तथा मीडिया से अपेक्षित साझ के विषय को भी पर्याप्त स्थान दिया गया। इस धारणा पर भी पूरा पहरा दिया गया कि हमें अपनी भाषा के प्रति उदास होने से जागरूक रहने की ज़रूरत है ताकि दूरवर्ती देशों के निवासी बने पंजाबी अपनी भाषा पर गर्व कर सकें। इस बात का भी विशेष नोटिस लिया गया कि हम स्कूल स्तर पर मातृ-भाषा को इसका बनता सम्मान नहीं दे रहे। इसलिए सरकारों को चाहिए कि पंजाबी के प्रति कोई भी कदम उठाने से पहले पंजाबी के सकारात्मक पक्षीय विद्वानों से परामर्श लेना जरूरी बनाएं। कांफ्रैंस में विचार किए जाने वाले पेपर तथा कार्यक्रम इतने बहुपक्षीय तथा अधिक थे कि एक ही समय कुछ बैठकें सिंडीकेट रूम में करनी पड़ी और दूर-नज़दीक से पहुंचे विद्वानों की विद्वता का लाभ लिया गया। भाई वीर सिंह के जन्म दिन को मुख्य रखते हुए एक बैठक उनकी देन को भी समर्पित थी। वैसे भी दिन भर के गम्भीर विषयों की थकावट दूर करने के लिए सांस्कृतिक शामों का आयोजन किया गया जिनमें से एक शाम ईडीपस 2.0 का मंचन आकर्षण का केन्द्र रहा। 
याद रहे कि ‘प्रवास में पंजाबी भाषा का स्थान’ पर विश्वविद्यालय की 35वीं कांफ्रैंस में ही नहीं विचार-विमर्श किया गया। 
गुजरांवाला गुरु नानक खालसा कालेज, लुधियाना के प्रवासी साहित्य अध्ययन केन्द्र का 35वां अंक भी इन दिनों में ही जारी हुआ जिसकी कापियां दर्शकों के हाथों का शिंगार थीं। 
यह अंक बताता है कि कनाडा में रहते पंजाबी प्रेमियों ने सरी में पंजाब भवन नामक इमारत का निर्माण करके वहां  समय-समय पर पंजाबी कांफ्रैंसों का प्रबंध करते हैं। इस अंक में प्रकाशित पांचवीं विश्व कांफ्रैंस के विवरण तथा तस्वीरें पाठकों को यह भी याद करवाते हैं कि वर्तमान में ब्रिटिश कोलम्बिया की शिक्षा मंत्री रचना सिंह है जिसके पिता रघबीर सिंह प्रवाणित पंजाबी पत्रिका ‘सिरजना’ के संस्थापक एवं सम्पादक हैं तथा माता सुलेखा अपने समय के पंजाबी महारथी तेरा सिंह चन्न की बेटी। 
निश्चय ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पंजाबी कांफ्रैंसें देशवासियों के लिए ही नहीं देश से बाहर रहते पंजाबियों के लिए भी गर्व की बात है। 
जम्मू-कश्मीर तथा संविधान की धारा 370
1947 के देश विभाजन के समय से चली आ रही संविधान की धारा 370 का पौण सदी की लम्बी अवधि के बाद रद्द करना कई प्रकार के किन्तु-परन्तु लेकर आया है। विशेषकर इसे रद्द करने की प्रक्रिया विधानसभा की अनुपस्थिति में होना और वह भी जम्मू-कश्मीर के लेह-लद्दाख क्षेत्र को केन्द्र शासित घोषित किये जाने के बाद। इसे पूरी तरह लागू करने के लिए जस्टिस संजय कृष्ण कौल द्वारा सच्च एवं सुलह-सफाई आयोग की स्थापना का सुझाव देना भी यही सिद्ध करता है। यदि प्रधानमंत्री मोदी इस फैसले को ऐतिहासिक घोषित करते हैं तो पीडीपी की महबूबा मुफ्ती तथा जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला इसकी ऐतिहासिकता को दुर्भाग्यपूर्ण कहने से भी संकोच नहीं करते जिसे अंग्रेज़ी भाषा वाले हिस्टारिकल बलन्डर कहते हैं। यह बात तो माननी पड़ेगी कि ऐसे फैसले देश की ‘अनेकता में एकता’ वाली धारणा को नकारते हैं जिसने भारत की विलक्ष्णता पर 75 वर्ष मुहर लगाए रखी थी। गृह मंत्री अमित शाह ने देश के 75 वर्ष के इतिहास की जड़ें खंगाले बिना यह तो सहज ही कह दिया कि धारा 370 पंडित नेहरू के देन थी और यह नहीं बताया कि इसे अब तक की सरकारों ने रद्द क्यों नहीं किया।    
यह बात भी ध्यान मांगती है कि यह फैसला सुनाते समय जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों को दस माह आगे डालने की क्या ज़रूरत थी। कुछ फैसले ऐतिहासिक भूल है या भला, समय ने बताना है। अच्छे लोग अच्छे दिनों की उम्मीद लगा तक जीवित रहते हैं। 

—अंतिका—
-फैज़ अहमद फैज़-
दिल ना-उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है,
लम्बी है ़गम की शाम मगर शाम ही तो है।