मानवाधिकारों के रक्षक श्री गुरु तेग बहादुर जी

सिख विरासत के गौरवमय इतिहास का प्रत्येक पृष्ठ  अत्याचार, बेइन्साफी के विरुद्ध तथा मानवीय मूल्यों की रक्षा  के लिए गुरु साहिब तथा अन्य योद्धाओं द्वारा दिये गये बलिदानों के रक्त से रंगा हुआ है। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि सिख गुरु साहिबान ने समाज को ‘मानस की जात सभै एकै पहिचानबो’ का सन्देश दिया तथा कट्टरता से रहित पहुंच अपना कर मानवाधिकारों की रक्षा की। अन्य धर्मों में यदि कोई बलिदान दिया गया तो वह केवल अपने धर्म को बचाने के लिए ही था परन्तु सिख धर्म की यह विलक्षणता है कि इसमें लड़े गये सभी युद्ध अत्याचारी तथा क्रूर शासकों के विरुद्ध लड़े गये।
बलिदानों के इतिहास में नौवें पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर  साहिब जी का महान बलिदान बहुत नव्यतम एवं अहम कहा जा सकता है। मानवीय अधिकारों का हनन करने वाले अत्याचारी शासकों के घिनौने अत्याचारों को चुनौती देने के लिए श्री गुरु तेग बहादुर जी ने स्वयं अत्याचारी तथा निर्दयी कातिलों के दरबार में जाने का फैसला किया। यह कोई छोटी घटना नहीं थी। गुरु साहिब के बेमिसाल हौसले, हिम्मत तथा शांतिमय रह कर कट्टरपंथी शासकों के अत्याचार सहते हुये मानवीय अधिकारों के पहरेदार बन कर बलिदान  का जाम पी जाना नि:सन्देह इतिहास की अभूतपूर्व घटना है।
श्री गुरु तेग बहादुर जी का जन्म 1621 ई. में अमृतसर की धरती पर श्री गुरु हरिगोबिन्द साहिब तथा माता नानकी के गृह में हुआ। मीरी-पीरी के मालिक गुरु पिता जी की देख-रेख में श्री गुरु तेग बहादुर जी ने अन्य शिक्षाओं के साथ-साथ शस्त्र विद्या भी ग्रहण की। वह शांत-चित्त, साधु स्वभाव तथा नाम-सिमरन में लीन रहने वाली शख्सियत के मालिक थे। उन्होंने श्री गुरु हरिगोबिन्द साहिब जी द्वारा करतारपुर में लड़े गये युद्ध के दौरान भी बेमिसाल हौसले तथा बहादुरी से तलवार का प्रयोग करके गुरु पिता का मन मोह लिया। श्री गुरु हरिगोबिन्द साहिब ने अपने पुत्र की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘तूं त्याग मल्ल नहीं, तूं तां तेग बहादुर हैं।’
उस समय हिन्दुस्तान पर कट्टरपंथी शासक औरंगज़ेब का शासन था। अपने शासन के प्रति उसकी क्रूर मानसिकता का पता इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उसने अपनी गद्दी कायम रखने के लिए अपने पिता शाहजहां तथा तीन भाइयों की बेरहमी से हत्या कर दी। कश्मीरी पंडितों को जबरन इस्लाम कबूल करवाने हेतु, उन पर बेइंतहा अत्याचार किये गये। 1671 ई. में औरंगज़ेब ने इस ज़िम्मेदारी को पूर्ण करने हेतु इफ्तियार खान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त करके, कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार करके जबरन धर्म परिवर्तन की खुली छूट दे दी। ऐसी स्थिति से तंग आकर 1675 ई. में पंडित कृपा राम के नेतृत्व में कश्मीरी पंडितों का एक दल अपने दुखों की फरियाद लेकर श्री आनंदपुर साहिब में श्री गुरु तेग बहादुर जी के दरबार में उपस्थित हुआ। उन्होंने गुरु जी को कश्मीरी पंडितों पर औरंगज़ेब द्वारा जबरन मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए किये जा रहे अत्याचारों की व्यथा सुनाई। जब नौ वर्ष के बाल गोबिन्द राय ने यह बात सुनी तो, उन्होंने इस मामले की गम्भीरता को समझते हुए गुरु पिता श्री तेग बहादुर जी से पूछा कि अत्याचारों के सताये इन दुखियों की क्या मदद की जा सकती है। गुरु जी ने कहा कि इनकी सहायता के लिए किसी बड़े महापुरुष की कुर्बानी की आवश्यकता है। यह सुन कर बाल गोबिन्द राय ने कहा, ‘पिता जी, आप से बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है?’ गुरु तेग बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितों के दल को उसी समय कह दिया कि औरंगज़ेब को मेरी ओर से संदेश दे दो कि यदि वह मुझे (श्री गुरु तेग बहादुर जी) इस्लाम धारण करवा लेता है तो समूचा हिन्दू समाज मुसलमान बन जाएगा। 
गुरु गोबिन्द सिंह जी को गुरगद्दी सौंपने के बाद गुरु साहिब अपने तीन साथियों भाई मती दास जी, भाई सती दास जी और भाई दयाला जी तथा कुछ अन्य साथियों के साथ कीरतपुर पहुंच गये, जहां उन्हें गिरफ्तार करके सरहिंद के सूबेदार के पास भेज दिया गया। औरंगज़ेब के आदेश पर गुरु जी तथा उनके तीनों साथियों को लोहे के पिंजरे में कैद करके दिल्ली लाया गया। धर्म बदलने के लिए गुरु जी को कई लालच दिये गये। जब शासकों के अहलकार गुरु जी के हौसले एवं दृढ़ इरादे को तोड़ने में सफल नहीं हुए तो उन्हें अनेक यातनाएं देकर उनका हौसला पस्त करने के यत्न किये। इसके साथ ही काज़ी ने उनके साथ आए सिखों को निर्ममतापूर्वक भयावह यातनाएं देकर शहीद करने का ़फतवा जारी कर दिया। 
सबसे पहले शूरवीर योद्धा भाई मती दास को आरे से चीरा गया। सत्ता के अहंकार में अंधे हुए शासकों ने भाई सती दास को रूई में लपेट कर आग के हवाले करने का घृणित कृत्य करके गुरु जी के इरादे को तोड़ने का यत्न किया। इसके साथ ही भाई दयाला जी को पानी की उबलती देग में बिठा कर शहीद कर दिया गया। इतने हृदय-विदारक कहर के बावजूद श्री गुरु तेग बहादुर जी दृढ़ एवं शांत-चित्त बने रहे। अंत में काज़ी ने गुरु जी का शीश भी धड़ से अलग करने का फरमान जारी कर दिया। अथाह अत्याचार करने के बाद जल्लाद जलालुद्दीन ने तलवार के वार से गुरु जी का शीश भी धड़ से अलग कर दिया। श्री गुरु तेग बहादुर जी के प्रति अपने हृदय से प्यार व्यक्त करते हुए भाई जैता जी बहुत  हिम्मत एवं होशियारी से गुरु जी के शीश को लेकर आनंदपुर साहिब आ गये। गुरु साहिब के धड़ का संस्कार भाई लक्खी शाह वणजारा ने अपने घर को आग के हवाले करके कर दिया। 
इस घटना से हर तरफ हाहाकर मच गया। म़ुगल बादशाह के इस अमानवीय एवं वहशियाना कृत्य की प्रत्येक संवेदनशील मनुष्य ने निंदा की। अपना बलिदान देकर गुरु साहिब ने संसार को यह दर्शा दिया कि धार्मिक कट्टरता और सत्ता का अहंकार किसी भी तरह जायज़ नहीं कहा जा सकता। जिस जनेऊ को पहनने से गुरु नानक देव जी ने कभी इन्कार कर दिया था, उसी जनेऊ की रक्षा करते हुए श्री गुरु तेग बहादुर जी ने अपना बलिदान देकर कट्टरवादी हुकूमत को भयभीत कर दिया। गुरु जी ने तो अपनी वाणी में ही कहा था—‘भै काहु कऊ देति नहि, नहि भै मानत आन।। कहु नानक सुनि रे मना ज्ञानी ताहि बखानि।।’ (अंग : 1426) श्री गुरु तेग बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकारों के रक्षा के लिए, उनके साथ जो प्रण किया था, स्वयं को कुर्बान करके उसे निभाया और इतिहास सृजित कर दिया। इस शहीदी वृत्तांत के बारे में गुरु गोबिन्द सिंह जी ने बचित्तर नाटक में ऐसे वर्णन किया है—
तिलक जंझू राखा प्रभ ता का।।
कीनो बडो कलू महि साका।।
साधन हेति इती जिनि करी।।
सीसु दीआ पर सी न उचरी।।
धर्म हेत साका जिनि कीआ।
सीसु दीआ पर सिररु न दीआ।।
किसी अन्य धर्म की रक्षा हेतु श्री गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान मानवता को बचाने की बेमिसाल तथा विलक्षण गाथा है। अक्सर गुरु जी को ‘हिन्द की चादर’ कह कर सम्मानित किया जाता है परन्तु श्री गुरु तेग बहादुर जी ने अपनी कुर्बानी दे कर समाज को बहुत सार्थक सन्देश दिया कि धर्म के प्रति जुनून तथा कट्टरता मानवता के लिए श्राप है। श्री गुरु तेग बहादुर जी सच्चे अर्थों में मानवता की चादर थे।


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