हरित क्रांति एवं अनुसंधान ने गेहूं उत्पादन को दिया बड़ा प्रोत्साहन

गेहूं और धान के उत्पादन के पक्ष से पंजाब अनाज उत्पादन में अग्रणी राज्य माना जाता है। तीन वर्ष पहले सन् 2018-19 के बीच राज्य में गेहूं का उत्पादन 182.62 लाख टन पर पहुंच गया, भाव फिर दो वर्ष मौसम खराब रहने के कारण और बेमौसमी बारिश होने और तेज़ हवाएं चलने के कारण यह कम होकर नीचे आ गया। पंजाब जो गेहूं उत्पादन में सब राज्यों में आगे था, तीसरे स्थान पर आ गया। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश इससे आगे निकल गये और हरियाणा का उत्पादन भी इसको छूने के किनारे आ गया है। सबज़ इन्कलाब के बाद काफी तरक्की करके पंजाब ने भारत को अनाज के पक्ष से आत्मनिर्भर ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों को गेहूं और चावल निर्यात करने के योग्य बना दिया था। यह प्रभावशाली प्राप्ति कृषि अनुसंधान में किए गये प्रयत्नों और किसानों के प्रयत्नों और उनके प्रगतिवादी दृष्टिकोण के कारण हुआ था। राज्य के किसानों ने अनुसंधान की सिफारिशों को जल्द समझकर अपना लिया और नई तकनीकों का उपयोग किया। क्या मशीनरी, क्या कीमियाई खाद और क्या नदीननाशक और कीटनाश्क ज़रूरतों अनुसार खुल कर प्रयोग कर उत्पादकता बढ़ाई और कृषि विशेषज्ञों और अनुसंधानों द्वारा बताई गई नीतियों को अपना कर नई ज्यादा झाड़ देने वाली किस्में काश्त कीं।
गेहूं संबंधी विधिपूर्वक अनुसंधान आई.सी.ए.आर.-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई.ए.आर.आई.) की 1905 में पूसा (बिहार) में स्थापना से शुरू हुआ। फिर संस्थान के दिल्ली आने पर डा. बी.पी. पाल ने पहली बार गेहूं की बीमारियां रोकने के लिए अनुसंधान प्रयत्न किए। इसके बाद सन् 1954 में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक स्व. डा. एम.एस. स्वामीनाथन ने गेहूं की ऐसी किस्में विकसित करने पर ज़ोर दिया, जो ज्यादा खाद डालने से गिरे न और झाड़ ज्यादा दे। डा. स्वामीनाथन ने आई.ए.आर.आई. के निदेशक रहते हुए और वहीं जैनेटिकस डिवीज़न के मुखी होते हुए दोनों पदों पर रह कर गेहूं संबंधी प्रशंसायोग्य अनुसंधान प्रयत्न किए। वास्तविक प्राप्ति 60वें के बाद होनी शुरू हुई, जब डा. नारमन ई. बरलोग के सहयोग के साथ डा. स्वामीनाथन ने इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीच्यूट में मध्यम श्रेणी किस्में लरमा रोज़ो, सनोरा 64 और सनोरा 63 मैक्सिको से लाकर उनके यहां प्रयोग किये। ये किस्में अंत में गेहूं की उत्पादकता बढ़ाने के लिए कारगर साबित हुई।
स्व. डा. अमरीक सिंह चीमा पूर्व एग्रीकल्चरल कमिश्नर भारत सरकार और उप-कुलपति पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी द्वारा किए गये प्रयत्नों के साथ पंजाब में इन किस्मों की प्रयोगों का प्रसार हुआ और किसानों ने बढ़-चढ़ कर लघु किस्मों को अपनाया। इन किस्मों के आधार पर ‘कल्याण सोना’ और ‘सोनालिका’ जैसी किस्में विकसित हुईं। जिसके लिए सन् 1962 में पी.ए.यू. स्थापित होने के बाद पी.ए.यू. में डा. अटवाल द्वारा किए गये प्रयत्न कारगर साबित हुए। स्व. स. प्रताप सिंह कैरों पूर्व मुख्यमंत्री पंजाब के कृषि उत्पादन दोगुणा करने संबंधी उठाए गये कदमों के रूप में सबज़ इन्कलाब की भूमिका सुदृढ़ हो गई। उस समय की प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा भी इस क्रांति की महत्ता और निशानी के तौर पर डाक टिकट जारी करने के साथ सबज़ इंकलाब के आगाज़ को उत्साह मिला। इसके बाद फिर आई.ए.आर.आई. की हीरा, मोती, जनक, अर्जुन आदि किस्में अस्तित्व में आईं। इस तरह गेहूं का उत्पादन 1967-68 में 110 लाख टन हो गया। आई.ए.आर.आई. (जो गेहूं के अनुसंधान संबंधी देश की प्रमुख संस्था रही है) में तैनात गेहूं के प्रसिद्ध ब्रीडर स्व. वी.एम. माथुर का प्रशंसनीय योगदान बुलाया नहीं जा सकता। पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी के उस समय के ब्रीडर डा. खेम सिंह गिल (जो बाद में उप कुलपति बने) की अधिक झाड़ देने वाली डब्ल्यू.एल.-711 किस्म जिसने पंजाब में सभी दूसरी किस्मों से अधिक झाड़ दिया, किसानों द्वारा बड़े स्तर पर अपनाई गईं, पर जल्दी ही करनाल बंट जैसी बीमारी का शिकार होने के तौर पर यह किस्म काश्त से बाहर हो गई। करनाल बंट ऐसी नामुराद बीमारी है, जो दाने को खाने के योग्य नहीं रहने देती। इस समय पंजाब में अन्य कोई सफल किस्म न होने के कारण गेहूं की काश्त में स्याह काले बादल छाए हुए थे, जिन पर आई.ए.आर.आई.  के प्रसिद्ध ब्रीडर स्व. वी.एस. माथुर की एच.डी.-2329 किस्म ने काबू पाया कि यह डेढ़ दशक पंजाब के खेतों की रानी बनी रही। इस किस्म का इतना फैलाव हुआ कि पंजाब की आर्थिकता और किसानों को हजारों-करोड़ों का लाभ पहुंचा। 
बीज़ विक्रेताओं की संख्या भी हर दिन बढ़ रही है। कई प्रगतिवादी किसान भी बीज पैदा करने और बेचने में व्यस्त हैं। हर बीज विक्रेता वही किस्म के बीज की सिफारिश करता है, जो किस्म उसको अधिक मुनाफा देती है। क्योंकि पौध सुरक्षा संबंधी कीटनाशकोंऔर नदीननाशकों का चुनाव करने के लिए आम किसान इन विक्रेताओं का राय लेते हैं, इसलिए गेहूं की किस्म का चयन करने संबंधी भी वह इन विक्रेताओं के पास सलाह लेने के लिए जाते हैं, हालांकि उनको इस संबंधी निर्भर कृषि विशेषज्ञों पर ही करना चाहिए।