लोकतांत्रिक भावना की कद्र ज़रूरी

नई दिल्ली में भारतीय संसद के नये भवन में 4 दिसम्बर को आरम्भ हुआ शीतकालीन अधिवेशन शुरू से ही शोर-शराबे की भेंट चढ़ता दिखाई दिया है। देश के संसदीय इतिहास में समय-समय पर संसदीय अधिवेशनों के दौरान कई कारणों के दृष्टिगत सदस्यों को कम या अधिक समय के लिए लोकसभा या राज्यसभा की कार्रवाइयों से निलम्बित किया जाता रहा है। अक्सर ऐसा होता रहा है, परन्तु संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि एक ही अधिवेशन में दोनों सदनों के 78 सदस्यों को एक ही दिन अधिवेशन से निलम्बित करने की घोषणा कर दी गई। अब तक कुल निलम्बित किये गये विपक्ष के सांसदों की संख्या 141 हो चुकी है। 14 विपक्षी सांसदों को पिछले वीरवार निलम्बित किया गया था। 78 सांसदों को सोमवार तथा 49 को मंगलवार निलम्बित किया गया है। नि:संदेह घटित रहा यह घटनाक्रम बेहद आश्चर्यजनक  है। केन्द्र में सत्तारूढ़ (एन.डी.ए.) गठबंधन की सरकार में  अन्य पार्टियों के सदस्य कम हैं, परन्तु भाजपा के सदस्यों की संख्या कहीं अधिक है। भारी बहुमत होने के कारण तराज़ू का एक पलड़ा काफी झुका प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में भारतीय जनता पार्टी जो मुख्य रूप से देश में सत्तारूढ़ है, की ज़िम्मेदारी कहीं अधिक जाती है। यह पार्टी लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा सत्ता में आई है तथा श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में यह अपनी दूसरी पारी खत्म करने की ओर बढ़ रही है।
वर्ष 1950 में लिखित संविधान बनने के बाद देश में समय-समय पर लगातार चुनाव होते रहे हैं। इसके साथ-साथ राजनीतिक संतुलन भी बदलते रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र में संसद एक ऐसी संस्था है, जिसमें देश भर से प्रतिनिधि चुन कर आते हैं। इसलिए सही लोकतांत्रिक भावना यही बनती है कि इन सभी प्रतिनिधियों को यहां अपनी बात कहने का अधिकार भी हो तथा उनके महत्त्व को भी स्वीकार किया जाये, परन्तु विगत अवधि में ऐसी परम्परा बनती दिखाई दे रही है, जिसमें अक्सर विपक्षी दलों के सांसदों की बात दब कर रह जाती है। लोकतंत्र में देश की समूची भावनाओं का प्रगटावा होना चाहिए। यदि किसी पार्टी को बड़ा समर्थन मिलता भी है तथा संसद में उसकी बहुसंख्या भी हो जाती है तो भी उससे अधिक ज़िम्मेदारी की उम्मीद करना बनता है। बहुमत के दम पर अन्य प्रतिनिधियों की आवाज़ दबाने का यत्न लोकतांत्रिक भावना को कमज़ोर करता है। इस अधिवेशन में ऐसा कुछ ही हुआ दिखाई देता है। 13 दिसम्बर दिन बुधवार को लोकसभा में कुछ घटित हुआ, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था। वर्ष 2001 में पाकिस्तानी आतंकवादियों ने संसद पर हमला किया था, जिसमें भारी मानवीय नुकसान भी हुआ था, परन्तु इस बार की कार्रवाई को निराश तथा नाराज़ युवाओं द्वारा की गई घुसपैठ ही कहा जा सकता है, परन्तु बड़ा प्रश्न संसद के सुरक्षा प्रबन्धों का है, जहां देश भर से निर्वाचित हुये प्रतिनिधि अपनी वैधानिक ज़िम्मेदारियां निभा रहे होते हैं।
आज से 22 वर्ष पूर्व संसद पर हुये हमले के बाद नई संसद में हुई ऐसी घुसपैठ सुरक्षा प्रबन्धों की कमी की पोल ज़रूर खोलती है। मामला बेहद गम्भीर है। विश्व भर की नज़रें इस घटना केन्द्रित रही हैं। यदि ऐसे में विपक्ष दलों के चुने हुये सांसद देश के गृह मंत्री से सदन में आकर इस संबंध में बयान देने की मांग करते हैं तो उसे कदाचित गलत नहीं कहा जा सकता। यदि इस मामले पर इतना बड़ा बवाल खड़ा हो जाता है तथा माननीय सांसदों को चलते अधिवेशन से निकालने की घोषणा की जाती है तो यह बेहद आपत्तिजनक है। वहीं यह सत्तारूढ़ पार्टी की हठधर्मी मानसिकता की भी अभिव्यक्ति को दर्शाता है। हम हमेशा देश को चलाने के लिए आम सहमति बनाने वाली पहुंच के समर्थक रहे हैं। इसलिए ताकि लोकतांत्रिक शासन चलाने वालों में तानाशाही रुचियां प्रवेश न कर जाएं। आज भारतीय जनता पार्टी ऐसी भावनाओं से थिरकते दिखाई दे रही है, जो देश के लोकतंत्र के लिए अच्छा सन्देश नहीं है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द