तीन आपराधिक विधेयकों की बात

लोकसभा ने तीन विधेयकों भारतीय न्याय (द्वितीय) संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा (द्वितीय संहिता) तथा भारतीय साक्ष्य (द्वितीय) विधेयक जो कि आपराधिक न्याय प्रबन्ध से संबंधित है, को स्वीकृति दे दी है। अब ये विधेयक राज्यसभा में जायेंगे तथा वहां से पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति  से कानून का रूप धारण कर लेंगे। कानून का रूप धारण करने के उपरांत ये ब्रिटिश समय के कानूनों ‘इंडियन पीनल कोड’ (आई.पी.सी.), क्रिमिनल प्रोसीज़र कोड (सी.आर.पी.सी.) के एवीडैंस एक्ट का स्थान ले लेंगे।
केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में इन विधेयकों की खूब व्याख्या तथा प्रशंसा की है। उन्होंने दावा किया है इन विधेयकों के कानूनी रूप धारण करने के बाद न्यायिक प्रक्रिया में तेज़ी आएगी। गृह मंत्री ने पारित किये गये इन विधेयकों के संबंध में यह भी दावा किया है कि इनका उद्देश्य सज़ा देना नहीं अपितु न्याय करना है। उन्होंने आगे कहा कि अब शिकायत मिलने के तीन दिन भीतर एफ.आई.आर. दर्ज होगी तथा प्राथमिक जांच 14 दिनों के भीतर पूर्ण की जाएगी। न्यायाधीश 45 दिनों से अधिक फैसला आरक्षित नहीं रख सकेंगे। अपराधियों को सज़ा के खिलाफ याचिका दायर करने के लिए सात दिन का समय दिया जायेगा तथा अधिक से अधिक 120 दिनों के भीतर मुकद्दमा चलाने के लिए केस अदालत में पहुंच जाएगा। इन विधेयकों के और महत्त्व संबंधी बताते हुये अमित शाह ने यह भी बताया है कि अब अपराधियों के विरुद्ध उनकी अनुपस्थिति में भी मुकद्दमे की कार्रवाई चलाई जा सकेगी। गम्भीर अपराध को अंजाम देकर देश से भागने वालों को छोड़ा नहीं जायेगा। अपराधी वापिस आयें या न आयें उन्हें सज़ा सुनाई जाएगी तथा उनकी सम्पत्तियों तक को ज़ब्त कर लिया जाएगा। उन्होंने पूर्व सरकारों, खास तौर पर कांग्रेस की रही सरकारों पर आरोप लगाया कि उन्होंने लम्बी अवधि तक ब्रिटिश काल से चले आ रहे कानूनों में संशोधन नहीं किया।
नि:संदेह देश की निर्वाचित सरकार को ब्रिटिश काल के समय पूरा कर चुके पुराने कानूनों को बदलने का हक है तथा उन्हें बदला भी जाना चाहिए, परन्तु ऐसा करते हुये सरकार का ध्यान जहां न्याय की प्रक्रिया को तेज़ करने का होना चाहिए, वहीं यह सुनिश्चित बनाना भी होना चाहिए कि कानूनों का दुरुपयोग होने से जन-साधारण की शहरी आज़ादी पर आंच न आये, क्योंकि ब्रिटिश समय के दौरान ज्यादातर बने कानूनों का मुख्य उद्देश्य उस समय आज़ादी के लिए चल रहे आन्दोलन को कुचलने का था तथा इस उद्देश्य के लिए ही उनके द्वारा ज्यादातर कानून बनाये गये थे। उनमें ही शामिल था आई.पी.सी. की धारा 124ए, जिसके तहत राज-द्रोह को पारिभाषित किया गया था। यदि कोई व्यक्ति बोल कर, लिख कर या अन्य ढंग से सरकार का विरोध करता था तो इस धारा के अधीन उसे उम्र कैद तक हो सकती थी। उस समय ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध इस धारा का उपयोग किया जाता रहा था। आज़ादी के बाद यह बात बार-बार उठती रही थी कि इस कानून को बदला जाये, परन्तु किसी न किसी रूप में फिर भी यह कानून बरकरार रहा तथा सरकारें अपने विरोधियों के खिलाफ इसका दुरुपयोग भी करती रहीं, चाहे कि उच्च न्यायालय ने इसके विरुद्ध कई बार फैसले भी दिये थे। नये विधेयकों में सरकार का दावा है कि इस व्यवस्था को बदल दिया गया है, परन्तु यह भी वर्णनीय है कि लोकसभा में उपरोक्त आपराधिक विधेयक लगभग विपक्ष की अनुपस्थिति में पारित किये गये हैं क्योंकि, कांग्रेस, डी.एम.के., टी.एम.सी. तथा अन्य विपक्षी दलों के लगभग 97 लोकसभा सांसदों को सदन की कार्रवाई में रुकावट डालने के आरोप के तहत पहले ही निलम्बित कर दिया गया था। मुख्य विपक्षी दलों की अनुपस्थिति में बीजू जनता दल के एक सांसद ने इन विधेयकों की कुछ धाराओं पर आपत्ति व्यक्त करते हुये कहा कि इसमें भी ब्रिटिश समय के आपराधिक कानूनों की भांति ही सुरक्षा एजेंसियों को अधिक अधिकार दिये गये हैं, जिससे वे विपक्षी दलों के आन्दोलनों को दबाने के लिए इन धाराओं का दुरुपयोग कर सकती हैं। राज-द्रोह के कानून को भी कुछ ही अन्तर के साथ कायम रखा गया है। इन विधेयकों के संबंध में लोकसभा में सम्बोधित करते हुये अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर बादल ने कहा कि नये विधेयकों में तरस के आधार पर रहम की अपील करने का अधिकार सिर्फ आरोपी के पारिवारिक सदस्यों को ही दिया गया है। उन्होंने कहा कि यदि ये विधेयक इस तरह कानून का रूप धारण करते हैं तो इनसे बलवंत सिंह राजोआना सहित अनेक अन्य नज़रबंदों की रिहाई पर प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने यह मुद्दा भी उठाया कि विपक्ष के बहुसंख्य सदस्यों की अनुपस्थिति में बिना गम्भीर चर्चा के ये विधेयक पारित किया जाना उचित नहीं हैं।
इस संबंध में हमारा भी यह विचार है कि आपराधिक कानूनों से संबंधित तीन वैकल्पिक विधेयकों पर विपक्षी सांसदों की उपस्थिति में और विस्तारपूर्वक तथा गम्भीर चर्चा की ज़रूरत थी। जब विपक्षी दलों के सांसदों की अनुपस्थिति में इस तरह के अहम कानून बनते हैं तो उनमें ज्यादातर त्रुटियां भी रह जाती हैं जिनकी कीमत बाद में देश के नागरिकों को चुकानी पड़ती है। कानूनों में कुछ कमियों का लाभ उठाते हुये ज्यादातर सुरक्षा एजेंसियां राजनीतिक दबाव में विपक्षी दलों के नेताओं को भी गम्भीर मामलों में उलझा देती हैं तथा लम्बी अवधि के लिए नज़रबंद भी करवा देती हैं। देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में तो ऐसे डर तथा संशय और भी अधिक प्रकट किये जा रहे हैं। देश भर में पिछले एक दशक के दौरान सैकड़ों लोगों पर एन.एस.ए. तथा यू.ए.पी.ए. के तहत मामले दर्ज किये गये थे, परन्तु बाद में ज्यादातर आरोपियों के विरुद्ध अदालत में सुरक्षा एजेंसियां आरोप साबित नहीं कर सकीं तथा इस कारण वे आरोपी तो बरी हो गये परन्तु उनके अनेक वर्ष जेलों में ही व्यतीत हो जाने के कारण उनकी ज़िन्दगियां बर्बाद हो गईं। इसलिए नि:संदेह सरकारों को देश की सुरक्षा के लिए तथा देश में गम्भीर अपराधों पर नियन्त्रण करने के लिए प्रभावी कानूनों की ज़रूरत होती है परन्तु यह देखना भी सरकारों का ही काम होता है कि निर्दोष लोगों के विरुद्ध कड़े कानूनों का दुरुपयोग न हो तथा इस तरह उनकी शहरी स्वतंत्रता का उल्लंघन न हो।