गहन मानवीय चेतना के चितेरे मिज़र्ा ़गालिब 

जयंती पर विशेष

मिज़र्ा गालिब उर्दू-फारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। मिज़र्ा गालिब का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक एवं बहुआयामी था। मिज़र्ा गालिब के साहित्य में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता भी थी। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने का शौक था।  
हर जुबां का वो आसरा...उसके दिल में धड़कता था आगरा... गालिब को पूरी दुनिया जानती है, उनकी शायरी का सम्मान करती है। उनकी शायरी के लोग आज भी दीवाने हैं। कोई भी महफिल गालिब की शायरी के बिना अधूरी रहती है। उनका जन्म आगरा में 27 दिसम्बर, 1797 को एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उनका पूरा बचपन ताजनगरी में ही बीता। 
मिज़र्ा ़गालिब का पूरा नाम मिर्जा असद-उल्लाह बेग खां उर्फ ‘़गालिब’ था। उन्होंने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था। ़गालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाली पेंशन से होता था। मिज़र्ा ़गालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मिज़र्ा कोबान बेग खान मध्य एशिया के समरकन्द से सन् 1750 के आसपास अहमद शाह के शासन काल में भारत आये। उन्हाेंने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्तत: आगरा में बस गये। मिज़र्ा ़गालिब के पिता मिज़र्ा अब्दुल्ला बेग ने इज्जत-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहने लगे। उन्होंने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निजाम के यहां काम किया। 1802 में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय गालिब मात्र 5 वर्ष के थे। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही वह दिल्ली चले गए। वहां जाने के बाद भी ताउम्र मिज़र्ा ़गालिब के दिल व दिमाग में आगरा छाया रहा। आगरा में ़गालिब के जन्मस्थान को ‘इन्द्रभान कन्या अन्तर महाविद्यालय’ में बदल दिया गया है, जिस कमरे में ़गालिब का जन्म हुआ था उसे आज भी सुरक्षित रखा गया है। दिल्ली के चांदनी चौक के बल्लीमारान इलाके के कासिम जान गली में स्थित गालिब के घर को ‘गालिब मेमोरियल’ में तब्दील कर दिया गया है। 
उन्होंने अपनी शायरी का बड़ा हिस्सा असद के नाम से लिखा। गालिब हिंदुस्तान में उर्दू अदब के दुनिया के सबसे रोचक किरदार थे। वह फारसी कविता को भारतीय भाषा में लोकप्रिय करने में माहिर थे। उन्हें पत्र लिखने का बहुत शौक था। इसीलिए उन्हें पत्र-पुरोधा भी कहा जाता था। आज भी उनके पत्रों को उर्दू साहित्य में एक अहम विरासत माना जाता है। मिर्जा गालिब ने 11 वर्ष की छोटी उम्र में ही अपनी पहली कविता लिखी थी। उन्होंने अरबी, फारसी, दर्शन और तर्कशक्ति का भी अध्ययन किया था। 
बहादुर शाह जफर द्वितीय ने 1850 ई. में गालिब को ‘दबीर-उल-मुल्क’ और ‘नज्म-उद-दौला’ की उपाधि प्रदान की थी। इसके अलावा बहादुर शाह जफर द्वितीय ने गालिब को ‘मिर्जा नोशा’ की उपाधि प्रदान की थी, जिसके बाद गालिब के नाम के साथ ‘मिर्जा’ शब्द जुड़ गया। तबियत से खुद एक शायर बहादुर शाह जफर द्वितीय ने कविता सीखने के उद्देश्य से 1854 में गालिब को अपना शिक्षक नियुक्त किया था। बाद में बहादुर शाह जफर ने गालिब को अपने बड़े बेटे ‘शहजादा फखरुदीन मिर्जा’ का भी शिक्षक नियुक्त किया। 
मिज़र्ा के विषय में पहली बात तो यह है कि वह अत्यन्त शिष्ट एवं मित्रप्रेमी थे। जो कोई उनसे मिलने आता, उससे खुले दिल से मिलते थे। इसीलिए जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। मित्रों के प्रति अत्यन्त वफादार थे। उनकी खुशी में खुशी, उनके दु:ख में दु:खी। मित्रों को देखकर बाग-बाग हो जाते थे। उनके मित्रों का बहुत बड़ा दायरा था। उसमें हर जाति, धर्म और प्रान्त के लोग थे। वैसे वह शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। गालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकखाना ज़रूर हो और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें। खाने-खिलाने के शौकीन, स्वादिष्ट व्यंजनों के प्रेमी थे। एक मुसलमान होने के बावजूद गालिब ने कभी रोजा नहीं रखा। एक जानकारी के मुताबिक ये किस्सा गदर के दिनों का है। 
मिर्जा गालिब का एक बहुत मशहूर शेअर है : ‘यह इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूबके जाना है।’ जिंदगी जीने के तमाम तरीके भले ही बदल गए हों, लेकिन प्यार मोहब्बत को देखने का हमारा पारिवारिक-सामाजिक-धार्मिक नजरिया आज भी सदियों पुराना है। मिर्जा गालिब ने बेहतरीन शेअर लिखे हैं— इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं। दरअसल मिर्जा गालिब अपनी हाजिर जवाबी के लिए भी बड़े मशहूर थे। गालिब की जिंदगी संघर्षों से भरी रही। उन्होंने अपनी जिंदगी में अपने कई अजीजों को खोया। अपनी जिंदगी गरीबी में गुजारी। इसके बावजूद गालिब के शेअरों ने लोगों के दिल को छुआ। गालिब 15 फरवरी 1869 को इस दुनिया से अलविदा कह गए।