पहचान का संकट

एक होता है धर्म निभाना और दूसरा होता है धार्मिक हो जाना। एक होता है अध्यात्म, और दूसरा होता है आध्यात्मिक हो जाना। क्या अर्थ है इसका? हमने छक्कन से पूछा। छक्कन ने घाट-घाट का पानी पिया है। हमारी समझ के बारे में उनकी राय में कभी प्रशंसा भाव नहीं रहा। हमारे सवाल से उनकी हमारे बारे में राय और भी पक्की हो गयी ‘नासमझ’। वह झल्ला कर बोले, ‘मियां तुम हो कमले रमले आदमी, जीवन को तनिक भी न समझने वाले। पता नहीं इतनी ज़िन्दगी कैसे काट गये?’
फिर समझाने के अंदाज़ में बोले, ‘दुनिया बदल गई है प्यारे। आज जो धार्मिक कहलाता है, उसके करीब धर्म नहीं फटकता। अध्यात्म रस से सराबोर होने वाले, आध्यात्मिक नहीं, भाषणबाज़ हो रहे हैं। हां आध्यात्मिक वही बना जो अध्यात्म के बारे में धारा प्रवाह प्रवचन कर सके, और फिर इसके बल पर अपने लिये एक आलीशान प्रवचन गृह बनवा ले। जो वैसे हो उसका निवास, पर उसे वह कुटिया कहे। हां इसकी बाहरी बैठक में वह भक्तजनों को प्रवचन करते हुए उन्हें अपनी चरण पूजा का मौका दे। हो सकता है, उसके भक्तों को यह मौका मिलता रहे, तो वे एक की जगह हर शहर में उसके ऐसे ही प्रवचन गृह बनवा देंगे। वह लोगों को तनाव मुक्त करके उन्हें मुक्ति मार्ग दिखला देगा। उसका धर्म यूं चतुर्दिक तरक्की करता है। 
जब से देश साइबर या डिज़िटल हो गया है, तब से इन्टरनेट के पंखों पर सवार हो ऐसी तरक्की अन्तर्राष्ट्रीय हो गई है। धार्मिक होते हुए वेशभूषा या तरह-तरह के आडम्बरों से आज धोखाधड़ी की बहुत गुंजायश रहती है। जो जितनी बड़ी ठगी करे उतना ही अधिक ढोंगी धार्मिक। आभासी दुनिया की रचना से आपकी वायवीय दुनिया के एहसास का तोहफा पहले से ही ये डिज़िटल बन्धु करते थे। दिनों में ऊपर वाले की कृपा से आपके वारे-न्यारे कर देने के सपने दिखाये जाते। जैसे ही उससे भ्रमित हो आपने अपना ओ.टी.पी. नम्बर का आभास इन्हें दे दिया, बस आपके खाते-दर-खाते खाली।
बन्धु, यह दुनिया ऐसी बन गई है, कि इसमें एक ओर धोखाधड़ी और दूसरी ओर तोताचर भी साथ-साथ हो गये। हमारे एक मित्र गंवई गांव की खेलों में ‘बन्दर कीली’  खेला का उदाहरण दिया करते हैं। ज़रा-सा किसी की तारीफ के पुल बनाये, उसका बन्दर अघा कर कीली चढ़ जाता है। जैसे ही पुल का यह धरातल बेगाना हुआ, उसका बन्दर धड़ाम से नीचे। जी नहीं, यह सांप और सीढ़ी के खेल से बेहतर है। सांप और सीढ़ी तो ज़िन्दगी में उतार-चढ़ाव के नाम पर बहुत लोगों के साथ होता रहता है। यहां अन्तर केवल इतना है कि आपको मझधार में छोड़ देने वाले लोग, आपको सांपों की फुंहकार का तोहफा दे जाते हैं, और स्वयं आपकी सीढ़ी ले भागते हुए नज़र आते हैं। अपनी ही बनायी किसी चोटी पर खड़े हो कर कह देते हैं, ‘मेरे देशवासियो!’
यह बन्दर कीली दूसरा खेल है। इसमें पेशेवर लोग आपके पैरों के नीचे ज़मीन आसमान की प्रशंसा के कुलाबे मिलाने वाला एक कालीन बिछा देते हैं। हमारा बन्दर खिसिया कर अकड़ की कीली चढ़ जाता है। उधर जैसे ही कुलाबाधारी लोगों का काम आपसे निकल गया, कालीन आपके पांव के नीचे से खींच लिया जाता है, और आप धड़ाम से कीली से गिर नंगे निचाट फर्श पर आ जाते हैं। यह धरा भी आपको सहारा देने की हामी नहीं भरती क्योंकि वहां पहले से ही कई बौने लोग धार्मिक -धार्मिक हो जाने का खेल खेल रहे होते हैं। आपके लिये जगह कहां? इस फर्श ने नहीं थामा तो किसी गड्डे में गिरोहे। यह गड्डा अपने देश से पलायन का हो सकता है, या नशों की अंधेरी गुफा में गिर जाने का।
यह नहीं चाहते तो इस ज़माने का नया चलन सीख लो। यह चलन है तोता चश्मी का। कोई आपका कितना ही अच्छा या भला कर दे, आपको कृतज्ञ नहीं होना है, बल्कि ऐन समय पर पुराने नायक को मिट्टी करके आपको उससे आंखें फेर लेने का गुर आना चाहिये अर्थात् ज़िन्दगी में अपनी आंख को तोते की आंख बना डालो। सत्ता से लेकर मामूली कुर्सी प्राप्त करने तक अपने बेंच बदलो, धड़ा बदलो, गुट बदलो। लेकिन आज ऐसे अपना शीर्षक बदलू नेताओं को कोई ‘आया राम गया राम’ नहीं कहता। बल्कि इन धड़ा बदलू सरकार बिखेरने वाले नेताओं को लोकतंत्र का रक्षक कह दिया जाता है। वे अपने हर भाषण में अपनी केंचुल बदल दूसरे धड़े में चले जाने को समय की मांग कहते हैं। फिर प्रवचननुमा हो कह देते हैं ‘बन्धु जो समय अनुसार न बदल पाये, वह जनहित का हत्यारा है।’ हमने तो दल बदल कर सत्ता हासिल की, क्योंकि हम सरेबाज़ार होती इन हत्याओं को और सहन नहीं कर सकते थे। इसीलिये हमने पांसा बदल लिया। जीवन के जुए में जो पांसा बदल कर विजेता हो जाये, उसे दल बदलू नहीं, राष्ट्र-निर्माता कहते हैं। ऐसे राष्ट्र-निर्माता आपको अपने गिर्द अनेक मिल जायेंगे, जो कल तक आपका झण्डा उठा कर चलने के लिए तैयार थे, आज वे आपको पहचानते भी नहीं और अपनी पहचान का एक नया संकट पैदा कर रहे हैं?