1980 की ब्रिटिश विश्व पंजाबी कांफ्रैंस की यादें

अपनी आयु के मध्य के अंतिम दिनों की बात करने का कारण कैसे बना, यह बात तो फिर करेंगे, पहले यह बता दूं कि तब मेरी मुफ्त में ब्रिटेन जाने की विधि कैसे बनी। मेरे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के कम्युनिकेशन सैंटर का प्रमुख होते हुए 1979 में अमरीकी किसानों का एक समूह हरित क्रांति के रंग देखने विश्वविद्यालय आया था। समूह के पब्लिक रिलेशन की ज़िम्मेदारी मार्कस फ्रैंडा नामक व्यक्ति निभा रहा था। उसकी मेरे साथ अच्छी मित्रता हो गई। इतनी अधिक कि उसने वापस जा कर अमरीका की एशिया सोसाइटी की ओर से मेरे लिए अमरीका की त्रिसप्ताहिक यात्रा का निमंत्रण मुझे भिजवा दिया। मेरे रिश्तेदारों तथा दूसरे जानकारों को पता चला तो उनके निमंत्रणों ने मेरा जेब भर दी। परिणामस्वरूप मैंने 1980 में डेढ़ माह अमरीकियों की मेज़बानी का आनंद लिया। मैंने जहां जाना होता मेरी टिकट उस होटल में पहुंच जाती, जहां मैंने ठहरना होता था। उस यात्रा में मेरा ओक्लोहामा क्षेत्र के रैड-इंडियन्स की मेहमान-निवाज़ी का आनंद लेना भी शामिल था। उनकी डाइनिंग टेबल पर बैठ कर उनके साथ भोजन करना मुझे कभी नहीं भूलेगा। विशेषकर खाना शुरू करने से पहले की गई उनकी अरदास हमारे पूर्वजों द्वारा की गई निम्नलिखित अरदास से मिलती-जुलती थी। 
ददा दाता एक है सब कऊ देवनहार
देंदे तोटि न आवई अगनत भरे भंडार।
(अंग-257)
पूछने पर पता चला कि भाव यही था और भाषा अलग थी। बताने का अर्थ यह कि मुझे ब्रिटेन के लिए विदा करने वाले रैड-इंडियन्स थे। उनके द्वारा विदा किया गया मैं 2 जून, 1980 को आरंभ होने वाली कांफ्रैंस के लिए समय पर लंदन पहुंच गया था। मुफ्त में। तब ब्रिटेन वासियों के लिए हम नये थे और हमारे लिए वे। अस्सी वर्ष के संत सिंह सेखों तथा सोहन सिंह जोश ने इससे पहले ब्रिटेन नहीं देखा था। जसवंत सिंह कंवल तथा हरिभजन सिंह ने भी नहीं। जोश के कामरेड शिष्य तथा सेखों, हरिभजन सिंह तथा दलीप कौर टिवाना के रह चुके विद्यार्थी चाव से मिल रहे थे। 
पूरे दो सप्ताह तय स्थान पर 50-55 सीटों वाली बस इंतज़ार कर रही होती, जहां विदेशी मेज़बान अपने-अपने मेहमानों को समय पर पहुंचा देते। ब्रिटेन में प्रत्येक ने अपने दरवाज़े अपनी पसंद के मेहमानों के लिए खोले हुए थे। मुझे संत सिंह सेखों अपने साथ रखते, जैसे मैं उनका अंगरक्षक हो। हम दोनों को शिवचरण गिल ने दबोच लिया था, चाहे अवतार जंडियावली तथा अजीत सतकुमरा भी प्रत्येक स्थान पर उपस्थित रहते थे। 
पहले दिन की जान-पहचान से बात सात जून का कार्यक्रम लंदन के रामगढ़िया कौंसिल हाल में था और आठ जून का साऊथाल के सुकैलेटन कौंसिल हाल में। उसके अगले दिन हम लंदन यूनिवर्सिटी के स्कूल आफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ के मेहमान थे। बर्मिघ्म में हमारे स्वागत के लिए वहां का लार्ड मेयर पहुंचा हुआ था जो टाऊन हाल से रविदासियां के गुरुद्वारा साहिब में लंगर ग्रहण करने तक हमारे साथ रहा। 
मैं बता चुका हूं कि प्रत्येक शहर में दिन के समय सैमीनार तथा विचार-विमर्श होता और शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम या कवि दरबार। मानचैस्टर की यात्रा के समय सैमीनार का विषय सूफीयाना कलाम था और स्थान वहीं की मस्जिद। इसके प्रबंधक तथा वक्ता मौलवीनुमा विद्वान थे। उन्होंने अपनी बात समाप्त की तो हम में से भी किसी से टिप्पणी मांगी थी। डा. हरिभजन सिंह को बोलने के लिए कहा तो उन्होंने बढ़िया उच्चारण वाली उर्दू में समेटते हुए अदब-अदाब से सुफीयाना कलाम तथा सूफी मत के ऐसे नुक्ते पेश किये कि सभी वाह-वाह करने लगे। मौलवीनुमा वक्ता सबसे अधिक।
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी वाले कार्यक्रम की मेज़बानी प्रोफेसर डीमैट ने की जिसने यह भी माना कि भारत तथा पाकिस्तान वाले मेहमान अंग्रेज़ी भाषा, साहित्य तथा संस्कृति बारे ब्रिटेन की यात्रा भी करते रहे और आदान-प्रदान भी।
मेरी ओर से यह बताना शेष रह गया कि 2024 में मुझे 1980 का ब्रिटेन कैसे याद आया। इसका कारण दो बातें थीं। लिखित पत्रों को खा कर डकार मारने वाले मोबाइल के युग में विदेश से आया रणजीत धीर का नये वर्ष की बधाई वाला हाथ से लिखा कार्ड तथा पूर्व दूरदर्शन अधिकारी हरबंस सिंह सोढी के हाथ भेजा मेरे उस चचेरे भाई का पार्कर पैन जिसे मैं आज तक कभी नहीं मिला। धीर 1980 वाली विश्व पंजाबी कांफ्रैंस के कर्ता-धर्ताओं में प्रमुख था तथा रणजीत सिंह नामक मेरे चाचा का बेटा 35-40 वर्ष से वहां का निवासी है जो किसी समय वहां जाकर एक बार भी अपने पैतृक गांव नहीं आया। वह मेरे जानकार हरबंस सिंह सोढी को कैसे तथा कहां मिला, तो लम्बी कहानी है, परन्तु उसकी ओर से मेरे लिए पार्कर पैन का तोहफा भेजना अपने ताया के बेटे का सम्मान करना है। यह जान कर हैरान मत होना कि इस वर्ष मोबाइल पर नये वर्ष के संदेश तो बड़े आए, परन्तु लिखित कार्ड भेजने वाला रणजीत धीर के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं। 
जनवरी 1957 की नई दिल्ली
इस माह की ठंड तथा धुंध ने मुझे 1957 की जनवरी याद करवा दी है। मैंने इन दिनों में भारतीय कृषि अनुसंधान कौंसिल, नई दिल्ली में उप-सम्पादक (पंजाबी) का कार्य सम्भाला था। भारत की कुछ अन्य भाषाओं के उप-सम्पादक भी 8-10 दिन आगे-पीछे मेरे कमरे में आ बैठे थे। तमिल के मुथुस्वामी, तेलुगू के रामचन्द्र राव, मराठी के वीरेन्द्र अढिया, बंगाली के शनिन्द्र पांडे, केरल की राधा मैनन, सिंधी के लाल कर्मचंदानी तथा उर्दू के गोपी चन्द नारंग सभी ने एक बड़े हाल कमरे में बैठना था जहां अंग्रेज़ी वाला एस.के. भटनागर तथा हिन्दी वाला ब्रजेश भाटिया पहले ही विराजमान थे। खूबी यह कि हम सभी में से कोई किसी का बॉस अर्थात अफसर नहीं था। हम सभी एक-दूसरे के सहकर्मी थे। गोपी चंद नारंग अपनी डाक्टरेट की तैयारी कर रहा था और उसके पास कार्यालय के काम हेतु समय की कमी थी। वह पंजाबी बोलता तथा समझता था। कुर्सी ला कर मेरे पास आ बहता और मैं जो कुछ भी पंजाबी भाषा में लिखा होता, मुझ से सुन कर उर्दू में लिख लेता। 
वर्तमान में यह सब कुछ याद करने का बड़ा कारण यह है कि मैं, नारंग, भाटिया तथा कर्मचंदानी दिल्ली के जलवायु से अवगत थे। शेष प्रदेशों वाले सिर्फ सूती कपड़ों की कमीज़ें, साड़ियां तथा ब्लाउज़ लेकर आए थे। मैंने उन्हें कनाट प्लेस के निकट रेहड़ी मार्केट से गर्म स्वैटर, शॉल तथा लोइयां खरीद करवाईं। बड़ी बात यह कि हम सभी ने प्रत्येक से उसकी मातृ-भूमि का रहन-सहन तथा संस्कृति संबंधी जानकारी ली। इस अवधि मेें हम पूरे भारत के सामाजिक व संस्कृति पक्षों से अवगत हो गए। आज तक हैं।