मायावती ने यूपी में भाजपा की राह आसान की

बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने जन्मदिन पर प्रैस कांफ्रैंस करके बता दिया है कि अगले लोकसभा चुनावों में वो किसी भी गठबंधन के साथ नहीं जा रही हैं। भारत जोड़ो न्याय यात्रा शुरू करते ही राहुल गांधी को दो झटके एक साथ लग गए हैं। एक तरफ उनकी मंडली के युवा नेता मिलिंद देवड़ा ने पार्टी छोड़ दी है, तो दूसरी तरफ मायावती ने गठबंधन में शामिल होने की उनकी कोशिशों पर पानी फेर दिया है। बसपा के अकेले चुनावों में जाने से जहां ‘इंडिया’ गठबंधन खेमे में निराशा छा गई है, वहीं एनडीए के लिए ये राहत वाली बात है। एनडीए तो बसपा के साथ  गठबंधन की कोशिश कर ही नहीं रहा था लेकिन कांग्रेस और सपा की बातचीत इसी मुद्दे पर रूकी हुई थी क्योंकि दोनों उम्मीद कर रहे थे कि बसपा के साथ गठबंधन हो सकता है। दोनों दल चाहते थे कि बसपा के फैसले के बाद ही सीटों का बंटवारा किया जाये।   
कांग्रेस में यह भी विचार चल रहा था कि अगर बसपा गठबंधन में नहीं आती है तो सपा को छोड़कर बसपा के साथ समझौता किया जा सकता है। कांग्रेस को लगता है कि वो बसपा के साथ जाकर ज्यादा फायदा उठा सकती है। गठबंधन के रणनीतिकारों को लगता है कि अगर मायावती भी गठबंधन का हिस्सा बन जाती हैं तो भाजपा को यूपी में रोका जा सकता है। इस रणनीति की वजह यह भी है कि गठबंधन के रणनीतिकार यह मानते हैं कि अगर भाजपा को बहुमत प्राप्त करने से रोक दिया जाये तो मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोका जा सकता है। वास्तव में विपक्ष भाजपा को हराने की नहीं बल्कि उसकी सीटें कम करने की लड़ाई लड़ रहा है। उसे लगता है कि मोदी अल्पमत की सरकार का मुखिया बनना नहीं चाहेंगे। देखा जाये तो विपक्ष भाजपा को नहीं बल्कि मोदी को रोकने की जंग लड़ रहा है। उसे लगता है कि 80 सीटों वाले यूपी में अगर भाजपा को बड़ा नुकसान होता है तो उसकी रणनीति सफल हो सकती है। लेकिन गठबंधन की सारी कोशिशों को   मायावती ने एक झटके में खत्म कर दिया है। यह एक ऐसा झटका है कि इसको सहन करना गठबंधन के लिए मुश्किल हो रहा है। यूपी पर गठबंधन की बहुत उम्मीदें टिकी हुई थी लेकिन अब सब उम्मीदें टूटती दिखाई दे रही हैं। 
राम मंदिर के मामले में भी मायावती ने बहुत संतुलित बयान दिया है। उन्होंने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का समर्थन कर दिया है लेकिन साथ ही साथ यह भी कह दिया है वो चुनावी व्यस्तता के कारण वहां जाने के बारे में अभी कुछ कह नहीं सकती। उन्होंने बाबरी मस्जिद बनने का भी स्वागत किया है। ऐसी समझदारी गठबंधन का कोई भी दल नहीं दिखा सका। मायावती वहां जाती है या नहीं लेकिन कार्यक्रम का समर्थन करके उन्होंने गठबंधन के नेताओं को आईना दिखा दिया है। उन्होंने गठबंधन में शामिल न होने की वजह बताते हुए कहा है कि गठबंधन का ज्यादा फायदा दूसरे दलों को होता है। उनका यह भी कहना है कि गठबंधन से बसपा को नुकसान होता है इसलिए बसपा ने अकेले लड़ने का फैसला किया है। उन्होंने इस फैसले पर बोलते हुए भाजपा व कांग्रेस को निशाने पर लिया है लेकिन सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के लिए काफी सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया है। मायावती ने अखिलेश यादव को गिरगिट बता दिया है जिससे लगता है कि उन्हें भाजपा से ज्यादा समाजवादी पार्टी से दिक्कत है। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि पिछले दिनों अखिलेश यादव ने एक बयान में मायावती की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिये थे।   
मायावती ने चुनाव परिणामों के बाद हालातों को देखते हुए गठबंधन करने की बात कही है। देखा जाए तो उन्होंने दोनों गठबंधनों के लिए रास्ता खुला छोड़ दिया है। भाजपा तो इस फैसले से खुश है और उसने कहा है कि मायावती गठबंधन की हकीकत जानती हैं इसलिए वो गठबंधन में नहीं जा रही हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जानती हैं कि मायावती के इस फैसले से उन्हें ही नुकसान होगा लेकिन दोनों दलों ने इस फैसले के बाद मायावती के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया है। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि मायावती का दलितों में बहुत सम्मान है। उनके खिलाफ दिया गया कोई सख्त बयान दलितों में नाराज़गी पैदा कर सकता है, इसलिये दोनों दलों ने चुप्पी साध ली है। इतना ज़रूर कहा गया है कि इससे भाजपा को फायदा होगा। गठबंधन के नेता लगातार यह बयान दे रहे थे कि बसपा के बिना बात बनने वाली नहीं है, इसलिए वो बसपा के गठबन्धन में आने का इंतजार कर रहे थे। इससे उनकी निराशा का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
अब सवाल उठता है कि इसका फायदा किसे होगा और नुकसान किसे होगा?  यह तय है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को होगा। 2014 में सपा और बसपा अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं, तो भाजपा गठबंधन को 73 सीटें मिली थी लेकिन 2019 में सपा बसपा के मिलने से भाजपा को 62 सीटों पर संतोष करना पड़ा। 2014 में बसपा को कोई सीट नहीं मिली थी लेकिन 2019 में गठबंधन के कारण ही मायावती दस सीटें जीतने में कामयाब रहीं। देखा जाये तो मायावती के फैसले का नुकसान बसपा को होना तय है। उनके पास दलित समुदाय के लगभग 13 प्रतिशत वोट हैं और कुछ मुस्लिम वोट भी वो प्राप्त कर सकती हैं लेकिन पिछला प्रदर्शन दोहरा सकती हैं, इसकी उम्मीद दिखाई नहीं देती। सपा और कांग्रेस के लिये भी पुराना प्रदर्शन दोहराना मुश्किल लग रहा है। मायावती के फैसले के बाद सारी उम्मीदें भाजपा के लिए ही नज़र आ रही हैं। अब सवाल उठता है कि सबकुछ जानते हुए भी उन्होंने ऐसा कदम क्यों उठाया? लगता है कि वो अपने फायदे से ज्यादा गठबंधन का नुकसान देख रही हैं। वो विपक्षी दलों को दिखाना चाहती हैं कि मैं अपना फायदा नहीं कर सकती लेकिन तुम्हारा बहुत बड़ा नुकसान कर सकती हूं। विपक्ष को अच्छी तरह से पता है कि बसपा मुस्लिम वोट बैंक में भी सेंध लगा सकती है। पिछली बार भी उन्होंने बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतार दिए थे। हो सकता है कि वो अपने इस कदम से विपक्षी दलों को बेहतर शर्तों पर समझौते की राह दिखा रही हों।