‘आया राम, गया राम’ से नैतिकताविहीन दल-बदल तक

पूरे देश में नितीश कुमार के पूरे कुनबे समेत एक गठबंधन से निकल कर दूसरे गठबंधन में सुसज्जित होकर नौवीं बार मुख्यमंत्री बनने की बहुत चर्चा है। निश्चित ही पूरी दुनिया में होगी। मैं नहीं जानती कि विश्व भर में कहीं ऐसे नेता होंगे जो 24 वर्षों में नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लें और हर बार नई पार्टी, नया गठबंधन, नए मित्र पर चेहरे पर ताजी मुस्कुराहट। वैसे नितीश कुमार जैसे जो लोग दल बदल कर सत्ता पाते हैं, कई प्रकार के जुमला शब्द जनता द्वारा भी और मीडिया में भी सुनते हैं, किन्तु न जाने वे किस मिट्टी के बने होते हैं कि उन्हें मान-अपमान, निंदा-प्रशंसा का कोई अंतर नहीं पड़ता। 
वैसे नितीश कुमार की जितनी तारीफ  की जाए, कम है। दो दिन लगातार देश के बड़े-बड़े टीवी चैनल उनका स्तुतिगान करते रहे। किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ और कह कर उनका अभिनंदन किया, परन्तु वह अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। मुख्यमंत्री बनना है, कोई भी बना दे। कितना आश्चर्य है कि सन् 2000 में पहली बार सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बने नितीश फिर कभी पीछे नहीं मुड़े। 2005 में 2010 में और अब लगातार मुख्यमंत्री रहते हुए नौवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। उनके साथ भारतीय जनता पार्टी ने दो उप-मुख्यमंत्री बना लिए। संभवत: पिछले गठबंधन की तरह अब भी नितीश को अपना वातावरण थोड़ा घुटन भरा लगेगा, परन्तु बात सीधी है कि दल-बदल लोकतंत्र के हित में नहीं। 
यह ठीक है कि 1985 में जब राजीव गांधी ने दल-बदल को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाया था, तब उसकी बहुत प्रशंसा हुई थी। कानून अच्छा भी था, लेकिन उसकी धज्जियां उड़ाने के लिए रास्ते राजनेताओं ने निकाल लिए। कितना अच्छा होता अगर कानून यह बनता कि जो भी दल बदलता है, वह एक है या दस प्रतिशत, उसे त्याग-पत्र देकर नया चुनाव लड़ना ही होगा, परन्तु ऐसा नहीं किया गया, जिसका लाभ सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता, कार्यकर्ता उठा रहे हैं। आश्चर्य यह भी है कि जब एक वरिष्ठ नेता या मुख्यमंत्री दल बदलता है तो शेष विधायक भी अपने उस नेता के पीछे-पीछे चलने लगते हैं। तब माननीय निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों और भेड़ चाल की संस्कृति में ज्यादा अंतर नहीं रह जाता। आखिर क्यों किसी भी सदस्य की आत्मा मुखर नहीं होती और दल-बदल का विरोध करते दिखाई नहीं देता। दल-बदल की यह बीमारी अब तो छह दशक से भी ज्यादा पुरानी हो गई।
‘आया राम गया राम’ अर्थात दल बदल की संस्कृति बड़े प्रमुख रूप से हरियाणा से प्रारंभ हुई थी। हरियाणा के एक विधायक गया राम ने पंद्रह दिन में चार बार पार्टी बदली थी। वहीं से ‘आया राम गया राम’ प्रसिद्ध हो गया। 1967 के बाद तो 16 महीनों में 16 राज्य सरकारें दल-बदल के कारण गिर गई थीं। हरियाणा अलग राज्य बनने के बाद पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 81 में से 48 सीटें जीत कर थोड़े बहुमत से सरकार बना ली, परन्तु एक सप्ताह बाद ही पार्टी के बारह विधायकों के दल-बदल के कारण सरकार गिर गई और इन विधायकों ने हरियाणा विकास कांग्रेस के नाम से अपना एक समूह बना लिया, और अपनी ही सरकार को गिरा दिया। इसके बाद भी हरियाणा में दल-बदल का सिलसिला रुका नहीं। वैसे कर्नाटक, तमिलनाडु आदि प्रांतों का दल-बदल और फिर गोवा का दल-बदल भी बहुचर्चित है।
बहुत पुरानी बात नहीं जब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को छोड़कर एकनाथ शिंदे भाजपा से हाथ मिला गए और फिर सरकार बदल गई। एकनाथ शिंदे भाजपा के हो गए और भाजपा के अनुशासित कार्यकर्ता उप-मुख्यमंत्री बनने को भी तैयार हो गए और सरकार चलने लगी।
दल-बदल का रोग एक घातक बीमारी से भी ज्यादा गति से फैल रहा है। विशेषकर जिन दिनों लोकसभा, विधानसभा या निगमों, पंचायतों के चुनाव नज़दीक आते हैं तो दल-बदल बहुत अधिक गति से होता है। आखिर दल बदलू नेताओं पर विश्वास क्यों किया जाता है? यह बीमारी अटारी से कन्याकुमारी तक, गुजरात से नागालैंड तक एक ही गति से फैल रही है। अफसोस तो यह है कि जो व्यक्ति आज दल बदलकर दूसरी पार्टी में जाता है, हमारा मीडिया भी उसे उसी पार्टी का वरिष्ठ नेता कहने लग जाता है जबकि ये दल-बदलू नेता अपनी नई शरण-स्थली के विषय में कुछ भी नहीं जानते। पंजाब में बहुत-से कांग्रेसी भाजपा में चले गए हालांकि दोनों दलों की संस्कृति पूर्णतया भिन्न है।  देश की जनता को कुछ तो सोचना होगा और दल-बदल कानून को सख्त बनाना सबसे बड़ी आवश्यकता है।