आशा व जोखिम से भरी है ब्रेन चिप

कभी कभी साइंस की खबरें साइंस फिक्शन सी प्रतीत होती हैं। नील आर्मस्ट्रांग के चांद पर कदम रखने से लगभग सात दशक पहले एचजी वेल्स का उपन्यास ‘द फर्स्ट मेन इन द मून’ आया था। हमारे हाथों में मोबाइल फोन आने से बहुत पहले ‘स्टार ट्रेक’ धारावाहिक में मोबाइल फोन स्टार था। आर्थर सी क्लार्क के लेखन में ड्रोन्स प्रमुखता से मौजूद थे, वास्तविक जीवन में आने से पहले। हालांकि जिस सब की कल्पना की जाती है, उसमें से अधिकतर साइंस-फिक्शन के दायरे में ही रहता है, लेकिन एलोन मस्क की कम्पनी न्यूरालिंक ने मानव ब्रेन में जो पहला वायरलेस उपकरण लगाया है, वह टेक प्रगति में महत्वपूर्ण होने के साथ ही दिलचस्प व रोमांचक भी है। इसमें नया क्या है? विज्ञान के हर अगले कदम की तरह यह भी पिछले कदमों या प्रयासों पर ही आधारित है। मसलन 2021 में ऑस्ट्रेलियाई एएलएस रोगी फिलिप ओ’कीफ  ने सोशल मीडिया अपडेट के लिए न्यूरल इंटरफेस प्रयोग किया था- ‘हेलो वर्ल्ड! शोर्ट ट्वीट। मोन्यूमेंटल प्रोग्रेस।’ न्यूरालिंक की कामयाबी इस लिहाज़ से है कि इसमें भारी-भरकम उपकरण शामिल नहीं हैं। रोबोट चिप व अन्य इलेक्ट्रॉनिक्स खोपड़ी के अंदर रख देता है, 1,000 से अधिक इलेक्ट्रोड्स के माध्यम से ब्रेन सिग्नल डाटा एक एप्प में ट्रांसमिट हो जाता है, जो उसे एक्शन व इरादे में डिकोड करता है। पूरा ऑपरेशन वायरलेस है और फिलहाल इसका उद्देश्य पैरालिसिस पीड़ितों की मदद करना है। 
एक छोटे से सिक्के जितना ब्रेन इम्प्लांट न्यूरल गतिविधि को डिजिटल सिगनल में और डिजिटल सिगनल को न्यूरल गतिविधि में बदल देगा, जिससे फालिज रोगी अपने अंगों को नियंत्रित कर सकेंगे और बिना हाथों के लिखना व चित्रकारी करना संभव हो सकेगा। भौतिक शरीर की सीमाओं से बाहर निकलते हुए, भविष्य के ऐसे द्वार खुल जायेंगे, जहां विचार एक्शन बन जायेंगे और सूचना बिना किसी अवरोध के मन और मशीन के बीच में तैरती रहेगी। ब्रेन-कम्प्यूटर इंटरफेस (बीसीआई) न्यूरोटेक्नोलॉजी है, जिसकी शुरुआत 1970 में यूसीएलए में हुई थी। न्यूरालिंक का कार्य बीसीआई में ही विस्तार करता है। ब्रेन का एक हिस्सा मोटर कोर्टेक्स है, जिसका शरीर के मूवमेंट से संबंध है। इसमें सर्जरी करके इम्प्लांट फिट कर दिया जाता है। यह इम्प्लांट बिना तार के एक छोटे से बाहरी उपकरण से जुड़ा होता है जो ब्रेन के सिगनलों को प्रोसेस और उनकी व्याख्या करता है। यह सिगनल बाहरी उपकरणों के लिए कमांड में तब्दील हो जाते हैं या इनसे सीधे सॉफ्टवेयर एप्लीकेशंस को नियंत्रित किया जा सकता है। ‘लिंक’ नामक न्यूरालिंक का इम्प्लांट छोटे से सिक्के जितना है और इसमें 1,024 सूक्ष्म थ्रेड्स हैं जोकि मानव बाल से भी बारीक हैं। यह थ्रेड्स लचीले इलेक्ट्रोड्स हैं, जो ब्रेन से इंटरफेस करते हैं, न्यूरल गतिविधि को रिकॉर्ड और प्रेरित करती है। 
मस्क के ट्वीट के अनुसार, बीसीआई के शुरुआती यूजर्स वे लोग होंगे जो अपने हाथ-पैर प्रयोग करने की क्षमता खो चुके हैं यानी पैरालिसिस (फालिज) प्रभावित व्यक्ति। इस श्रेणी के रोगी केवल सोचने भर से अपने फोन या कम्प्यूटर या लगभग किसी भी उपकरण को नियंत्रित कर सकेंगे। यह क्रांतिकारी परिवर्तन तो आज के लिए है। कल इसके लाभकारी कौन हो सकते हैं? अगर रोगियों की एक श्रेणी अपने बीमार शरीर को बाईपास करने के लिए अपने ब्रेन पर निर्भर करेंगे तो दूसरी श्रेणी में वह होंगे जो मस्तिष्क रोगों से पीड़ित हैं। विचार यह है कि डीप-ब्रेन स्टिमियुलेशन जैसी प्रक्रियाएं केवल अलझाइमर व पार्किंसन जैसे रोगों को नियंत्रित करने में ही काम नहीं आयेंगी बल्कि इनसे डिप्रेशन व एडिक्शन (लत) को भी नियंत्रित किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त एक तीसरी श्रेणी न्यूरल इंटरफेस का इस्तेमाल याद्दाश्त व एकाग्रता की क्षमताओं में वृद्धि करने के लिए भी कर सकेगी।
यह सपने तो बहुत सुंदर हैं, लेकिन साकार कब होंगे? क्लिनिकल प्रयोग अभी तक कुछ दर्जनों से आगे नहीं जा सके हैं। दावे कितने ही दिलचस्प क्यों न हों कि 5-10 वर्ष के भीतर इसका कारोबार आरंभ हो जायेगा, लेकिन यह टेक्नोलॉजी अभी इस तरह उपलब्ध होने की स्थिति में नहीं पहुंची है जैसे कार्डियक पेसमेकर्स या कृत्रिम घुटने। लेकिन न्यूरालिंक का घटनाक्रम इस बात का संकेत है कि हम यह चर्चा शुरू कर दें कि इसको किस तरह साझा व रेगुलेट किया जाना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि मस्क के शामिल होने की वजह से माइंड से कम्प्यूटर को नियंत्रित करने के विज्ञान को सुर्खियों में ला दिया है, जिसका एक पहलू यह भी है कि लो अर्थ ऑर्बिट सैटेलाइट से लेकर ईवी (इलेक्ट्रॉनिक वाहनों) तक में मस्क अत्यधिक संसाधन लगाने व उन्हें मुकम्मल करने में सक्षम हैं। लेकिन समुद्र में जब लहर ऊपर उठती है, तो सभी नावों को ऊपर उठा देती है, इसलिए इस क्षेत्र की कम्पनियों व शोधकर्ताओं को भी इस सिलसिले में फंड एकत्र करना आसान हो जायेगा। इसके अतिरिक्त, मानव ब्रेन क्षमता में क्रांतिकारी विस्तार एआई (आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस) कहानियों में भी उछाल ले आयेगा।
न्यूरालिंक के पहले मानव ब्रेन चिप इम्प्लांट से क्रांति अवश्य आयेगी। विचारों को एक्शन में बदला जा सकेगा। न्यूरो रोगों को भी नियंत्रित किया जा सकेगा। लेकिन जब इंसान के अंदर चिप होगी तो उस डाटा को कौन एक्सेस करेगा, जो यह परिभाषित करता है कि हम क्या सोचते हैं और हम कौन हैं? आज हर देश में यह समस्या है कि नियंत्रक (कानून व एजेंसीज) डीप-टेक में हो रही तेज़ प्रगति के अनुरूप अपनी गति नहीं रख पाते। प्रतिक्रियात्मक नीतियों में प्रोएक्टिव खतरों को दूर रखने का अभाव होता है। क्या इस फासले को स्पष्ट नैतिक व सुरक्षित फ्रेमवर्क से संबोधित किया जा सकता है? क्या हमें डीप टेक ‘नैतिक हैकर्स’ की ज़रूरत है, जो आशंकित खतरों का अनुमान लगा सकें और ज़िम्मेदार विकास के लिए मार्गदर्शन कर सकें? स्कैम संसार में अपना ब्रेन डाटा किसी और के सुपुर्द करके क्या हम सहज व सुरक्षित रह सकते हैं?
इन प्रश्नों के उत्तर आसान नहीं हैं। इनसे दूर भागना भी अक्लमंदी नहीं है। न्यूरालिंक के अनदेखे रास्तों पर कदम उठाने से पहले ज़रूरी है कि इस विषय पर गंभीर विश्वव्यापी चर्चा हो जानी चाहिए, जिसमें वैज्ञानिक, नैतिकतावादी, नीतिनिर्माता और आम जनता को शामिल होना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाये कि न्यूरालिंक से मानव एकता को बल मिले न कि मानवता का विभाजन हो। जो व्यक्ति ब्रेन-कम्प्यूटर इंटरफेस (बीसीआई) का चयन करें वे इसमें पारदर्शिता, नैतिकता, बचाव, सुरक्षा व प्राइवेसी की भी मांग करें। आगे की यात्रा दोनों उम्मीद व जोखिम से भरी है। जिस तरह इंटरनेट ने दुनिया को बदलकर रख दिया उसी तरह न्यूरालिंक में यह क्षमता है कि मानव होने की परिभाषा को ही फिर से लिख दे क्योंकि दिमाग ही तो व्यक्ति को उसकी वैयक्तिकता प्रदान करता है। 
बीसीआई वह टेक्नोलॉजी है जो केवल नयापन की ही मांग नहीं कर रही है बल्कि समझ, हमदर्दी और भविष्य के लिए ऐसे समर्पण की मांग कर रही है जिसमें मन की शक्ति सम्पूर्ण मानवता के लिए लाभकारी हो। मस्क ने पहला कदम उठा दिया है, अगले कदम के लिए सबको मिलकर विचार करना है। 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर