क्या समान नागरिक संहिता सही है ?

यूनिफार्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) की चर्चा बहुत समय से हो रही है। उत्तराखंड सरकार ने इसे कानूनी जामा पहनाकर अन्य राज्यों के लिए उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है। इससे पहले कि इसे लागू करने की पहल दूसरे स्थानों पर हो, इसमें जो कमियां हैं और विरोधाभास हैं, उन्हें समझना और दूर करना आवश्यक है।
कानून की सार्थकता
उत्तराखण्ड का सामान नागरिक कानून उन सभी पर लागू होता है जो इस प्रदेश के वासी हैं। कहीं दूसरी जगह रहते हैं तो भी इसके अंतर्गत बने प्रावधानों का लाभ मिलता है। जिन प्रमुख पहलुओं को इसमें रखा गया है, उनमें वे सभी विषय आते हैं जो जीवन से जुड़े हुए हैं। विवाह, तलाक, वसीयत, पैतृक संपत्ति की व्याख्या और उसके अधिकारी तथा दावेदार, विभिन्न समस्याओं का कानूनी तरीके से निपटारा, लिव इन रिलेशनशिप, उससे जुड़े मुद्दे, संतान का पालन-पोषण और अधिकार, जायज़ अथवा नाजायज़ तरीके से जन्मे बच्चे और सबसे बड़ी बात यह कि उन्हें कोई किसी अन्य नाम जैसे कि ‘नाजायज़’ कह कर नहीं पुकार सकता। कानून का संरक्षण होने से इन्हें भी वे सब अधिकार मिलेंगे जिनसे अब तक समाज और परिवार के दबाव के कारण ये वंचित रहते थे। यदि उनका जन्म सामान्य शिशु की भांति नहीं हुआ, दुष्कर्म या ज़ोर जबरदस्ती या इच्छा के विरुद्ध हुआ है तो उनका क्या कुसूर है, इस बात को प्रमुखता से रखा गया है।
किसी भी धर्म को मानते हो, विवाह का पंजीकरण कराना होगा, सभी संबंधित धाराएं समान रूप से सब पर लागू होंगी। तलाक की प्रकिया का बहुत स्पष्ट रूप से उल्लेख है और कोई भी बिना किसी वैध और उचित कारण के तलाक नहीं दे पायेगा, क्योंकि तब यह गैर-कानूनी होगा और इसके लिए तय सज़ा मिलेगी। पूरे प्रशासनिक तंत्र की व्यवस्था है। पंजीकरण करने, सर्टिफिकेट देने, आवेदन करने, सुनवाई किए जाने और निर्णय तक पहुंचने के लिये आवश्यक प्रबंध और सुविधाएं हैं। कानूनी प्रकिया को सरल और आसानी से सब के लिये उपलब्ध किए जाने की तरफ  खास ध्यान दिया गया है।
वसीयत की व्याख्या की गई है, स्वयं अर्जित की गई अथवा पैतृक संपत्ति के बंटवारे को लेकर विवादों का जल्दी और आसानी से निपटारा हो सकेगा। अनेक गुप्त धाराओं को उदाहरण देकर समझाया गया है ताकि किसी को न तो गलतफहमी हो और न किसी के साथ अन्याय होने की आशंका हो। किसकी क्या दावेदारी है, कितना हिस्सा उसे मिलना है, किस संपत्ति पर कौन हक जमा सकता है, विवाद का समाधान क्या है, यह सब कुछ इस कानून में है। संपत्ति चाहे कहीं भी हो, देश में हो या विदेश में, यदि उत्तराखण्ड के निवासी हैं तो उत्तराधिकार और हिस्सेदारी के मामले में यह कानून लागू होगा। उम्मीद है कि इस कानून से पीढ़ियों तक चलने वाले मुकद्दमे देखने को नहीं मिलेंगे।
लिव इन रिलेशनशिप
यह स्वीकार करना होगा और यह एक ऐतिहासिक तथ्य भी है कि हमारे देश में दो व्यक्तियों (एक पुरुष और एक स्त्री) के एक साथ रहने और एक दम्पत्ति की तरह जीवन व्यतीत करने की स्वतंत्रता है। यह ज़रूरी नहीं कि वे विवाह ही करें और समाज तथा परिवार की स्वीकृति और मान्यता का इंतज़ार करें और तब ही अपने संबंधों को आगे बढ़ाएं। लिव इन में रहते हुए यदि उनकी संतान होती है तो उसे भी वे सभी अधिकार मिलेंगे जो सामान्य तौर पर हुई शादी के बाद पैदा हुए बालक के होते हैं। इन्हें अपने रिश्ते का खुलासा करना होगा और पंजीकरण कराना होगा। समाज और परिवार के हित में आवश्यक है कि उन्हें बराबरी का दर्जा मिले। परिवार और समाज उन्हें दूसरे दर्जे पर रखता है। उनकी संतान के लिए भी जीवन आसान नहीं होता। ऐसे संबंधों को दिशाहीन न बनने देने के लिए सामाजिक और कानूनी स्वीकृति ज़रूरी है।
जो संबंध पारिवारिक, धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं तथा रीति-रिवाज़ों की अनदेखी कर बनते हैं, उन्हें अनुचित नहीं कहा जा सकता और गैर-कानूनी तो बिलकुल नहीं। ऐसे संबंध तब ही बन पाते हैं और देर तक या आजीवन टिक पाते हैं जिनका आधार एक-दूसरे के प्रति प्रेम, लगाव, समर्पण और हर स्थिति में साथ निभाने की इच्छा हो। इसमें धर्म, जाति, समुदाय या समाज रुकावट पैदा करता है तो उसके परिणाम कभी सुखद नहीं हो सकते। नाक कटवाने, इज़्जत उछालने जैसी बातों का दो व्यक्तियों के स्नेह में व्यवधान बनने और उन्हें उनकी मज़र्ी से ज़िंदगी न जीने देने तथा बिना ठोस आधार के बातों की दुहाई देना विकृति को ही जन्म दे सकता है, पारिवारिक और सामाजिक सौहार्द तो कतई नहीं।
आदिवासी समाज को दृष्टिविगत करना
इस कानून की सबसे बड़ी विसंगति, विरोधाभास या कमी यही है कि एक पूरे समाज को इससे वंचित रखा गया है। आदिवासी, वनवासी, जनजातियां, कबीले और दुर्गम तथा दूरवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों के भी वे सभी अधिकार हैं जो किसी शहर, कस्बे, गांव और देहात में रहने वालों को जन्मजात या कानूनी तौर पर अपने आप मिल जाते हैं। हमारे देश में इनकी आबादी लगभग चौदह करोड़ तो होगी ही और उत्तराखंड में ही बहुत अधिक है। यह राज्य अपनी वन संपदा, जंगलों और वाइल्ड लाईफ  यानी पेड़ पौधों, वनस्पतियों और दुर्लभ जीवों के लिए प्रसिद्ध है और यही समाज उनकी रक्षा करता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि उस समाज के जीवन जीने के अपने तौर तरीके हैं, उनके यहां विवाह करने, साथ रहने, संतान को जन्म देने की अपनी परम्पराएं हैं। विवाह से पहले भाग जाने, अलग रहने और यहां तक कि संतान को जन्म देने की सामर्थ्य को परखने की परम्परा है। यदि यह न हो तो विवाह तो क्या, साथ भी नहीं रह सकते। एक पत्नी अनेक पतियों के साथ रह सकती है और एक पति की कई पत्नियां हो सकती हैं। अपने ही कुटुंब में विवाह हो जाता है, शादी से पहले कहीं लड़की वालों को धन दिया जाता है तो कहीं लड़के वालों को। कहीं दुल्हन बारात ले जाती है तो कहीं दूल्हा, परिवार का मुखिया और पैतृक संपत्ति के दावेदार और फैसला करने वाले पुरुष ही नहीं स्त्री भी हो सकती है।
इन सब वास्तविकताओं के होने से इन लोगों पर यह कानून लागू न करना इन्हें देश की मुख्य धारा में लाने के प्रयास में बाधा होगी। कुछ ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि इनकी मान्यताओं को ठेस पहुंचाए बिना उन्हें कानून के लाभ मिल सकें। उनके लिए शिक्षा, जागरूकता, उनके साथ समन्वय करने, उन्हें समझने की ज़रूरत है। यदि सभी राज्य इन्हें अलग रखेंगे तो यह अन्याय ही नहीं बल्कि उन्हें विद्रोह तक करने के लिए उकसा सकता है और तब क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना ही भय उत्पन्न करती है।