किसान जाएं तो जाएं कहां !

किसान अपनी पुरानी एवं चिर-परिचित मांगों को मनवाने के लिए एक बार फिर आन्दोलन करने हेतु सड़कों पर उतरने को विवश हुए हैं। अलबत्ता इस बार अन्तर यह है कि उन्होंने अपने रोष की अभिव्यक्ति पंजाब और केन्द्र दोनों सरकारों के विरुद्ध ज़ाहिर की है। पंजाब में किसानों ने मालवा के कई क्षेत्रों में सड़क मार्गों को रोक कर पक्के मोर्चे लगा दिये हैं। इसके साथ ही पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की कई किसान यूनियनों ने 13 फरवरी को  दिल्ली कूच का सार्वजनिक आह्वान किया है। इस कूच के दृष्टिगत किसानों ने हज़ारों ट्रैक्टर-ट्रालियों को तिरपाल आदि से ढक कर तम्बुओं का रूप दे दिया है। किसानों के इस ताज़ा संघर्ष को नि:संदेह सभी किसान वर्गों का समर्थन हासिल है हालांकि कुछ किसान यूनियनों ने एकबारगी आन्दोलन शुरू कर देने का पक्ष धारण कर रखा है। तथापि, दिल्ली कूच के किसानों के फैसले ने एक बार तो पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की सरकारों को हिला कर रख दिया है। इस आन्दोलन के कारण पंजाब चूंकि सर्वाधिक रूप से प्रभावित होता है और दिल्ली कूच के लिए पंजाब के किसानों को अधिकतर हरियाणा की सीमाओं से होकर गुज़रना पड़ता है, अत: हरियाणा की सड़कों को प्रदेश की सरकार ने जैसे लड़ाई का मैदान बना कर रख दिया है। रेल-मार्गों पर कड़े पुलिस पहरे बिठा दिये गये हैं। सड़क-मार्गों पर सीमेंट के भारी-भरकम तोंदे और शिला-पत्थर रख कर उन्हें अवरुद्ध कर दिया गया है। इसके साथ ही प्रदेश भर की दिल्ली से सटी सभी सड़कों पर बड़ी-बड़ी कीलें गाड़ कर भी किसानों को किसी भी सूरत दिल्ली पहुंचने हेतु रोकने की सिर-तोड़ व्यवस्था की गई है। स्थितियों का एक भीषण त्रासद पक्ष यह भी है, कि एक ओर तो किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की अपने हक की मांग करने के लिए दिल्ली जाने से रोकने हेतु भरसक बल-प्रयोग किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर उन्हें किन्नू की फसल को या तो मुफ्त के भाव बेचने अथवा सड़कों पर फैंकने हेतु विवश किया जा रहा है।  हरियाणा की सरकार ने दिल्ली-कूच से कई दिन पहले ही सड़क-मार्गों को अवरोधों से पाट दिया है, इंटरनैट आदि सम्पर्कों को काट दिया है, किन्तु इससे उत्तर-भारत से देश के अन्य भागों अथवा विदेशों की ओर जाने वाले लाखों लोगों को अकारण और अकथनीय परेशानियों एवं समस्याओं से अवश्य जूझना पड़ रहा है।
किसानों को इस आन्दोलन हेतु विवश करने वाली उनकी मांगें नि:संदेह बहुत पुरानी हैं। इनमें सर्वाधिक बड़ी एवं परेशानी वाली मांग किसानों की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य हेतु कोई स्थायी लाभकारी नीति बनाये जाने की है। फसलों के समर्थन मूल्य को लेकर केन्द्र और राज्यों की सरकारें सदैव उनके साथ छल-बल सहित आंख-मिचोली खेलती आई हैं। यहां तक कि जिस कृषि विशेषज्ञ स्वामीनाथन को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दूसरी पारी वाली सरकार ने अपने आखिरी दौर के एक फैसले के तहत भारत-रत्न की उपाधि से विभूषित किया है, उनकी ओर से दशकों पूर्व किसानों को उनकी फसलों का लागत-आधारित न्यूनतम समर्थन मूल्य देने संबंधी नीति की सिफारिशों को भी आज तक किसी सरकार ने लागू नहीं किया। ऐसी स्थिति में किसान अगर बार-बार आन्दोलन हेतु विवश होते हैं, तो देश के राजनीतिक आकाओं में से किसी के भी पास यह बताने की फुरसत क्यों नहीं, कि उनकी बांह थामने वाला रहनुमा आखिर कहां है। लगभग साढ़े तीन वर्ष पूर्व भी देश भर के लगभग 30 किसान संगठनों ने पहले रेल-मार्ग-रोको आन्दोलन शुरू किया था, और फिर लगभग दो मास बाद इस आन्दोलन को राष्ट्र-व्यापी रूप दे दिया था। वर्ष भर चले इस किसान आन्दोलन में सैकड़ों किसानों की मृत्यु हो गई थी। इस दौरान करोड़ों लोगों को जो परेशानी झेलनी पड़ी, वो इससे अलग थी। इस आन्दोलन के कारण देश और कई प्रदेशों की आर्थिकता पर भी विपरीत असर पड़ा था, और सरकारी राजस्व को भी हानि उठानी पड़ी थी। वर्ष 2021 की 19 नवम्बर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किसान मांगों को प्रभावित करने वाले तीनों काले कृषि कानूनों को वापिस ले लिये जाने के बाद ही यह आन्दोलन खत्म हुआ था। तब भी प्रधानमंत्री और केन्द्र सरकार ने किसानों की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत मूल्यों के साथ जोड़ने सहित अन्य मांगों के प्रति सहानुभूति- पूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया था, किन्तु न तो अब तक पंचों का कहना माना गया है, और न ही सरकारी हर्ठ-धर्मिता का परनाला टस से मस हुआ है।
अब एक बार फिर किसान सड़कों पर उतरे हैं, तो नि:संदेह उनकी शक्ति और हौसले में कोई कमी नहीं दिखाई दी है। पहले किसान संगठनों की संख्या 30 से 50 तक थी जो अब दो सौ से भी अधिक है। पंजाब की भगवंत मान और हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर की सरकारें बेशक किसानों के आन्दोलन की लगामें थामने की भरसक कोशिश कर रही हैं किन्तु कोई भी सरकार, कोई राजनीतिक नेता अथवा कोई रहनुमा यह बताने की कोशिश नहीं कर रहा, कि किसानों की जायज़ और न्यायोचित मांगें अनेकानेक वायदों-दावों के बावजूद आज तक स्वीकार क्यों नहीं की गईं? स्वामीनाथन को भारत-रत्न प्रदान कर उनकी योग्यता को तो मान्यता दी गई, किन्तु फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कृषि लागत के साथ जोड़ने संबंधी उनकी ही सिफारिश को सरकारों ने आज तक दाखिल-दफ्तर कर रखा है। ऐसे में लाख टके का यह एक प्रश्न अभी भी जवाब की प्रतीक्षा में  है कि किसान यदि आन्दोलन न करें, तो आखिर जाएं भी, तो कहां जाएं। न तो कोई उनकी ज़ुबां को समझ रहा है, न कोई उनकी विवशता को ही देखता है। वायदों और घोषणाओं के समुद्र में डूबती-उतराती उनकी कश्ती का आखिर कोई तो खवैया चाहिए।