अबू धाबी में सांस्कृतिक महाशक्ति बन कर उभरता भारत

संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की राजधानी अबू धाबी में साल 2019 से बन रहा बोचासनवासी श्रीअक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) हिंदू मंदिर बनकर पूरी तरह से तैयार हो चुका है। आज 14 फरवरी 2024 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसका उद्घाटन करेंगे। 22 जनवरी 2024 के बाद अभी एक महीना भी नहीं गुजरा और प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या के ‘प्राण प्रतिष्ठा’ जैसे भव्य कार्यक्रम में एक बार फिर से मौजूद हैं। इससे विपक्ष की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक है, लेकिन इसका कोई हल भी नहीं है क्योंकि भारत विश्व परिदृश्य में बड़ी तेज़ी से एक सांस्कृतिक महाशक्ति बनकर उभर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी पिछले नौ सालों में अगर 7वीं बार संयुक्त अरब अमीरात के दौरे पर हैं तो इसके स्पष्ट मायने हैं कि भारत दुनिया की एक स्वीकार्य सांस्कृतिक महाशक्ति भी बनने जा रहे है। भले इसको देश की विपक्षी पार्टियां भाजपा का हिंदूवादी विस्तार या हिंदूवादी भावनाओं का वैश्विक प्रचार कहें, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि हाल के सालों में भारत को अपनी इस सांस्कृतिक मजबूती के चलते अनेक बड़ी कूटनीतिक सफलताएं मिली हैं।
दूसरे धर्मों के प्रति कट्टरता से अलगाव और उदासीनता का भाव रखने वाले संयुक्त अरब अमीरात में यह न सिर्फ पहला गैर-इस्लामिक पूजास्थल यानी बुत्तखाना है बल्कि करीब 16 एकड़ के विशाल क्षेत्र में बने इस मंदिर की जमीन खुद यूएई सरकार ने उपलब्ध करायी है और वह भी भारत के साथ बेहतर आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्तों को प्रदर्शित करने के लिए बिल्कुल मुफ्त। मोदी सरकार केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही बिना कोई शोर शराबा किए चुपचाप पूरी दुनिया में अपने सांस्कृतिक मिशन पर आगे बढ़ रही है। यह अकारण नहीं है कि आज भारत के बाद संख्या में सबसे ज्यादा हिंदू मंदिर अमरीका में हैं। दुनियाभर में करीब 20 लाख हिंदू मंदिर हैं, जिनमें से करीब 6.5 लाख मंदिर भारत में हैं और बाकी दुनिया के सौ से ज्यादा देशों में बिखरे हुए हैं। सबसे ज्यादा मंदिर देश के भीतर तमिलनाडु में हैं तो विदेश में अमरीका नंबर एक पर है।
इतिहास में भारत कोई पहली बार सॉफ्ट पावर या सांस्कृतिक कूटनीति की बड़ी ताकत बनकर नहीं उभरा। अतीत में भी हम एक बड़ी सांस्कृतिक ताकत रहे हैं, जिसका असर भू-राजनीतिक और कूटनीतिक दोनों ही स्तरों पर देखने को मिलता रहा है। विश्व इतिहास में भारत के वैश्विक योगदानों में सबसे महत्वपूर्ण योगदान प्राचीन सांस्कृतिक और सभ्यतागत विचार और परम्पराएं ही हैं। भारत के पास हमेशा से दूसरों को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और विविध परम्पराओं तथा इतिहास से प्रभावित करने की क्षमता रही है। साहित्य, संगीत, सिनेमा, योग, अध्यात्म और लाखों तरह के भोजन, व्यंजनों में भारत की महारत हमेशा से दुनिया को चकित करती रही है। ऐसा हो भी क्यों न, जिस ग्लोबलाइजेशन को 20वीं शताब्दी का विचार माना जाता है, उस भूमंडलीकरण की सोच और धारणा भारत वैदिक युग से रही है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा भारत में आज नहीं, 4000 साल पहले दी थी। वैश्विक ग्राम या विश्व नागरिक को लेकर दुनिया आज भी उस ऊंचाई तक नहीं सोच पाती, जिस ऊंचाई तक भारत में 4000 साल पहले सोच लिया गया था।
आजादी के बाद भारत हमेशा से अपनी विदेशनीति में सांस्कृतिक ताकत का एक महत्वपूर्ण ताकत के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। दरअसल भारत में करीब 90 साल तक चला अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध आजादी का आंदोलन सही मायनों में एक विराट सांस्कृतिक आंदोलन ही था। दुनिया में भारत पहला और अकेला ऐसा देश था, जिसने हिंसा की बजाय अहिंसा के रास्ते से देश की आजादी की लड़ाई लड़ी और जीती। इसलिए आजादी की लड़ाई के दौरान ही भारत का पूरी दुनिया में जबरदस्त सांस्कृतिक प्रभाव था। वाल्मीकि रचित रामायण, कालीदास रचित महान नाट्य ग्रंथ और जनभाषा में रची गई रामचरित मानस, भारतीय साहित्य की वो थातियां हैं, जिनकी पूरी दुनिया मुरीद है। ऐसे में तब भारत की सांस्कृतिक ताकत सोने पे सुहागा बन जाती है, जब पारम्परिक चिकित्सा, योग और भोजनकला में हमने असीमित विस्तार किये हैं। कई साल पहले बीबीसी के एक रोड साइड फूड सर्वे से यह स्थापित हुआ था कि दुनिया में जितनी पाक विधाएं हैं, उनमें 80 प्रतिशत से ज्यादा अकेले भारत में और करीब 14 प्रतिशत अकेले चीन में हैं। बाकी सारी दुनिया के पास महज 6 प्रतिशत भोजनकलाएं हैं। 
भारत का राजनीतिक वर्ग हमेशा से इस बात को जानता रहा है कि हम एक बड़ी सांस्कृतिक ताकत हैं, इसलिए साल 1950 में ही तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक मजबूत भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की स्थापना करवा दी थी, जबकि भारत की आजादी के साथ ही पैदा हुआ पाकिस्तान और करीब 25 सालों बाद निर्मित हुए बांग्लादेश के पास आज भी शेष दुनिया से सांस्कृतिक संबंध विकसित करने के लिए ऐसी औपचारिक संस्था नहीं है। अधिक विस्तार से कहें तो इसकी इन देशों ने कोई व्यवस्था ही नहीं की। शायद इसकी सबसे बड़ी वजह यही रही है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही देशों को अपने सांस्कृतिक अतीत को स्वीकार करने में हिचक रही है और अमरीका की तरह इन देशों ने अपना वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य रचा ही नहीं, न ही दुनिया को प्रभावित करने वाली किसी सॉफ्ट पावर में किसी तरह की महारत हासिल की है।
यही वजह है कि एक ही धरती के अलग-अलग टुकड़े होने के बावजूद आज जहां भारत दुनिया में एक सांस्कृतिक महाशक्ति है, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश करीब करीब सांस्कृतिक शून्यता के दौर में हैं, जबकि दोनों ही देशों के पास दो बड़ी क्षेत्रीय संस्कृतियां थीं। पाकिस्तान के पास समृद्ध पंजाबी कला और संस्कृति थी, तो बांग्लादेश ने तो अपनी आजादी की लड़ाई ही बांग्लाभाषा के लिए लड़ी थी और समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में क्षेत्रीय संस्कृतियों के मामले में बांग्ला संस्कृति अपने को सर्वोच्च मानती है। इसके बावजूद इन दोनों देशों ने खुद को इस्लामिक देश साबित करने की हिचक के चलते अपने अतीत से समझौता कर लिया।
लेकिन भारत आज न सिर्फ अतीत की अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा का उन्मुक्त होकर प्रदर्शन कर रहा है बल्कि पूरी दुनिया लगातार हिंदुस्तान की इस दावेदारी को मान्यता दे रही है। 21 जून 2015 को दुनियाभर में जिस तरह आधिकारिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया और साल 2014 में जिस भारी बहुमत से संयुक्त राष्ट्र महासभा में योग दिवस की संकल्पना को ध्वनिमत से समर्थन दिया गया, वह नये दौर के भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय का गगनघोष था। आज पूरी दुनिया में 3 लाख से ज्यादा ऐसे योग केंद्र हैं, जिनका किसी न किसी रूप में भारत से संबंध है। करीब 600 बिलियन से भी ऊपर की योग की वैश्विक अर्थव्यवस्था में न सिर्फ भारतीयों को बहुत बड़ा लाभ हुआ है बल्कि भारत की सांस्कृतिक महत्ता और भारतीय सभ्यता के प्रति पूरी दुनिया में योग ने एक अलग तरह से सम्मान निर्मित किया है। निश्चित रूप से यह अकेले मौजूदा मोदी सरकार की कमाई नहीं है, इसमें आजादी के बाद की सभी सरकारों का बराबर का योगदान भी शामिल है। 
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