लोकसभा चुनावों को प्रभावित करेगा किसान आन्दोलन

देख जिंदां से परे रंग-ए-चमन, जोश-ए-बहार
रक्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख।
(मजरूह सुल्तानपुरी)
किसान मोर्चा एक बार फिर शिखर पर है। चाहे इस बार यह मोर्चा समूचे किसान संगठनों में एकता किये बिना ही एक पक्ष ने ही लगाया है, परन्तु जिस प्रकार का उत्साह एवं जोश पंजाब के नौजवान स्वत: दिखा रहे हैं, और जिस प्रकार का व्यवहार एवं अत्याचार हरियाणा के पुलिस बल कर रहे हैं, इन दोनों स्थितियों के अर्थ बहुत अलग-अलग हैं। बेशक आज शाम को मोर्चा चला रहे किसान नेताओं तथा केन्द्रीय मंत्रियों के बीच होने वाली बैठक का परिणाम कुछ भी निकले, परन्तु हम समझते हैं कि इस बैठक का नतीजा भावी राजनीति पर बहुत प्रभाव डालेगा क्योंकि चाहे इस आन्दोलन को राजनीतिक कहें या गैर-राजनीतिक, परन्तु प्रत्येक आन्दोलन का प्रभाव उस आन्दोलन के आकार तथा विशालता के लिहाज़ से समाज के प्रत्येक भाग पर पड़ता है। प्रत्येक आन्दोलन की सफलता-असफलता राजनीति को तो व्यापरक स्तर पर प्रभावित करती ही है। 
सबसे पहली बात तो यह है कि चाहे यह मोर्चा किसान संगठनों के बने तीन अलग-अलग गुटों में से सिर्फ एक गुट संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) जिसका नेतृत्व मुख्य तौर पर किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल तथा सरवण सिंह पंधेर करते हैं, द्वारा लगाया गया है। वैसे इस संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) में कई अन्य प्रमुख किसान नेता भी शामिल हैं, परन्तु देखने वाली बात यह है कि किसानों के दो प्रमुख तथा ताकतवर गुटों में से सिर्फ एक गुट द्वारा ही दिल्ली कूच की घोषणा करते ही पंजाब के युवा जैसे स्वत:स्फूर्त ही इसमें शामिल हुए हैं। ये युवा सिर्फ शामिल ही नहीं हुए अपितु सरकार के ज़ुल्म के आगे अडिग भी हैं। यह बात सिद्ध करती है कि पंजाब में सब अच्छा नहीं है। किसानों में आक्रोश है और वे अपनी समस्याओं तथा कठिनाइयों के समाधान हेतु किसी भी सीमा तक तथा किसी के भी साथ जा सकते हैं। हर कुर्बानी देने के लिए भी तैयार हैं। दूसरी ओर जिस प्रकार हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने मोर्चे को दिल्ली जाने से रोकने के लिए सात परतों वाली बैरीकेडिंग की हुई है, और शांतिपूर्वक से रोष प्रकट करने के लिए दिल्ली जा रहे किसानों  पर अंधाधुंध आंसू गैस ही नहीं बल्कि ऐसे हथियार भी इस्तेमाल किये हैं जो पुलिस ही नहीं अपितु अर्ध-सैनिक बल ही इस्तेमाल करते हैं। यह अपने-आप में शर्मनाक ही नहीं, देश के कानून तथा संविधान विरोधी कार्रवाई है। हरियाणा सरकार को क्या अधिकार है कि संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करके शांतिपूर्वक रोष करने जा रहे लोगों को अपनी सीमा पर दुश्मनों की भांति रोके? फिर वास्तविकता तो यह है कि इस समय विश्व भर में किसानों में रोष है कि उन्हें कृषि में घाटा पड़ रहा है। उनकी भूमि कार्पोरेट्स को दी जा रही है। अनेक यूरोपियन देशों के किसान भी अपने देशों की राजधानियों की ओर ट्रैक्टर मार्च करके रोष प्रक्ट कर रहे हैं, परन्तु कहीं से भी ऐसे सड़कें रोकने या पुलिस बलों के हमले के समाचार नहीं आए। हमारे देश की अदालतें भी कई बार कह चुकी हैं कि लोगों को अपने अधिकारों के लिए शांतिपूर्वक विरोध करने हेतु स्थान उपलब्ध करवाए जायें, न कि उन पर अत्याचार किया जाये। वैसे आज किसान नेता सरवण सिंह पंधेर ने बाकायदा प्रैस कन्फ्रैंस करके सेना द्वारा इस्तेमाल किये जाने वे हथियार दिखाए जो आम तौर पर पुलिस के पास हो ही नहीं सकते। इस प्रकार का व्यवहार अपने देश के शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने वाले लोगों से साथ करना किसी तरह भी उचित करार नहीं दिया जा सकता। हालांकि जिस प्रकार के हालात हैं, और जिस प्रकार के संघर्ष का मार्ग किसानों के शेष दोनों बड़े संगठनों ने भी अपनाया हुआ है, उसका आगामी लोकसभा चुनावों पर भी गहन प्रभाव पड़ सकता है। कुछ समय बाद चुनाव आचार संहिता भी लागू होने वाली है। इसलिए आधिक सम्भानवा है कि इन परिस्थितियों में आज शाम चंडीगढ़ में किसानों के साथ होने वाली बातचीत विफल नहीं होगी, अपितु आगे बढ़ेगी। सरकार कुछ मांगों को मान लेगी, कुछ समितियों में लम्बित कर देगी और विश्व व्यापार संगठन  छोड़ने जैसी मांगों मानने से इन्कार कर देगी, परन्तु सबसे आवश्यक एवं महत्वपूर्ण मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) को कानूनी बनाना है, परन्तु डा. स्वामीनाथन की रिपोर्ट के अनुसार फसलों के दाम निर्धारित करने तथा ऋण माफी की मांगें भी अहम हैं। परन्तु इस संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर एक ही नीति तथा एक जैसे दाम देने आसान बात नहीं होगी। जैसे सी+2 देखने के लिए पंजाब में तो ज़मीन का ठेका 50 से 90 हज़ार रुपये वार्षिक तक ही जाता है और कई प्रदेशों में यह अभी 15 से 30 हज़ार रुपये पर ही खड़ा है। फिर यह संघवाद तथा कृषि का मामला राज्यों के साथ भी जुड़ा है।
हम समझते हैं कि यदि इस ‘गैर-राजनीतिक’ संयुक्त किसान मोर्चा के साथ सरकार का समझौता हो जाये, तब भी शेष दोनों संगठनों द्वारा भी कई अन्य मांगें जो अभी शेष हैं, को लेकर संघर्ष जारी रखा जाएगा। यहां एक बात अवश्य स्पष्ट है कि इस मोर्चे के द्वारा संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतक) एक बार तो किसानों के दूसरे दोनों बड़े संगठनों को ठिब्बी लगाने तथा पहल लेने में सफल रहा है। उन पर हुए बल का इस्तेमाल तथा पंजाबियों में पैदा हुए उत्साह ने इनके विपरीत चलने वाले दूसरे दोनों संगठनों को मजबूर किया है कि वे इस मोर्चे के साथ हो रहे अन्याय के विरोध में बोलें ताकि उनका अपना कॉडर ही इस गैर-राजनीतिक संयुक्त किसान मोर्चा की ओर न चला जाए। बाकी हमारी हार्दिक दुआ है कि परमात्मा करे कि यह मामला शांतिपूर्वक निपट जाए, नहीं तो कई बार चिंगारी को ज्वाला बनते देर नहीं लगती। वैसे भाजपा ने इस मोर्चे को ‘आप’ तथा भगवंत मान के समर्थन तथा शह के आरोप तो लगाने शुरू कर भी दिये हैं। 
मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते,
है कोई ख्वाब की ताबीर बताने वाला। 
(अहमद फराज़)
अकाली-भाजपा-बसपा तथा लोकसभा चुनाव
हालांकि देश के गृह मंत्री अमित शाह आधिकारिक तौर पर कह चुके हैं कि भाजपा की अकाली दल के साथ लोकसभा चुनाव में समझौते की बातचीत किसी स्तर पर चल रही है, परन्तु दूसरी ओर अकाली दल के अध्यक्ष भी चाहे इससे इन्कार नहीं करते, परन्तु वह इसकी पुष्टि भी नहीं करते। इस बीच बसपा ने अकाली दल के साथ अपना समझौता एकतरफा तौर पर तोड़ दिया है। हालांकि बसपा ने समझौता तोड़ने का कारण अकाली दल द्वारा भाजपा से समझौता करने की कोशिशों को करार दिया है, परन्तु आंतरिक जानकारी के अनुसार बसपा इसलिए भी पीछे हटी है क्योंकि अकाली दल बसपा के लिए सिर्फ एक सीट ही छोड़ने को तैयार था जबकि बसपा पंजाब में तीन सीटें मांग  रही थी। दूसरा यह भी है कि कुछ अकाली नेता यह भी सोचते हैं कि बसपा का वोट बैंक अकाली दल के पक्ष में नहीं वोट देता, जहां बसपा का उम्मीदवार नहीं होता, वहां बसपा के वोट कांग्रेस या ‘आप’ की तरफ खिसक जाते हैं। इसलिए यदि बसपा पंजाब की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी तो वह जितने भी वोट लेगी, उसका नुकसान कांग्रेस या ‘आप’ को होगा। उल्लेखनीय है कि स्वर्गीय प्रकाश सिंह बादल हमेशा यह कोशिश करते रहे कि बसपा सभी सीटों पर लड़े और कांग्रेस को नुकसान पहुंचाए। हालांकि इस बीच यह चर्चा भी चल पड़ी है कि अकाली दल बसपा के कुछ बड़े नेताओं को तोड़ कर अपने चुनाव चिन्ह पर भी चुनाव लड़वा सकता है। इस बीच एक और चर्चा यह भी है कि यदि संयुक्त किसान मोर्चा तथा सरकार में समझौता हो जाता है तो कुछ किसान संगठन भाजपा को किसानों की हमदर्द पार्टी करार देंगे तो अकाली दल के लिए भाजपा के साथ पुन: समझौता करने का मार्ग भी आसान हो सकता है। इससे उसका अपना काडर भी अधिक नाराज़ नहीं होगा। 
सैकड़ों पर्दे उठा लाये थे हम बाज़ार से,
गुत्थियां कुछ और उलझीं और हैरानी हुईं। 
(आशुफ़्ता)
-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना
मो. 92168-60000