बर्फ की तरह पिघलती जा रही है कांग्रेस

आज जब मैं यह लेख लिखने बैठा हूँ तो मेरे मन में दुविधा है कि मैं किसान आंदोलन पर लिखूँ, सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनावी बांड्स को कूड़ेदान में फेंक देने पर लिखूँ, या कांग्रेस के सामने चल रहे अस्तित्व के संकट की चर्चा करूं?  मुझे लगता है कि इस समय किसान आंदोलन का यह दूसरा उभार दिल्ली की सीमाओं पर लगाये गये कंक्रीट और कंटीले तारों के बेरिकेडों की अभेद्यता के सामने मज़बूर हो चुका है। अगर किसान दिल्ली में नहीं घुस पाएंगे तो केन्द्र सरकार पर कोई दबाव पैदा नहीं होगा। इसलिए पूरी संभावना है कि वार्ता के तीसरे-चौथे दौरों के बाद कोई बीच का रास्त निकल आएगा, जिनके तहत किसानों की वापिसी हो जाएगी। हाँ, यह ज़रूर है कि हमें भविष्य में किसी और किसान आंदोलन को देखने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान सरकार (और इससे पहले की सरकार भी) अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के सरदारों के निर्देशों पर चलती है। वह न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देने की मांग कभी नहीं मानेगी। इसलिए किसानों को आंदोलन करते रहना पड़ेगा। 
मुझे यह भी लगता है कि चुनावी बांडों की स्कीन को ़गैर-संवैधानिक ठहराये जाने से एक बहस ज़रूर पैदा हुई है, लेकिन उससे केन्द्र सरकार पर कोई संकट नहीं आया है। वह ठंडे-ठंडे बैठी हुई है। यहां तक कि उसने इस फैसले की न्यायिक समीक्षा करने के लिए याचिका दायर करने से भी इंकार कर दिया है। दरअसल, अदालत में अब सरकार नहीं, 16 हज़ार करोड़ के चुनावी बांड ़खरीद कर उनमें से ज्यादातर भाजपा को भेंट कर देने वाले कारपोरेट सरबराहों के प्रतिनिधि अदालत में जाएंगे। वे अपील करेंगे कि जब पार्टियों को यह अनुदान दिया गया था तो शर्त यही थी कि दान-दाताओं के नाम नहीं बताए जाएंगे। इस शर्त का उल्लंघन करना दान-दाताओं से किये गये वायदे को तोड़ना है। इसके बाद अदालत इस अज़र्ी पर ़गौर करेगी। इसमें समय लग सकता है। वैसे भी अगर अदालत के आदेश के मुताब़िक 17 मार्च तक सभी कथित दान-दाताओं के नाम स्टेट बैंक से लेकर चुनाव आयोगा अपनी वेबसाइट पर डाल भी देता है, तो भी सरकार को कोई ़खास अंतर नहीं पड़ने वाला है। वज़ह साफ है। 
जो नाम आएंगे, उनमें ज्यादा संभावना यही है कि बेनाम कम्पनियों के हो सकते हैं। इन्हें ‘शैल कम्पनियों’ या खोखा कम्पनियों के नाम से भी जाना जाता है। काला धन इन्हीं कम्पनियों के ज़रिये सफेद किया जाता है। चुनावी बांड्स खरीदने और बांटने के लिए कोई ज़रूरी नहीं कि कारपोरेट पूंजी अपने सही नामों का इस्तेमाल करे। पाने वाली पार्टियों को पता ही होगा कि यह रकम दरअसल किसकी है। ऊपर से यह भी एक हकीकत है कि 16 हज़ार करोड़ की रकम में से कांग्रेस और सत्तारूढ़ क्षेत्रीय शक्तियों को भी 700-800 करोड़ की रकमें मिली हैं। यानी इस हमाम में सभी नंगे हैं। भाजपा कुछ ज्यादा नंगी है, पर नैतिक बल का दावा करने वाली पार्टियों का पूरी तरह से अभाव है समाजवादी पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा केवल यह कह सकते हैं कि उन्हें तो न के बराबर माल ही नसीब हुआ है। 
बहरहाल, अब मैं आता हूँ उस मसले पर जिसके विश्लेषण के लिए मैंने यह लेख लिखना शुरू किया था। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इस समय अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। हालात इतने गर्म हैं कि उसे धीरे-धीरे बर्फ की तरह पिघलता देखा जा सकता है। 
समीक्षकों का कहना है कि कांग्रेस कभी 10 साल तक सत्ता से बाहर नहीं रही। 70वें दशक में पहली बार सत्ता से बाहर होने के बाद वह ढाई साल के भीतर-भीतर वापिस आ गई थी। फिल 89 में सत्ता से वंचित होने के बाद 91 से 96 तक वह फिर सत्ता में रही। इसके बाद 2004 में वह फिर सत्ता में आई और दस साल तक बनी रही। लेकिन, सवाल यह है कि क्या 60 साल तक सत्ता में रहने वाली केवल 10 साल के भीतर ही इस दुर्गति तक पहुँचनी चाहिए? 
कांग्रेस की इस बुरी हालत के कई कारण हैं। भाजपा और संघ परिवार द्वारा राजनीतिक  विमर्श को पूरी तरह से बदल देना इसका एक प्रमुख कारण है। 60 के दशक से ही धीरे-धीरे विभिन्न समुदायों को एक-एक करके  कांग्रेस का साथ छोड़ते देखना भी इसका एक कारण है। क्षेत्रीय ताकतों के उदय के कारण कांग्रेस के प्रभाव-क्षेत्र का सिकुड़ते जाना इसका अन्य कारण है। लेकिन मैं समझता हूँ कि इनके साथ-साथ और इन सबसे ऊपर कांग्रेस के तेज़ प्रभाव का सबसे बड़ा कारण है नेतृत्व की कमज़ोरी और विफलता। दृष्टिहीनता, रणनीतिहीनता, नये तत्वों के समावेश में नाकामी, संगठन के कामकाज को गम्भीरता से न लेना, एक परिवार के सदस्यों की कथित प्रतिभा पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करना— ये हैं कुछ समस्याएं जिनका कांग्रेस सामना कर रही है। पार्टी के पास कोई भी दूरगामी नज़रिया नहीं है। सोनिया गांधी तो 2004 में पार्टी को ‘एकला चलो रे’ से निकाल कर गठजोड़ युग में ले जाकर अपनी नेतृत्व-क्षमता साबित कर चुकी हैं। लेकिन, उनकी दोनों संतानों ने बार-बार स्वयं को राजनीतिक क्षमता से वंचित साबित किया है। राहुल और प्रियंका के मुकाबले अगर तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, स्टालिन और जनगमोहन रेड्डी जैसे नेताओं को देखा जाए तो वे अधिक कुशल प्रतीत होते हैं। इसी तरह कांग्रेस में भी रेवंत रेड्डी जैसे युवा नेतृत्व का उभार हुआ है। लेकिन राहुल और प्रियंका के पल्ले केवल नाकामियां ही लगी हैं। 
यही कारण है कि पार्टी की राष्ट्रीय नीति केवल और केवल सूबेदारों द्वारा निर्देशित और नियंत्रित की जा रही है। विधानसभाओं के चुनावों में ऐसा लग रहा था कि पार्टी में एक नहीं बल्कि चार-चार आलाकमान कर रहे हों। राजस्थान में गहलोत, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में बघेल दिल्ली के आलाकमान से बेपरवाह होकर फैसले ले रहे थे। इस समय भी दिल्ली का हाई कमांड क्षेत्रीय नेतृत्व द्वारा पढ़ाई जाने वाली पट्टी पर भरोसा करके चल रहा है। बंगाल में केंद्रीय नेतृत्व ने अधीररंजन चौधरी के कहने पर फैसले लिए हैं। उत्तर प्रदेश में वह अजय राय और सलमान ़खुर्शीद के बीच कहीं फंसा हुआ है। दिल्ली में भी आला कमान अतीत में कई बार प्रादेशिक इकाई आग्रहों के सामने झुकता रहा है। जिन तीन राज्यों में पार्टी बुरी तरह से हारी थी, वहां भी अभी उसके द्वारा बैठाया गया नया नेतृत्व अपना सिक्का नहीं जमा पाया है। 
नये अध्यक्ष (जो अब इतने नये भी नहीं रहे) मल्लिकार्जुन खड़गे के आने से लगा था कि पार्टी में अब शिकायतें सुनी जाने लगेंगी। लेकिन खड़गे को खुले हाथ से काम नहीं करने दिया गया। ऐसा भी लगता है कि पार्टी के भीतर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के दो गुट काम करते हैं और दोनों के बीच तनाव भी है। पिछले दो साल में बहुत बड़े-बड़े पचास से ज्यादा नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है। इनमें से ज्यादातर भाजपा में गये हैं और वहां महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां संभाल रहे हैं। इनमें से कुछ मुख्यमंत्री हैं, कुछ केंद्रीय मंत्री, कुछ राज्यसभा सदस्य हैं और अन्य पदों पर हैं। जो काम उनसे कांग्रेस नहीं ले पाई, वह उनसे भाजपा ले रही है। कहना न होगा कि कांग्रेस अपनी ही नाकामियों के बोझ में दबी हुई है। उसका विकास अवरुद्ध हो चुका है। विस्तार होने के बजाय उसका आकार सिकुड़ रहा है। एक मुहावरे में कहें तो वह बर्फ की तरह पिघलती चली जा रही है। हमारे लोकतंत्र के लिए यह एक बुरी ़खबर है। कांग्रेस का घटता प्रभाव इस देश की राजनीति को एकध्रुवीय बनाने जा रहा है।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।