विपक्ष के पास विकल्प है क्या ?

अब कहीं जाकर विपक्ष की एकता के कुछ चिराग जलते नज़र आते हैं हालांकि यहां तक की यात्रा भी किसी तरह आसान नहीं रही है। विश्वास डगमगाते रहे हैं और भविष्य की आशंका डर दिखाती रहती है। सम्भावना बनी कि उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बंगाल, गुजरात, गोवा, असम, मेघालय, बिहार और महाराष्ट्र में पार्टियों के बीच सीटों का तालमेल बनता नज़र आने लगा। पिछले दो लोकसभा चुनावों में यदि भाजपा और विपक्ष की तुलना की जाये तो सूचकांक 2014 और 2019 में शून्य से बढ़ कर नहीं था। समय ही बतायेगा कि इस लड़खड़ाती समझौते की डगर कहां तक ले जाने वाली है? विपक्ष की एकता और संरचना जिस मज़बूत आधार पर खड़ी होनी चाहिए वह लड़खड़ाती रही है जिससे आशंकाएं जन्म लेती हैं और बुनियादी आधार खिसकने लगते हैं। क्या विपक्ष उस आश्वासन पर खरा उतर रहा है जो उसने  लगभग सवा साल पहले देश की जनता के सामने रखा था। राहुल गांधी अपनी पहली भारत जोड़ो यात्रा करते हुए बार-बार कहते नज़र आये थे कि हम विपक्ष के साथ मिलकर भाजपा को हराएंगे। नितीश कुमार का कहना था कि उनकी दिलचस्पी तो सिर्फ विपक्ष की एकता में है। विपक्ष ने एक तरह से अंक गणित तैयार किया है लेकिन जनता को प्रभावित करने के लिए उसके आधार ज्यादा स्पष्ट नहीं हुए। वह माहौल खड़ा करने में विपक्ष असमर्थ रहा है जिसकी बुनियाद पर सत्ता परिवर्तन का जज़्बा मतदाताओं के बीच रुपाकार पाता है। इस तरह से लगता है कि इस गठबंधन का आधार काफी कमज़ोर है क्योंकि लक्ष्य तो मतदाता को प्रभावित करने का ही होना चाहिए।
विपक्ष को इंडिया गठबंधन घोषित करने के बाद पहला काम न्यूनतम सांझा कार्यक्रम बनाने को अंजाम तक पहुंचाना चाहिए था। सोनिया गांधी ने तो मुद्दे बनाकर इसकी शुरुआत भी कर दी। इसके बाद विपक्ष की क्षेत्रीय ताकतों को अपने साथ स्थानीय मुद्दे जोड़ने का काम था जो समय रहते नहीं किया गया। राजनीति में आप समय बर्बाद नहीं कर सकते। शायद यह लगता रहा कि सीटों का तालमेल करके उसके फज़र् की इतिश्री हो जाएगी। यही वह वजह है कि विपक्ष के पास ऐसी कोई कहानी नहीं बन पाई जिसे देश की जनता सुनना पसंद करे। मोदी सरकार को परास्त करने का कार्य केवल उत्तेजक भाषण से नहीं होना था उनकी विफलताओं का सबूत पेश करना था जो अनेक कारणों से हो न पाया। जिसका साफ मतलब यह निकला कि इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार नामांकन भरने के बाद मतदाताओं के पास बेरोज़गारी, महंगाई, किसान आन्दोलन, मोदी-अडानी मित्रता, भारत-चीन सीमा विवाद तथा हिन्दुत्व और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दे लेकर जाएंगे ज़रूर लेकिन उनके पास देने के लिए कोई वैकल्पिक सन्देश नहीं होगा। सोचा वे यह तो बताएंगे कि सरकार बेरोज़गारों को नौकरी नहीं दे पा रही। बेरोज़गार लड़के-लड़कियां बेहद निराश हैं परन्तु उनके पास नौकरियां देने का कौन-सा विकल्प है वे यह नहीं बताएंगे कि किस तरह युवा वर्ग की निराशा को दूर किया जा सकता है वे यह भी नहीं बता पाएंगे कि धार्मिक उन्माद को नष्ट करने के लिए उनके पास कौन-सा उपाय है?
विपक्ष ने सीटों का तालमेल करते हुए यह ज़ाहिर कर दिया है कि वे कांग्रेस पर आंखें बंद करके विश्वास नहीं कर सकते। जब किसानों ने दिल्ली मार्च शुरू किया तो विपक्षी उसके बारे में बोलने लगे। जब लखनऊ में प्रश्न-पत्र लीक हुए तो वे रोज़गार पर बोलने लगे, उनके पास कोई आन्दोलन शुरू करने की चालाकी नहीं थी। मतदाताओं को आज तक यह पता नहीं कि अगर वे मोदी सरकार को हराने के बारे में सोचते हैं तो ऐसा कौन-सा कारनामा विपक्ष कर दिखायेगा जिससे उनका जीवन स्तर ऊंचा उठ सकेगा। उन्हें बेरोज़गारी या महंगाई से छुटकारा मिल सकेगा।