जीवन की भाग-दौड़ से युवाओं में बढ़ रही है बेचैनी

एक सर्वेक्षण के अनुसार युवा पीढ़ी में एक तरह का भय व्याप्त हो रहा है कि यदि उसका मनचाहा कार्य नहीं हुआ और वह भी जल्द से जल्द, तो मानो जीवन ही समाप्त हो जायेगा। ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ की सोच इस बुरी तरह से हावी होती जाती है। कोशिश यही रहती है कि एक झटके में सब कुछ पा लेना है, पता नहीं कल हो या न हो।
‘पैनिक दिवस’ पर मंथन
मार्च की 9 तारीख को ‘पैनिक दिवस’ मनाने की परम्परा इसलिए पड़ी कि लोग इस डर के कारण जीना ही भूलने लगे थे कि कहीं वे अपना लक्ष्य हासिल करने में चूक गये और वह भी दूसरों से पहले, तो जीवन ही समाप्त हो गया समझो। ऐसा कुछ है नहीं क्योंकि यह एक वास्तविकता है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक न कभी किसी को मिला है, न कभी मिलेगा।
अक्सर ऐसे व्यक्ति आस-पास मिल जाएंगे जो बदहवास होने की सीमा पार करते हुए हर समय हड़बड़ी में रहते हैं। उनके मन में खलबली सी मची रहती है कि जैसा उन्होंने सोचा है, वैसा नहीं हुआ तो वे कही के नहीं रहेंगे। इस प्रकार के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं जिनमें अचानक पसीना आने लगता है, सांस उखड़ने लगती है, धड़कन बढ़ती महसूस होती है, लगता है कि हार्ट अटैक जैसा कुछ हो रहा है। यह डर सताने लगता है कि जैसा सोचा है या जैसी योजना बनाई है, वैसे नहीं हुआ तो मानो दुनिया थम जाने वाली है। इसी कड़ी में उन्हें अपनी मौत तक का अंदेशा होने लगता है और वह जो नहीं हुआ, उसके घटित होने की कल्पना करने लगते हैं।
यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जो ‘पैनिक अटैक’ है और एक तरह का काल्पनिक वातावरण बनाने जैसा है जिसका कोई वजूद नहीं होता। मनोचिकित्सकों के अनुसार असल में हमारा मस्तिष्क का एक भाग ऐसी बातों या घटनाओं को लगातार बनाता रहता है जो मनुष्य की विभिन्न भावनाओं से जुड़ी होती हैं। इनमें दूसरों से ईर्ष्या, उनकी उन्नति देखकर उनसे चिढ़ पैदा होना, अकारण उन्हें अपना शत्रु समझने लगना जैसी बातें मन के इस भाग में जमा होती रहती हैं। दिमाग का दूसरा हिस्सा तर्क के आधार पर काम करता है, लेकिन पहले हिस्से में गैर-ज़रूरी सोच का इतना अधिक कचरा जमा हो चुका होता है कि वह जो है ही नहीं उसे असलियत समझने लगते हैं। स्वयं या परिवार के लोग दवाब में आकर या किसी अनहोनी की आशंका में डॉक्टर के पास चले जाते हैं। सभी तरह के टैस्ट होते हैं जो अक्सर बहुत महंगे होते हैं और जेब पर भारी पड़ते हैं।
इसे अगर सामान्य भाषा में कहा जाये तो यह एक तरह का केमिकल लोचा है जो हमारे दिमाग के एक हिस्से में होता रहता है और हावी इसलिए हो जाता है क्योंकि हम दूसरे हिस्से को दबा देते हैं जो तर्क के आधार पर काम करता है। इसका लाभ डॉक्टरों और अस्पतालों को होता है जो कुछ न होते हुए भी कुछ हो जाने का डर दिखाकर मनमानी फीस वसूलते हैं और लम्बे चौड़े बिल बनाने में सफल रहते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वास्तविक बीमारियां नहीं होतीं, जैसे कि हदय रोग, थायराइड या सांस संबंधित, लेकिन इनमें और तनाव या नकारात्मक सोच के कारण मन द्वारा बना ली गई व्याधियां जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता, परेशानी का कारण बन सकती हैं। यदि चिकित्सक लोभी नहीं है तो वह आसान उपाय जैसे गहरी सांस लेना, मन को साधने के तरीके और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए सूक्ष्म व्यायाम, साधारण यौगिक क्रियाएं, शांत रहने के लिए ध्यान या मैडिटेशन और अगर ज़रूरी हुआ तो विटामिन और तनाव से दूर रहने की साधारण दवाइयां दे देता है।
चिन्तन बनाम दहशत
आज के दौर में जब हर कोई भागदौड़ भरी ज़िंदगी जी रहा है, धन कमाने के लिए अपनी सेहत को दांव पर लगाने के लिए तैयार रहता है, समय पर भोजन करना तो दूर, आराम को हराम समझकर कोल्हू के बेल की तरह बस पिसते रहने को ही अपना भाग्य समझ लेता है, तब स्थिति चिंताजनक हो जाती है। जहां तक चिंता करने की बात है, यह कोई बुरी चीज़ नहीं है क्योंकि सभी सुख साधन से जीना चाहते हैं, परन्तु इसके लिए अपने मानसिक स्वास्थ्य और संतुलन की परवाह न करना अवश्य हानिकारक है। चिंता करने और पैनिक यानी बदहवास हो जाने में बुनियादी फर्क यह है कि एक से सही राह मिलती है और दूसरी स्थिति में आतंकित होने जैसे हालात बनते हैं।
भौतिकवादी युग में और बैंकिंग सुविधाओं ने रियायत और किश्तों पर सभी वस्तुएं उपलब्ध कराने की पेशकश व युवाओं को आवश्यक और अनावश्यक चीजें एकत्रित करने की होड़ असुरक्षित बनाने में कोई कसर नहीं रखती। यही कारण है कि युवाओं या अधेड़ लोगों में हार्ट अटैक होने की घटनाएं तज़ी से बढ़ रही हैं। कहावत भी है कि चादर से ज्यादा पांव पसार लिए तो बंटाधार होना ही है। यह डर भी कि मुझे कोई धोखा देगा या बेईमानी करेगा या सब दुकानदार लूटते है, बहुत ज्यादा मुनाफा कमाते हैं, अक्सर बेबुनियाद होता है।
असंतोष, निर्णय न ले पाना, बहुत अधिक सोच विचार, अकेले कहीं जाने से डरना, मन में यह बात बिठा लेना कि मुझसे कुछ ठीक नहीं होगा, गलत ही होना है या ज़रा-सी बात पर हताश हो जाना, तकिये से मुंह ढांपकर सिसकियां लेना, कुछ ऐसे शुरुआती लक्षण हैं जिन पर अगर ध्यान नहीं दिया तो स्थिति चिंताजनक हो सकती है। इसके लिए स्वयं अपनी चिकित्सा की जा सकती है। जब ऐसे विचार आने लगें तो परिवार, मित्रों या जो भी पसंद हो, जिसके साथ उठना बैठना अच्छा लगे, किसी जगह जाने की इच्छा हो तो यह सब कुछ करिए। 
बहुत से लोग गाड़ी में बैठते या चलाते हुए संगीत या गाने सुनते हैं, ज़ोर से हंसते या ठहाके लगाते हैं, अपने-आप से बात करते हैं, दुनिया में कुछ भी हो जाये, उन्हें फर्क नहीं पड़ता, मस्ती करने के मौके खोजते रहते हैं और ज़िंदगी को एक मज़े की तरह जीते हैं, अपने पास जो है,उसका भोग करते हैं, जो नहीं है उसे पाने के लिए विचलित नहीं होते। ऐसे लोगों को आतंकित होना, दहशत में रहना या हर समय अपने को परेशान समझना आता ही नहीं और वे मज़े से जीते हैं।
बढ़ती उम्र में ज़िंदा रहने का एहसास और चढ़ती उम्र में जीने की तमन्ना होना ज़रूरी है। इससे मानसिक विकारों को पैदा न होने देने की हिम्मत और शारीरिक समस्याओं को जीवन का एक व्यवहार मानने की कला उत्पन्न होती है जो किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होने देती। चिन्तनशील बनिये लेकिन तनाव और भय को पनपने मत दीजिए। सहज भाव रखना ही सर्वोत्तम है।