इस बार लोकसभा चुनाव में ‘धन खर्च ’ का बन सकता है रिकार्ड

भारत का चुनाव आयोग (ईसीआई) भले ही चुनाव प्रचार प्रथाओं, जो पिछले कुछ वर्षों में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया को तेजी से कथित तौर पर भ्रष्ट कर रहा है, को नियंत्रित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा हो, फिर भी सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के व्यवहार को प्रभावित करना या निर्देशित करना उसके लिए आसान नहीं है। 
पार्टियों और उनके उम्मीदवारों द्वारा प्रति लोकसभा निर्वोचन क्षेत्र की आधिकारिक खर्च सीमा 75 लाख से 90 लाख रुपये के बीच है। संघीय सरकार चुनाव कराने के लिए अनुमानित सकल व्यय का लगभग 10 प्रतिशत वहन करती है। आधिकारिक तौर पर इसने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए 38.70 अरब रुपये खर्च किये। शेष राशि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने खर्च की। हालांकिए कानूनी रूप से लेखा व्यय उम्मीदवारों और उनकी पार्टियों द्वारा खर्च की गई वास्तविक राशि का केवल एक अंश दर्शाता है। अनौपचारिक रूप से या वास्तविक स्थितियों में उम्मीदवार द्वारा खर्च किया गया धन आधिकारिक खर्च सीमा से 10 से 15 गुना या उससे भी अधिक हो सकता है। चुनाव आयोग इस बारे में कुछ नहीं कर सका।
चुनाव अभियान का खर्च उम्मीदवारों और नकद धन उत्पन्न करने की उनकी क्षमता के अनुसार अलग-अलग होता है। सत्ताधारी दल के उम्मीदवार आम तौर पर सरकारी ठेकों या खर्चों से अवैध रूप से अथित तौर पर एकत्र किये गये धन, सभी प्रकार के अवैध व्यवसायों, रिश्वत, नौकरियों के लिए नकद और हवाला लेन-देन आदि से सुसज्जित होते हैं। सरकारी सत्ता बरकरार रखने और अगले चुनाव होने तक अधिक पैसा कमाने के लिए चुनाव जीतने के लिए बेतहाशा खर्च किया जाता है। उनका मकसद किसी भी संभव तरीके से चुनाव जीतना है। वास्तविक मतदाताओं को वोट डालने से रोकने के लिए गलत मतदान और बाहुबलियों का इस्तेमाल असामान्य नहीं है, हालांकि असाधारण मामलों में समस्याग्रस्त बूथों पर दोबारा चुनाव होते हैं। दुर्भाग्य से चुनाव और नयी सरकार के गठन के बाद सीमित प्रशासनिक अधिकार और शक्ति के साथ चुनाव आयोग शायद ही कभी सत्तारूढ़ दल के विजयी उम्मीदवार को अयोग्य ठहरा सकता है।
फिर भी प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और राजस्व विभाग खुफिया निदेशालय सहित लगभग 20 केंद्रीय और राज्य एजेंसियों की संयुक्त सेवाओं का उपयोग करके चुनाव में अवैध धन के प्रभाव को रोकने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार की नवीनतम पहल सबसे अधिक स्वागत योग्य है। उन्होंने कहा कि निगरानी और जांच एजंसियों से अपेक्षा की जाती है कि वे हवाई अड्डों, हेलीपैडों और चार्टर्ड उड़ानों पर सामान की आवाजाही पर नज़र रखें। कानून-व्यवस्था की स्थिति कड़ी की जायेगी, हालांकि यह पूरी तरह से राज्यों की ज़िम्मेदारी है। हिंसा, घटिया रणनीति और प्रभाव का उपयोग बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बलों की तैनाती की योजना के बारे में राज्य पुलिस के नोडल अधिकारी को सभी राजनीतिक दलों को सूचित करना होगा। ये स्वतंत्र, निष्पक्ष और राजनीतिक उकसावे से मुक्त चुनाव सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग द्वारा निर्देशित कई अन्य कदमों में से कुछ हैं।
ऐसा नहीं है कि पहले के चुनावों में ऐसे कदम नहीं उठाये गये, लेकिन वे अपेक्षित परिणाम देने में विफल रहे। चुनाव अभियानों में नकदी बंडलों का उपयोग बड़े पैमाने पर बढ़ रहा है। राज्यों में सत्तारूढ़ दल और उनके उम्मीदवार हमेशा पुलिस और प्रशासन के समर्थन और सहयोग से पूरी कमान संभाले हुए हैं। अपने चुनाव अभियान को मजबूत करने के लिए उम्मीदवारों के पास अवैध धन का प्रवाह जारी है। ऐसा माना जाता है कि 543 सीटों के लिए आगामी लोकसभा चुनाव में प्रमुख राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों द्वारा रिकॉर्ड नकद व्यय देखा जायेगा, जो पिछले सभी रिकॉर्ड को तोड़ देगा। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक इस बार कुल खर्च 1.2 ट्रिलियन रुपये से ज्यादा हो सकता है, जो 2020 में अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के समय खर्च किये गये 14.4 बिलियन अमरीकी डॉलर से काफी अधिक हो सकता।
चुनावी बान्ड प्रणाली को खत्म करने से आगामी चुनाव में प्रचार खर्च पर कोई असर पड़ने की संभावना नहीं है, हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और राज्य स्तर पर तृणमूल कांग्रेस को थोड़ा झटका लग सकता है। 2017-18 से 2022-23 के बीच 12,008 करोड़ के चुनावी बांडों की बिक्री हुई जिसमें भाजपा को करीब 55 फीसदी या 6,564 करोड़ रुपये मिले। कांग्रेस को केवल 1,135 करोड़ रुपये मिले। दिलचस्प बात यह है कि राज्य स्तरीय पार्टी तृणमूल कांग्रेस को इसी अवधि के दौरान 1,096 करोड़ रुपये मिले, जो किसी क्षेत्रीय पार्टी द्वारा प्राप्त सबसे बड़ी राशि है। 
माना जाता है कि चुनावी बान्ड प्रणाली खत्म होने के बावजूद राजनीतिक दलों ने आगामी चुनाव अभियान में खर्च करने के लिए बड़ी मात्रा में नकद धन इकट्ठा कर लिया है। राज्यों में सत्तारूढ़ दलों सहित अधिकांश दलों ने बहु-स्तरीय चुनाव अभियान एजेंडे तैयार किये हैं। उदाहरण के लिए एक राज्य स्तरीय सत्ताधारी पार्टी के नेता ने घोषणा की है कि वह अपने राज्य भर में 1,00,000 दर्शकों के लक्ष्य के साथ 100 बैठकें आयोजित करेगा। कुछ ही लोग ऐसी विशाल सभाओं के आयोजन के संभावित खर्च का अनुमान लगा सकते हैं, जिसमें दूरवर्ता के गांवों से प्रत्येक आयोजन स्थल तक प्रतिभागियों की यात्रा उनके रात्रि प्रवासए खाद्य आपूर्ति और नकद उपहार की लागत शामिल है।
फरवरी के बाद से सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के नेता नयी परियोजनाओं की घोषणा करने शिलान्यास करने और योजनाओं का उद्घाटन करने की होड़ में लगे हुए हैं। पिछले महीने से विभिन्न आकृतियों और आकारों की हजारों परियोजनाओं की घोषणा की गयी है। लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों से पहले सत्ताधारी दलों द्वारा विकास, रोज़गार सृजन और नये अवसरों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से मतदाताओं को प्रभावित करना एक नियमित अभ्यास है। इनमें से अधिकांश परियोजनाएं शायद ही धरातल पर आती हैं। सरकारी सेवकों के लिए वेतन वृद्धि के रूप में अतिरिक्त नकद सहायता की घोषणा की जा रही है। चुनाव आयोग इस तरह के चुनाव पूर्व राजनीतिक झांसे और खैरात को रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकता है।
सरकार और चुनाव आयोग असहमत हो सकते हैं, परन्तु यह सच है कि भ्रष्ट चुनाव प्रणाली कुछ राजनीतिक दलों को भ्रष्टाचार को और अधिक संस्थागत बनाने के लिए कई कार्यकालों तक सत्ता में बने रहने में मदद कर रही है। तंत्र लगातार जटिल और बोझिल होता जा रहा हैए जो भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली की सफलता के लिए एक बड़ी चुनौती है। जैसा कि पूर्व मुख्य चुनाव अधिकारी एस. वाई. कुरैशी का मानना है कि राजनीतिक दलों द्वारा असीमित चुनाव खर्च के कारण चुनाव की ‘शुद्धता’ खतरे में है। चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाले गैर-सत्तारूढ़ दलों के लिए कोई समान अवसर नहीं है। (संवाद)