चुनाव फंड में पारदर्शिता का अमल

देश में चुनावों के दौरान अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की ओर से चुनाव जीतने के लिए प्रत्येक स्तर पर पैसों के दुरुपयोग को लेकर अकसर चर्चा होती रहती है। 1951-52 में देश में लोकसभा के लिए हुए पहले आम चुनावों में भी चुनाव मैदान में उतरी पार्टियों द्वारा खर्च तो किया गया था, लेकिन यह नाम-मात्र ही था। कुछ दशकों तक यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा, लेकिन इसके बाद पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा न सिर्फ अधिक से अधिक पैसा खर्च किए जाने लगा, बल्कि चुनावों में धौंस और धक्के का दखल भी बहुत बढ़ गया। समय-समय पर भारतीय चुनाव आयोग द्वारा चुनावों को पारदर्शी बनाने के लिए यत्न अवश्य किए जाते रहे, जो कुछ हद तक सफल भी हुए।
आज चाहे चुनाव करवाने के इस बड़े और विशाल प्रबंध में त्रुटियां देखने को मिलती हैं और चुनाव कमिशन पर भी कई तरह की उंगलियां उठाई जाती रही हैं लेकिन नि:संदेह चुनाव आयोग ने विश्व के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में चुनाव करवाने के लिए प्रबंध में अच्छे सुधार किए हैं, परन्तु अभी भी इस संबंधी व्यवस्था को पारदर्शी और साफ-सुथरा बनाने के लिए बड़े यत्नों की ज़रूरत प्रतीत होती है। अभी भी चुनावों के दौरान अनेक तरह के डाले जाते दबाव सामने आते हैं। दशकों से चुनावों के दौरान बड़े स्तर पर काले धन का भी प्रयोग होता रहा है, जिस पर अब तक भी प्रभावशाली ढंग के साथ काबू नहीं पाया जा सका। चाहे चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव आयोग द्वारा अपनी जायदाद का पूरा विवरण और आय के साधनों के बारे में विस्तार में बताया जाना ज़रूरी बनाया गया है लेकिन इस अमल में होने वाले अथाह पैसे के इस्तेमाल पर पूरी तरह अभी तक नियंत्रण नहीं पाया जा सका। 
वर्ष 2018 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेतली ने राजनीतिक पार्टियों के लिए व्यापारियों, उद्योगपतियों तथा आम लोगों से चुनाव फंड प्राप्त करने की व्यवस्था हेतु चुनावी बॉण्ड संबंधी कानून को क्रियात्मक रूप दिया था, जिसके अनुसार एक निश्चित समय में बड़ी कम्पनियां, पूंजीपति तथा आम लोग अपनी पसंदीदा पार्टी को चंदा दे सकते थे। इस योजना के तहत किसी भी राजनीतिक पार्टी को फंड देने के लिए संबंधित व्यक्ति या कम्पनी को भारतीय स्टेट बैंक की इस कार्य के लिए निर्धारित शाखाओं से पैसे देकर बैंक बॉण्ड खरीदने पड़ते थे और आगे वे जिस पार्टी को चाहे, उसे वे बैंक बॉण्ड दे सकते थे। इस प्रक्रिया में बैंक बॉण्ड खरीदने वालों तथा जिस पार्टी को बैंक बॉण्ड दिये जाते थे, दोनों के नाम गुप्त रहते थे, परन्तु चुनावी बॉण्ड में धांधलियों की सूचनाओं को लेकर समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई याचिकाओं के दृष्टिगत सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों इस व्यवस्था को रद्द कर दिया तथा भारतीय स्टेट बैंक को अप्रैल 2019 से फरवरी, 2024 तक इस पूरी प्रक्रिया का विवरण देने का निर्देश दिया था। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा पहले यह पूरी जानकारी जून तक लटकाने की कोशिश की गई, परन्तु इससे सर्वोच्च अदालत संतुष्ट न हुई, तो बैंक की ओर से कुछ अतिरिक्त जानकारी दी गई, परन्तु फिर भी बैंक बॉण्डों का कोड नम्बरों सहित पूरा विवरण न देने के लिए बैंक को पुन: प्रताड़ना भी की गई और अब 21 मार्च शाम 5 बजे तक यह पूरा विवरण देने का फिर आदेश दिया गया है। 
अब तक जो कुछ भी सामने आया है और पार्टियों को फंड देने संबंधी जो विवरण नशर हुआ है, उससे यह प्रभाव अवश्य बनता है कि केन्द्र में या राज्यों में आम तौर पर अधिक पैसा सत्तारूढ़ पार्टियों को ही दिया गया है, जो समय-समय पर प्रशासन चला रही थीं। भाजपा को दूसरी पार्टियों के मुकाबले सबसे अधिक पैसे मिले हैं। याचिकाकर्ताओं द्वारा इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा था कि इस योजना के तहत स्पष्ट रूप में बड़ी कम्पनियों तथा उद्योगपतियों से सत्तारूढ़ दल की ओर से पैसे की उगाही करने के लिए दबाव की नीति अपनाई जा रही है अथवा उद्योगपतियों और पूंजीपतियों की ओर से सरकारों से ठेके एवं अन्य रियायतें लेने के लिए चुनाव फण्ड के नाम पर पैसे दिये जा रहे हैं। इसके दृष्टिगत ही ऐसी व्यवस्था की बड़ी आलोचना भी शुरू हो गई थी, जिसे देखते हुए पार्टियों को दिये जाने वाले चुनावी फंड की व्यवस्था को अधिक तर्कसंगत बनाया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। इस प्रक्रिया में सभी पक्षों की शमूलियत होनी चाहिए। यदि प्रत्येक पक्ष से विचार करके पारदर्शी ढंग से कोई नई व्यवस्था तैयार की जाती है तो उससे सही ढंग से चुनावों के लिए फंड जुटाने की व्यवस्था भी हो सकेगी और इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी और मज़बूत किया जा सकेगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द