कूड़ा संस्कृति का स्वागत

ज़माना काम का नहीं प्रेरणा देने का है, बन्धु! सबसे उत्तम शिक्षाप्रद वक्तव्य वही हो गया है, जो पुराने आदर्शों को पुन: ज़िन्दा करने का ढिंढोरा न पीटे, बल्कि चट मंगनी पट ब्याह जैसे, मेहनत के स्थान पर केवल अपनी ज़ुबान के दम से सफल होने के नये गुर सिखा दे। नव सांस्कृतिक निरुपण हो रहा है, जो भौतिक मूल्यों की जय-जयकार के साथ अपने बदल जाने की दौड़ लगा रहा है।
पहले कहा जाता था, ‘हथेली पर सरसों नहीं जमती।’ आज सफल लोगों की कतार में वही लोग आगे-आगे चलते हैं, जिन्होंने जुम्मा-जुम्मा आठ दिन में अपनी हथेलियों पर सरसों जमा कर दिखा दी है। इसका रास्ता सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कायाकल्प के लिए बरसों के त्याग, बलिदान और मेहनत के कंटकपूर्ण रास्ते से होकर कर नहीं जाता। इसे कभी जन-सेवा कहा जाता था। अब इसके मार्ग दर्शन के लिए एक बड़े लुभावने शीर्षक का आविर्भाव हुआ है, इसे जन-कल्याण कहा जाता है। जन-कल्याण का अर्थ है, अगर आप नेतागिरी चाहते हैं, तो लोगों को चांद लाकर देने के वायदे कर देने में निपुण हो जाइए। यह चांद, विकास का अर्थ आपके खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये आ जाने से लेकर हज़ार पन्द्रह सौ रुपये के मुफ्त बंटवारे से हो सकता है। सपने वे देखो जो कभी पूरे न हों, यह नया सूत्र है।
ऐसे सपने दिखाने वाले भाषण कला से लेकर हर दिन नई सफलता के दावे, और नयी योजना के प्रारम्भ की घोषणा करने में निपुण होते हैं। सफलता का दावा वह दूल्हा होगा, जिसके पीछे मिथ्या आंकड़ों की बारात सजी होती है और घोषणा वह जो वायवीय होने के बावजूद आपके लिये नये युग की शुरुआत का आभास बन सके। आजकल आभास शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि इन्टरनेट की तरक्की और डिजिटल हो जाने के साथ आजकल हम आभासी दुनिया में जीने लगे हैं। हां, बन्धु, आभास ही तो महत्त्वपूर्ण है, जो सोशल मीडिया के शीर्षकों में से पैदा होता है। एक बहुत मशहूर कहानी याद आ रही है जो अदब निगार मियां मण्टो ने अपने फौत हो जाने से पहले लिखी थी। कहानी का संक्षेप हाज़िर है। भूल चूक माफ। कभी एक कोचवान को लगा, ज़माना बदल गया है। नये कानून आ गये हैं। अब किसी शोषित से अन्याय नहीं होगा। समाज के बेपरवाह तेवर का सफाया हो जाएगा। वह अपना तांगा घोड़ा चमका कर तन कर नये युग की तलाश में निकला। रास्ते में चौक के मसीहा ने घेर लिया, ‘मेरी उगाही दो।’  कोचवान तन कर बोला, ‘अब कैसी उगाही, और कैसी तेरी धौंस।’ जवाब में मसीहा खिलखिलाया, ‘साले युग वही रहते हैं, केवल उनकी कलई बदल जाती है। कैसा नया कानून। दो साले को अन्दर इसके तांगे समेत। अपने आप नये कानूनों की पुरानी तासीर समझ जाएगा।’जी हां, घोषणाएं बदल जाती हैं, तासीर वही पुरानी रहती है। पहली तासीर यह कि आपके लिए नई परियोजनाओं की घोषणा होती रहनी चाहिए, और अकल्पनीय कारणों की वजह से उनकी तासीर वही पुरानी अर्थात उनके अधूरा रह जाने का भाग्य।
ये अधूरी परियोजनाएं बहुत लाभदायक होती हैं, बन्धु! आम आदमी को निरन्तर काम करते रहने की प्रेरणा देती हैं, और यह आशीर्वचन याद रखने की भी कि ‘हे मानव, काम करना तेरे बस में है लेकिन इसका फल प्राप्त करने की इच्छा न करना। क्योंकि फल देने वाला ऊपर रहता है। जी नहीं, आसमान के ऊपर नहीं। वह महामना, जो कल आपकी तरह फुटपाथ का वासी था, आज शार्टकट संस्कृति के बल पर ऊंची अटारी वाला बन गया। जन-सेवक नहीं, जन-कल्याणकारी बन गया, और आज अपने हर चुनाव से पहले आपके लिए रेवड़ियां बांटने के एजेंडे प्रसारित कर रहा है। इसे अनुकम्पा संस्कृति का नाम दिया गया है, और यह हमारी सांस्कृतिक विरासत अर्थात ‘दया-धर्म का मूल है,’ के सूत्र वाक्य से पैदा हुआ है। यह दया किस आर्थिकता के बल पर की जाएगी, यह प्रश्न किसी चुके हुए आर्थिक विशारद की तरह न पूछना। मिज़र्ा ़गालिब ने तो कज़र् की मय पी पी कर अमर साहित्य की रचना की थी, हम क्या कज़र् के बल पर नई उदार घोषणाओं का वातावरण भी पैदा नहीं कर सकते?
-कर सकते हैं हुजूर, क्यों नहीं कर सकते। घोषणाएं ही नहीं, गारंटियों का वातावरण पैदा कीजिये। गारण्टी दे दीजिये कि अब किसी को भूख से मरने नहीं दिया जाएगा, लेकिन काम के लिए छटपटाती युवा शक्ति के लिए काम की गारण्टी न दे देना। योग्य के लिए काम की गारण्टी दे दोगे, तो हमारे अयोग्य भाई-भतीजे हमारे बाद हमारी कुर्सियां कैसा सम्भालेंगे।
जी हां, कुर्सियां विरासती हो गई हैं। इन्होंने कर्म संस्कृति को तलाक देकर उत्सव संस्कृति को जन्म दे दिया है। उसी उत्सव संस्कृति को जिसमें सफलता की आभासी दुनिया पैदा करके जश्न मनाया जाता है। वही जश्न जिसमें अभिनन्दन पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता है और विकास ज़िन्दाबाद के पंखों पर तैरता है, कतार के आखिरी आदमी के तौर पर खड़े रह कर थक जाने के बाद अपने कूड़ा हो जाने को स्वीकारता है, नाबदान हो जाना स्वीकारता है, लेकिन एक दिन यह सब नहीं चलेगा, जनाब, ऐसे वायदों की भी आजकल कमी नहीं है।