क्या निकट भविष्य में अकाली-भाजपा समझौता सम्भव है ?

जादू सा कोई तलिस्म है उसकी ज़ुबान,
वो सच्च भी कहे तो सौ बार सोचना। 
-लाल फिरोज़पुरी 
भारत के गृह मंत्री तथा भाजपा के दूसरे सबसे बड़े नेता अमित शाह ने एक बार फिर यह बयान दिया है कि अकाली-भाजपा गठबंधन के लिए बातचीत चल रही है और स्थिति अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगी। अमित शाह ने यह बयान दूसरी बार दिया है। हमारी जानकारी के अनुसार अभी तक भाजपा ने औपचारिक रूप में अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल से कोई बातचीत नहीं की। विशेषकर अमित शाह या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्तर पर सुखबीर सिंह बादल की समझौते बारे कोई बातचीत नहीं हुई। हां, इस समझौते को सफल बनाने के लिए पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह अवश्य भरसक प्रयास कर रहे हैं और पंजाब भाजपा अध्यक्ष सुनील जाखड़ स्पष्ट रूप में इस समझौते के समर्थक हैं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यह इच्छा भी स्पष्ट है कि वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के पुराने साथियों को वापस राजग में देखना चाहते हैं। हालांकि ऐसे समाचार कई बार सुनने को मिलते हैं कि अमित शाह अकाली दल से समझौता करने के पक्ष में नहीं हैं। फिर ऐसी स्थिति में अमित शाह जैसे बड़े नेता के बयान के अर्थ क्या हैं, समझने की कोशिश करना आवश्यक है, क्योंकि यह समझौता होना या न होना पंजाब की राजनीति को बहुत प्रभावित करेगा। 
क्या वास्तव में ही अकाली-भाजपा समझौता हो रहा है? हमारी समझ तथा जानकारी के अनुसार समझौता इतनी जल्दी होने की कोई सम्भावना नहीं है। अमित शाह राजनीति की शतरंज के माहिर खिलाड़ी ही नहीं, अपितु चैम्पियन हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह बयान देकर उन्होंने एक तीर से कई शिकार किये हैं। एक ओर तो वह प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुसार बोल रहे हैं। दूसरी ओर पंजाब भाजपा के भीतर की मज़बूत लॉबी जो हर हाल में समझौता चाहती है, को संतुष्ट भी कर गये हैं और तीसरी ओर उन्होंने गेंद को अकाली दल के पाले में डाल दिया है। 
ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में अमित शाह अकाली दल से समझौता तो नहीं करना चाहते, परन्तु समझौता न होने की पूरी ज़िम्मेदारी भी वह अकाली दल पर ही डालना चाहते हैं कि हम तो समझौता करना चाहते थे, परन्तु अकाली दल ने नहीं किया। एक ताज़ा उदाहरण सामने है कि हरियाणा में सुबह जजपा प्रमुख दुष्यंत चौटाला के साथ हरियाणा में लोकसभा सीटों के बंटवारे बारे बातचीत की जाती है, जब वह दो सीटों की मांग करते हैं तो विचार करने की बात कह कर भेज दिया जाता है और शाम को जजपा के साथ समझौता समाप्त करके उसे राजसत्ता से बाहर भी कर दिया जाता है और प्रचार भी यही होता है कि भाजपा नहीं, ‘जजपा’ समझौता टूटने का कारण बनी है ।
यह ठीक है कि पंजाब में समझौते के पक्ष में एक स्टैंड लेने वाले नेता विशेषकर कैप्टन अमरेन्द्र सिंह तथा सुनील जाखड़ यह समझते हैं कि अकाली दल के साथ समझौता किये बिना लोकसभा चुनाव में जीत कठिन है, विशेषकर पटियाला सीट जीतने के लिए अकाली दल से समझौता ज़रूरी है। यदि यह समझौता हो जाता है तो त्रिकोणीय मुकाबलें में अकाली-भाजपा गठबंधन पूरी तरह बराबरी में आ जाएगा और बड़ी जीत भी प्राप्त कर सकता है जबकि पंजाब भाजपा के भीतर का एक पक्ष नहीं चाहता कि अकाली दल के साथ किसी भी कीमत पर समझौता किया जाए। यह पक्ष 2027 के विधानसभा चुनावों पर नज़र रखे हुये है और उनका प्रयास सीटें जीतना नहीं, अपितु पंजाब में अपनी जड़ें मज़बूत करना तथा मत प्रतिशत में अकाली दल से ऊपर रहना है। इसलिए भाजपा तथा आर.एस.एस. का प्रचार तंत्र इस समय गांवों के गरीब लोगों जिन्हें सरकारी सुविधाएं मिल रही हैं, को गांव-गांव जा कर यह समझाने में लगा हुआ है कि उन्हें मिलता मुफ्त राशन, स्वास्थ्य बीमा तथा अन्य कई सुविधाएं केन्द्र सरकार दे रही है, पंजाब सरकार नहीं। यदि ये सुविधाएं जारी रखनी हैं तथा और नई सुविधाएं भी चाहिएं तो भाजपा को जिताना अवश्यक है। हमारी जानकारी के अनुसार भाजपा तथा आर.एस.एस. का तंत्र यह बात समझाने में सफल भी हो रहा है। दूसरी ओर हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण तो हो ही रहा है। भाजपा की रणनीति बड़ी स्पष्ट है कि पंजाब में चुनाव अंतिम चरण में होंगे और तब तक भाजपा की पूरी की पूरी मशीनरी, सोशल मीडिया की ताकत तथा राष्ट्रीय एवं स्थानीय मीडिया  भाजपा के पक्ष में प्रचार की एक आंधी ला देगा। देश भर में भाजपा की सम्भावित जीत के ऐसे दृश्य का सृजन किया जाएगा कि लोग जीत रही पार्टी के पक्ष में हो जाएं। भाजपा यह समझती है कि इस रणनीति से वह अकेले भी एक से तीन सीटें जीतने के समर्थ हो सकती है। चुनावों के अंतिम दौर में जब भाजपा के लिए शेष देश में किसी प्रचार की कोई प्रभाव नहीं रहेगा, उस समय भाजपा नेता यह प्रचार करने में भी गुरेज़ नहीं करेंगे कि वे पंजाब तथा सिखों की ये-ये मांगें मानने के लिये तैयार हैं, और यदि अकाली दल के साथ भाजपा की शर्तों पर समझौता न हुआ तो यहे मांगें अब तक न माने जाने का ठीकरा भी अकाली दल, कांग्रेस तथा ‘आप’ के सिर पर फोड़ कर भाजपा को सिखों तथा पंजाब की बड़ी समर्थक पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश करेगी। नई सरकार आने पर किसानों की कई मांगें मानने की घोषणा भी की जा सकती है। 
अकाली दल की स्थिति
इसमें कोई संदेह नहीं कि सुखबीर सिंह बादल की योजनाबंदी से ‘पंजाब बचाओ यात्रा’ को आश्चर्यजनक समर्थन मिल रहा है। जितनी एकत्रता उनकी यात्रा में दिखाई देती है, यदि वह मतों में भी परिवर्तित हो गई तो अकाली दल अपने बूते पर भी कुछ सीटें जीतने के समर्थ हो सकता है, परन्तु जीत सिर्फ रैलियों, यात्राओं की एकत्रता के सिर पर ही नहीं होती।  उम्मीदवारों की अपनी छवि, खर्च करने की सामर्थ्य एवं हौसला, सोशल मीडिया तथा मीडिया मैनेजमैंट तथा अन्य बहुत-से कारण भी जीत-हार का कारण बनते हैं। जहां तक भाजपा से समझौते की बात है, अकाली दल में भी दो विचारधाराओं के लोग हैं, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार अकाली दल प्रमुख सुखबीर ंिसंह बादल इस बारे पूरी तरह स्पष्ट हैं कि हम समझौता करने से इन्कार नहीं करते, परन्तु भाजपा पहले अकालियों की कुछ धार्मिक, किसानी तथा पंजाब संबंधी मांगें मानने की घोषणा करे और दूसरा वह भाजपा को 6 सीटों की बजाय 4 सीटें ही देना चाहते हैं। इसलिए हम समझते हैं कि सुखबीर सिंह बादल को भी एहसास है कि ये चुनाव उन्हें पंजाब, किसानी, सिख मांगों तथा उनके राज्य में किये गये कार्यों तथा विकास को आधार बना कर अकेले ही लड़ने पड़ सकते हैं और वह इस चहु कोणीय मुकाबले के लिए तैयारी भी कर रहे हैं। उनकी ओर से ‘एक परिवार में एक टिकट’ देने की रणनीति भी लोगों में अपनी छवि ऊंची करने के लिए अपनाई जाएगी। हमारी जानकारी के अनुसार सुखबीर सिंह बादल स्वयं इस बार लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे, अपितु पूरे चुनाव अभियान का नेतृत्व स्वयं करेंगे। उनकी सबसे बड़ी कोशिश पंजाब कांग्रेस की सुस्ती तथा ‘आप’ के विरुद्ध बन रहे सत्ता विरोधी रुझान का लाभ उठाने की होगी। सुखबीर सिंह बादल को सलीम कौसर का यह शे’अर समर्पित है : 
मैं सर-ए-दसत-ए-व़फा अब हूं अकेला वरना,
मेरे हम-राह मेरे यार हुआ करते थे
सिद्धू पंजाब की राजनीति नहीं छोड़ रहे
नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा आई.पी.एल. में कमेंट्री करने को लेकर तरह-तरह की टिप्पणियां की जा रही हैं और यह प्रभाव बनाने की कोशिश की जा रही है, जैसे वह राजनीति ही छोड़ रहे हों। यह प्रचार तथा प्रभाव पूरी तरह गलत है। सिद्धू ने ‘अजीत समाचार’ के इस प्रतिनिधि से बात करते हुए स्पष्ट किया है कि राजनीति उनके लिये व्यापार नहीं, मिशन है। वह पंजाब के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। यदि ऐसा न होता तो मैं राज्यसभा क्यों छोड़ता? कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनने की पेशकश भी उन्होंने ठुकरा दी और लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए वह तैयार नहीं हुए, क्योंकि उनकी प्राथमिकता पंजाब है। रही बात उनकी पत्नी के लोकसभा चुनाव न लड़ने की, तो वह अभी अपनी कैंसर की बीमारी से लड़ रही हैं। उन्हें उपचार की आवश्यकता है। इस कारण वह चुनाव नहीं लड़ सकतीं। यदि वह कमेंटेटर के रूप में आई.पी.एल. में भाग ले रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? इस समय वह कांग्रेसी हैं, परन्तु उनके पास कोई ज़िम्मेदारी वाला पद नहीं है। वह तो मंत्री रहते हुए भी कपिल शर्मा शो करते रहे हैं। अब भी वह कमेंट्री करते हुए यदि पार्टी को उनकी ज़रूरत महसूस होगी तो वह पार्टी के प्रचार के लिए कमेंट्री की तिथियों से खाली तिथियों में चुनाव प्रचार कर सकते हैं। वैसे वह किसी टी.वी. शो में भी वापसी कर रहे हैं। उनका कहना है कि टी.वी. से उनकी कमाई 25 करोड़ रुपये वार्षिक थी, जो उन्होंने लम्बी अवधि से छोड़ी हुई है। हम समझते हैं कि काम करके कमाई करना अच्छी बात है, बुरी नहीं। जिस प्रकार उन्होंने कहा है, सम्भव है कि वह राजनीति में बने रहेंगे और उनका मुख्य लक्ष्य अब 2027 के विधानसभा चुनाव होंगे। 
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