खुशवंत सिंह यूं ही याद नहीं आते 

अंग्रेज़ी लेखकों की पहली कतार में शामिल अपने ही ढंग से बात कहने में माहिर सरदार खुशवंत सिंह सौ वर्ष जीना चाहते थे। इससे पहले कि शतक लगा पाते 20 मार्च,  2014 को वह दुनिया को अलविदा कह गये। लेखन हो या सरकार की नौकरी (डिप्लोमेट, योजना आयोग) या धन कुबेरों के प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र और पत्रिकाएं या फिर वकालत का व्यवसाय, ज़िन्दगी की ज़िन्दादिली को हमेशा कायम रखा, कभी कोई समझौता नहीं किया। हालांकि मालिकों को अन्नदाता कहते थे लेकिन वह उनके याचक बन कर नहीं रहे। बिना किसी प्रकार का मुलम्मा या आवरण के अपनी बात कह देते थे। पत्रकारिता करते समय विषय कोई भी हो, साफगोई की आदत ऐसी कि मिलने वाले हों अथवा पढ़ने वाले, कायल हो जाते, लेकिन आलोचना और वह भी कड़ी, ज़रूर करते। अगर यह तय कर लेते कि इस आदमी से न कभी मिलेंगे, न आगे इसे पढ़ेंगे तो इसका निर्वाह करना कठिन हो जाता और जैसे ही अगला कॉलम या सम्पादकीय आता, तो उसका रस लेने लगते। उसके बाद वही पहले वाली रट दोहराते कि अब और नहीं, पाठकों से यह रिश्ता बहुत कम लोगों को नसीब होता है, जो कभी टूटा नहीं। 
पहली मुलाकात 
लगभग चालीस साल पहले मन में आया कि एक ऐसी फीचर एजेंसी शुरू की जाये जो हिन्दी पाठकों को दूसरी भाषाओं के लेखक जो रच रहे हैं, उससे परिचित करा सके। उस समय खुशवंत सिंह के कॉलम की बहुत चर्चा थी, तो तय किया कि इसे भी हिन्दी में परोसा जाये। मुलाकात हुई और चर्चा चली तो उन्होंने पूछा कि शीर्षक क्या रखोगे, ‘न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’ सुनते ही स्वीकृति दे दी कि इससे बढ़िया नहीं हो सकता। इस तरह ‘विद् मैलिस’ का रूपांतर हो गया। 
खुशवंत सिंह के लिखे को हिन्दी में लिखना इतना आसान नहीं था, ठीक उसी तरह जैसे उनसे मिलना और उनकी वक्त की पाबंदी का पालन करना। 10-12 घंटों के आस-पास यह रूपांतर हो पाता क्योंकि अंग्रेज़ी शब्दों को हिन्दी में उनका अर्थ या भाव बदले बिना भाषा का सहज और सरल बने रहना ज़रूरी था। धीरे-धीरे यह होता गया और एक समय आया कि खुशवंत सिंह के लिए पंजाब के तत्कालीन मुख्य मंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने उन्हें पंजाब रत्न का पुरस्कार देते हुए कहा कि वह खुशवंत सिंह को पंजाब के एक हिन्दी समाचार पत्र से जानते हैं। इस तरह हिन्दी का वर्चस्व स्थापित होते देख आत्म संतोष तो हुआ ही, साथ में अन्य भाषाओं के लेखन से हिन्दी को मालामाल करने की इच्छा पूरी होती गई। 
मृत्यु केवल एक घटना 
मृत्यु को लेकर उनकी एक पुस्तक काफी चर्चित रही। विभिन्न लोगों के साथ अपनी यादें साझा की हैं। उनका कहना था कि मृत्यु केवल एक घटना है, इसके बाद का कोई अता पता नहीं तो उसका शोक क्यों मनाएं, क्यों न किसी प्रिय के जाने के बाद उसे उत्सव की तरह मनाया जाये, रोना-धोना किसलिए क्योंकि जाना तो तय है! 
खुशवंत सिंह ने बहुत-से खास और आम लोगों की मृत्यु पर अपने ही अंदाज़ में श्रद्धांजलि दी, जो उनका अपनी मौत को परे झटकने और उसका ख्याल मन में न आने देने का प़ैगाम है। अपनी आत्मकथा ‘सत्य, प्रेम और थोड़ी-सी शरारत’ अपने निधन से 20 वर्ष पहले लिखी और कुछ साल बाद उसमें संशोधन किया। यह न केवल उनके जीवन का लेखा-जोखा है, बल्कि तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक घटनाओं का सटीक विवरण है और भारत का इतिहास समझने के लिए ज़रूरी है।
उन्होंने दिल्ली को लेकर इसी शीर्षक से उपन्यास लिखा जो इस शहर की परतें खोलता हुआ अपनी मनोरंजक शैली में पाठकों को चलचित्र देखने जैसा अनुभव कराता है। ऐसा लगता है कि जो दृश्य शब्दों में कहा जा रहा है, वह सामने घटित हो रहा है। नवाबों की अय्याशी, नादिरशाह का ज़ुल्म और उसकी हवस मिटाने के लिए भेजी गई लड़की के मासूमियत भरे शब्द बेमिसाल हैं। एक किन्नर को सूत्रधार या मुख्य पात्र बना कर उपन्यास लिखना और वह भी बिना किसी लाग लपेट या भूमिका के, पाठकों को रोमांचित करता है, साथ ही एक पूरे समुदाय के प्रति लोगों का नज़रिया भी बदलता है। ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ ऐसी रचना है जिस पर बनी फिल्म विभाजन की त्रासदी का सजीव चित्रण करती है। यह लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है। 
यह एक वास्तविकता है कि खुशवंत सिंह के चाहे जितने भी निकट कोई व्यक्ति रहा हो, यहां तक कि उनके परिवार वाले भी, कोई कितना भी दावा कर ले कि वह उन्हें जान और समझ सका है, तो यह झूठी धारणा है। एक सरल, कल्पना की ऊंचाई तक ले जाने में सक्षम और फिर धरती पर उतार देने की कला में माहिर इस व्यक्ति के बारे में बहुत-से मिथक उनके जीवन में ही प्रचलित हो गये थे। 
हालांकि मेरा उनके परिवार का सदस्य होने जैसा रिश्ता बन गया था और अपने मन की बात कह सकने का साहस भी हो गया था, फिर भी खुशवंत सिंह एक अबूझ पहेली थे। शायद इसीलिए वे हमेशा क्रॉसवर्ड पज़ल सुलझाते मिल जाते थे। लिखने को स्क्रिबल करना कहते थे। उनका लिखा उनके सेक्रेटरी लक्षमण दास के अतिरिक्त कोई दूसरा पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। फिर भी उन्हें शौक था अपने हाथ से चिट्ठी लिख कर भेजने का, जो पाने वाले के लिए पढ़ना आसान नहीं होता था, लेकिन यह मज़ेदार कसरत होती थी। 
वह न तो अपने पर किसी का दवाब या ज़बरदस्ती सहते थे और न किसी दूसरे के साथ, जिसने अपने साथ हो रहे अन्याय से राहत पाने के लिए उनसे मदद की गुहार लगाई हो। व्यक्ति चाहे कितना भी ऊंचे पद पर हो, कितना ही नामी गिरामी हो, दौलतमंद हो, उसे आईना दिखाने में तनिक भी रियायत नहीं करते थे। कह सकते हैं कि जो आचरण अपनी कहानियों, उपन्यासों में अपने किरदारों से कराते थे, वही जीवन में भी निबाहते थे। उनके साहित्य में भी उनकी यही झलक मिलती है। यही कारण है कि उनकी कृतियां आज भी पठनीय हैं। 
खुशवंत सिंह की पुण्य तिथि पर कुछ स्मृतियां पाठकों को समर्पित हैं। लिखने की शैली और लेखक का व्यक्तित्व उसे पाठकों से जुड़ने में आसान बना देता हैए यही उसकी विशेषता है।