आर्थिक बर्बादी की ओर ले जा रही ‘रेवड़ी संस्कृति’

केरल ऐसा राज्य है जिसके पास सबसे ज्यादा शिक्षित लोग हैं, जिसके पास सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा आती है क्योंकि उसके सबसे ज्यादा लोग विदेशों में काम कर रहे हैं। केरल ऐसा राज्य है जो यह दावा करता है कि उसके पास देश में सबसे बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था है। वह ऐसा राज्य है जो प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत में उच्च श्रेणी में आता है। कितनी हैरानी की बात है कि यही राज्य खुद को दिवालिया घोषित करने पर उतारू है। केरल के लोगों की क्रय शक्ति भी बहुत ज्यादा है, इसके बावजूद यह नौबत आ गई है। इस केरल को ही आरबीआई ने सबसे ज्यादा आर्थिक आधार पर कुप्रबन्धित राज्य घोषित कर दिया है। केरल भारी वित्तीय संकट में फंस गया है और सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन-भत्ते और पेंशन देने के लिए पैसे नहीं हैं। इस संकट से निकलने के लिए केरल सरकार को सुप्रीम कोर्ट जान पड़ा। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई है कि केन्द्र सरकार द्वारा उसके लिए तय की गई कज़र् लेने की सीमा को बढ़ाया जाये और केन्द्र सरकार से उसे बेलआउट पैकेज दिलवाया जाये ताकि केरल की वित्तीय हालत सुधर सके। केन्द्र सरकार ने जवाब दिया है कि केरल की यह हालत उसके वित्तीय कुप्रबन्धन की वजह से हुई है। इसलिए वह इसमें कुछ नहीं कर सकती। माननीय अदालत ने केरल की गंभीर वित्तीय हालत को देखते हुए बेलआउट पैकेज देने पर विचार करने को कहा है। केन्द्र सरकार ने बेलआउट पैकेज देने की परम्परा को खत्म कर दिया है। केन्द्र सरकार का कहना है कि उसके लिए सभी राज्य एक समान हैं। अगर वह किसी भी राज्य को ऐसा बेलआउट पैकेज देती है तो सभी राज्य इसके लिए खड़े हो जायेंगे। केन्द्र सरकार ने केरल को 13608 करोड़ और कज़र् लेने की इजाज़त दे दी है लेकिन केरल सरकार के वकील कपिल सिब्बल का कहना है कि केन्द्र सरकार उन्हें 19000 करोड़ अतिरिक्त कर्ज लेने की इजाज़त नहीं दे रही है ।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट में कई महीनों से चल रहा है। केरल सरकार का कहना है कि उनके पास कर्मचारियों के वेतन-भत्ते और पेंशन, सामाजिक कल्याण के काम और अन्य ज़रूरी कामों के लिए भी पैसा नहीं बचा है। केरल के मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि उनके ऊपर कज़र् लेने की सीमा क्यों लाद दी गई है। राज्यों के द्वारा कज़र् लेने के मामले में केन्द्र सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। केन्द्र सरकार का कहना है कि राज्यों के कज़र् लेने की सीमा वह नहीं तय करती। कज़र् लेने की सीमा राज्यों की वित्तीय स्थिति को देखते हुए वित्त आयोग तय करता है। वह ऐसा इसलिए करता है ताकि कोई भी राज्य ज़रूरत से ज्यादा कज़र् लेकर अपनी अर्थ-व्यवस्था बर्बाद न कर सके। यह सही भी है क्योंकि अगर कोई राज्य दिवालिया होता है तो उसका असर देश की साख पर भी पड़ता है। 
अब सवाल उठता है कि केरल जैसा राज्य दिवालिया कैसे हो गया है? जिस राज्य के पास शिक्षित जनता है, विदेशों से पैसा आ रहा है, प्राकृतिक संसाधन हैं और हर प्रकार की क्षमता है। फिर उसकी ऐसी हालत क्यों हो गई है? केरल कभी गरीब राज्य भी नहीं रहा। हमेशा इसकी गिनती देश के अमीर राज्यों में होती रही है। कितनी अजीब बात है कि इस राज्य की हालत यह हो गई है कि इसकी सरकार सुप्रीम कोर्ट के सामने केन्द्र सरकार से पैसा दिलाने की गुहार लगानी पड़ी है। इसके लिए कौन दोषी है? इस पर विचार करने की ज़रूरत है। वास्तव में इसके लिए राज्य सरकारों की वोट बैंक नीतियां ज़िम्मेदार हैं। सिर्फ केरल ही नहीं, भारत के कई राज्य ‘रेवड़ी संस्कृति’ (मुफ्त की चीज़ें) के कारण आर्थिक बर्बादी की ओर बढ़ रहे हैं। सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दल बहुत ज्यादा गैर-ज़िम्मेदार हो गये हैं। उन्हें किसी भी हालत में सत्ता चाहिए, चाहे देश डूब जाये। राज्य सरकारें करदाताओं का पैसा दोनों हाथों से लुटा रही हैं। 
लोकसभा चुनाव की दहलीज पर यह सवाल बहुत गम्भीर हो गया है कि हम इन राजनीतिक दलों को देश को बर्बाद करने की छूट कैसे दे सकते हैं। ‘रेवड़ी संस्कृति’ का देश में प्रचलन बढ़ता जा रहा है। सभी पार्टियां सत्ता पाने के लिए बड़े-बड़े वायदे कर रही हैं। इन वादों के लिए पैसा कहां से आयेगा, किसी को नहीं पता। जनता भी मुफ्त की चीज़ों का लालच नहीं छोड़ पा रही है। आम आदमी पार्टी तो सिर्फ मुफ्त बिजली-पानी के वायदे पर ही दो राज्यों में सत्ता में आ गई है। इसलिए सारा दोष राजनीतिक दलों का नहीं कहा जा सकता है, बल्कि देश के मतदाता का भी है जो मुफ्त के लालच में आ जाता है। पंजाब और पश्चिम बंगाल को लेकर भी आरबीआई ने यह चेतावनी दे रखी है कि ये राज्य भी दिवालिया हो सकते हैं। इन राज्यों में भी ज़बरदस्त तरीके से वित्तीय कुप्रबन्धन चल रहा है। 
केरल के 2023-24 के बजट का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि केरल सरकार का कुल बजट दो लाख करोड़ का है, लेकिन केरल की वास्तविक आय सिर्फ एक लाख तीस हज़ार करोड़ ही है। मतलब साफ है कि केरल सरकार का सत्तर हज़ार करोड़ के घाटे का बजट है। केरल सरकार अपने राजस्व का 70 प्रतिशत भाग केवल कर्मचारियों के वेतन-भत्ते, पेंशन और ब्याज चुकाने पर खर्च कर देती है। इसके बावजूद केरल सरकार और कर्मचारियों की भर्ती की बात कर रही है और पुरानी पेंशन योजना लाने का वायदा कर रही है। जब सरकार के पास पैसा नहीं है तो वह इतना खर्च क्यों कर रही है? सरकार के पास विकास कार्यों के लिए पैसा ही नहीं है और अगर विकास कार्य नहीं होंगे तो केरल सरकार की आय कैसे बढ़ेगी?
दूसरी बात यह भी है कि केरल में वामपंथी और कांग्रेस की सरकारें रही हैं। बेशक सरकारें बदलती रहीं लेकिन नीतियां नहीं बदलीं। कांग्रेस की भी वही नीतियां रही जो वामपंथियों की थीं। इसके कारण केरल में उद्योग-धंधे पनप नहीं पाये। निजी कम्पनियों ने केरल छोड़ दिया और नई कम्पनियां आई नहीं। केरल की हालत दूसरे राज्यों के लिए एक सबक है कि अगर केरल जैसा अमीर राज्य गलत नीतियों की वजह से अर्थिक रूप से बर्बाद हो सकता है तो अन्य राज्यों का क्या होगा? ‘रेवड़ी संस्कृति’ देश को बर्बाद की ओर ले जा सकती है। (युवराज)