बच्चे ज़िद्दी क्यों बनते हैं ?

ज़िद्द, शरारत तथा नासमझी तो बचपन का पर्याय है परन्तु आज के मशीनी युग में हम बचपन की परिभाषा ही भूल चुके हैं। हम बच्चों को वैसा ही अनुशासित, शालीन एवं संतुलित देखना चाहते हैं जैसे हम स्वयं हैं। अपनी उम्र की नादानियों को भूलकर हम बच्चों में उम्र से अधिक योग्यता की अपेक्षा करते हैं। उनकी बाल सुलभ क्रिया को देखकर उन्हें फटकार देते हैं। बच्चों में अच्छी आदतें विकसित करना और उनको सुयोग्य बनाना हर मां-बाप का प्रथम कर्तव्य होता है परंतु वर्तमान युग में इसके लिए एक होड़-सी लगी हुई है। आज हर मां-बाप अपने बच्चों को आम बच्चा नहीं बल्कि बेस्ट प्रोडक्ट के रूप में देखना चाहते हैं। जिस प्रकार मॉडल किसी प्रोडक्ट का विज्ञापन करते हैं और बताते हैं कि फलां कम्पनी का साबुन, अमुक कम्पनी का तेल, अमुक कम्पनी की चाय सर्वोत्तम है, उसी प्रकार मां-बाप भी हर समय इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि वे अपने बच्चे को ऐसा बनाएं कि लोग कहें कि उनका बच्चा मोहल्ले का, स्कूल का, शहर का सबसे अच्छा बच्चा है।
आज के समय में मां-बाप की आदतें ऐसी बन गई हैं कि कहीं अपने बच्चे से अधिक किसी और के बच्चे की तारीफ हो गयी तो तुरंत स्वयमेव ही ईर्ष्या से फन उठ जाता है। प्रशंसा पाने की भूख आज अभिभावकों में इस कदर व्याप्त हो गयी है कि वे हर समय सतर्क और चौकन्ने रहते हैं कि उनका बच्चा प्रशंसकों की लिस्ट में सबसे ऊपर रहे। नतीजन होश संभालने से पूर्व ही बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाना शुरू हो जाता है।
इतनी जोर से मत हंसो, वहां मत घूमो, उसे मत छूओ आदि के जरिए बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है। ऐसे कैसे सो गए, इस प्रकार बैठने का कोई तरीका है क्या? सीधे बैठो आदि रोजमर्रा की जिंदगी में आज न जाने ऐसे कितने ही वाक्य सुनने को मिलते हैं जिनसे बच्चों को अनुशासन में रखने का प्रयत्न किया जाता है।  हर समय की निरर्थक टोका-टोकी से बच्चे परेशान हो जाते हैं। जिन बच्चों ने अभी ढंग से बोलना तक नहीं सीखा, उन्हें अनुशासन एवं सभ्यता के आचरण सिखाया जाना कहां तक उचित है?
बच्चे बेहद संवेदनशील होते हैं। उनकी स्वाभाविक एवं स्वतंत्र अभिव्यक्ति को जब कुंठित किया जाता है तो वे धीरे-धीरे चिड़चिड़े होकर खीझने लगते हैं। उनमें विरोधी भावनाएं तथा द्वेषबुद्धि घर कर जाती है और बच्चे जानबूझकर टाल-मटोल करने वाले, अनुशासनहीन तथा उच्छृंखल बनते चले जाते हैं। वे अपनी बातों को येन-केन-प्रकारेण मनवाने की कोशिश करने लगते हैं
कुण्ठित बच्चे कभी-कभी अपनी दबी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए गलत राह पर भी चल पड़ते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मां-बाप बच्चों को किसी बात पर टोकें नहीं, उन्हें सही-गलत का एहसास न कराएं परन्तु यहां यह समझना और याद रखना अत्यावश्यक है कि मां-बाप का हर सुझाव समयानुसार, बच्चों की योग्यतानुसार एवं हर आदेश निषेधात्मक न होकर रचनात्मक ही होना चाहिए।
’यह मत करो’ की जगह अगर बच्चों से प्यार से उस काम से होने वाले नुकसान के बारे में समझाया जाए तो बच्चा खुद-ब-खुद उस कार्य को नहीं करेगा। निषेधात्मक आदेश यह मत छुओ, वैसा मत करो, ऐसे मत बैठो इत्यादि बच्चों में आक्रोश भर देते हैं और उनमें वैसा ही करने की जिद समा जाती है। बच्चों के स्वास्थ्य विकास के लिए हमें अपनी इच्छाओं का दमन कर उनकी भावनाओं की कद्र करनी चाहिए।  जब तक हम बच्चों से उनके भावनात्मक स्तर पर जाकर नहीं मिलते, उन्हें नहीं समझते, हम उनकी परेशानियों को कैसे समझ सकेंगे। बच्चों में आदर्श का गुण भरने के पहले हमें स्वयं उनके समक्ष आदर्श बनना होगा, तभी बच्चों के बेहतर भविष्य की कल्पना की जा सकती है। (उर्वशी)