दुनिया में अब तक का सबसे महंगा होगा 2024 का लोकसभा चुनाव

आपने भारत के वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और इस साल की शुरुआत में उनके द्वारा पेश किये गये अंतरिम बजट के बारे में जो भी सोचा हो, एक बात आपको माननी ही होगी कि वह एक ईमानदार व्यक्ति हैं। भारत सरकार के लाखों करोड़ रुपये के खर्च की अध्यक्षता करने के बाद, भी वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि उनके पास संसदीय चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। दरअसल, भारतीय चुनाव बेहद महंगे हैं और यह आश्चर्य की बात है कि इतने सारे दावेदार इन्हें इतने भव्य तरीके से कैसे लड़ते हैं। चुनावी फंडिंग हमेशा से एक पेचीदा विषय रहा है और पिछले कुछ वर्षों में इसमें कई उतार-चढ़ाव आये हैं।
वास्तव में पैसा कहां से आयेगा? एक समय था जब कॉर्पोरेट योगदान कानूनी थे और कॉर्पोरेट्स से खुले तौर पर और कानूनी रूप से योगदान करने की उम्मीद की जाती थी, इंदिरा गांधी जैसे प्रधानमंत्री ने इसमें अंकुश लगाया था, जिन्होंने राजनीतिक दलों और चुनावों में कॉर्पोरेट योगदान पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बाद, उनके बेटे राजीव गांधी ने प्रतिबंध हटा दिया।
पारदर्शी चुनाव की खोज में अनगिनत प्रस्ताव रखे गये। शीर्ष पंक्ति में से एक चुनाव के लिए राज्य द्वारा वित्त पोषण था। राजनीतिक दलों द्वारा लूट-खसोट के लिए सरकारी वित्त के दुरुपयोग के डर से इसे तुरन्त स्वीकार नहीं किया गया। अब भी दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां ऐसी फंडिंग व्यवस्था के पक्ष में हैं।
दोनों वामपंथी दलों को छोड़कर, अधिकांश राजनीतिक दल राजनीतिक फंडिंग को लेकर परेशान रहते हैं क्योंकि वे चोरी-छिपे पैसा कमाने का रास्ता अपनाते हैं। भाजपा जहां एक ओर अवैध धन कमाने की अवधारणा पर हमला कर रही है, वहीं उसने अब असंवैधानिक घोषित चुनावी बांड स्वीकार कर लिया और हम चुनावी बांड के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, उससे तो बांड के माध्यम से चुनावी फंडिंग का रहस्य और भी गहरा हो गया है।
एक लॉटरीकिंग चुनावी बांड के दानकर्ताओं में सबसे आगे रहा। बांड से मिले धन किसे लाभ पहुंचाते हैं, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। लेकिन जाहिर है, लाभार्थियों से मेल खाने वाले योगदान कर्ताओं की स्मोकस्क्रीन के तहत, यह अनुमान लगाना अभी भी संभव है कि कौन किस पार्टी को योगदान दे रहा है। यह योगदानकर्ता के प्रमुख संचालन के क्षेत्रों और उस क्षेत्र में प्रमुख पार्टियों के बीच होना चाहिए।
इसका कारण यह है कि दक्षिण स्थित लॉटरीकिंग को अत्यधिक लोकप्रिय दक्षिणी पार्टियों में से कुछ को लाभ पहुंचाना चाहिए। पूर्व भारत में, बिजली वितरण कम्पनी, जो सिटी ऑफ जॉय अर्थात कोलकाता में एकाधिकार का आनंद ले रही थी, उसके वहां के ही राजनीति बॉस को खुश रखने की उम्मीद थी न कि सुदूर उत्तर प्रदेश या छत्तीसगढ़ में।
भाजपा के पास बड़ा चुनावी बांड का अधिक हिस्सा जाना कोई आखिरी आश्चर्य भी नहीं है लेकिन कुछ क्षेत्रीय सरदार भी काफी धन पा सके। एक उदाहरण के रूप में छोटे अंकगणित पर विचार करें। भाजपा को देश भर में अपने सहयोगियों के साथ 543 सीटें हासिल करनी हैं और 8250 करोड़ रुपये जुटाने हैं। इसलिए प्रति सीट चुनावी बांड के तहत संग्रह लगभग 16 करोड़ रुपये होगा। यदि यह माना जाये कि भाजपा लगभग 500 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और शेष सहयोगी दलों के लिए छोड़ देगी तो यह चुनावी बांड की कुल धनराशि उस वास्तविक राशि का एक छोटा सा हिस्सा है जो पार्टी वास्तव में अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए खर्च करेगी।
इसी तरह तृणमूल कांग्रेस ने 1600 करोड़ रुपये जुटाये हैं और उसे लगभग 42 सीटें, प्लस/माइनस कुछ और सीटें जीतनी हैं। इसलिए प्रतियोगिता के लिए प्रति सीट 38 करोड़ रुपये की सम्मानजनक राशि है, जो एक छोटी पार्टी के लिए बुरा नहीं है। व्यक्तिगत विवरण को छोड़ दें, जो कई लोगों के लिए बहुत सुखद नहीं हो सकता है, भारत में लोकतंत्र का नृत्य एक महंगा मामला है। पश्चिमी गोलार्ध के बाहर किसी भी चीज़ के प्रति अपने दंभपूर्ण रवैये के बावजूद, लंदन की द इकोनॉमिस्ट पत्रिका स्वीकार करती है कि चालू वर्ष का भारतीय आम चुनाव दुनिया का सबसे महंगा चुनाव हो सकता है। अविश्वसनीय रूप से, अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव से भी महंगा।
ब्लूमबर्ग के अनुमान के अनुसार 2019 में पिछले आम चुनाव में लगभग 8.6 बिलियन डॉलर खर्च होने का अनुमान है। मौजूदा चुनाव में लगभग 12 अरब डॉलर खर्च होने का अनुमान लगाया गया है। देश की 3.5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए इस आम चुनाव में खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.15 प्रतिशत ही होगा। एक छोटा अंश, अधिसंख्य लोग सोचेंगे। वास्तव में दो कारणों से ऐसा नहीं है। पहला, आम चुनाव हमेशा कीमतों को बढ़ाता है। चूंकि अधिकांश खर्च जमीनी स्तर पर होंगे और पैसा उन जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के हाथों में चला जाता है, जिससे उनके हाथ में थोड़े समय के भीतर काफी अधिक आय खर्च करने योग्य होता है। प्रतिशत के अलावा इस तरह के पैसे को अचानक सबसे निचले स्तर पर डालने से मांग में थोड़ा उछाल आता है। ऐसी स्थिति में जब कीमतें पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ रही हैं, मूल्य नियंत्रित करने वाले अभिभावकों को थोड़ा सतर्क ही रहना चाहिए। अधिक उदार मौद्रिक नीति की कोई भी आशा संदर्भ से थोड़ी हटकर होगी।
दूसरे अधिकांश खर्च नकद में होंगे। नतीजतन खर्च वह होगा जिसे मोटे तौर पर काला धन कहा जा सकता है। दान देने वाले और खर्च करने वाले सभी ऐसे खर्चों में आनंद लेंगे, जहां पैन नंबर जांच का पहला बिंदु नहीं होगा। काले धन के प्रचलन में बढ़ोतरी इसके निहितार्थ होंगे।
यह मानकर चला जा सकता है और मैं विश्वास करता हूं कि ‘काले धन को रोकने’ के लिए नोटबंदी का एक और दौर नीति-निर्माताओं के मन में नहीं होगा। (संवाद)