नये पुष्पक विमान से इसरो पहुंचा आकाश पर

भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने पुन: इस्तेमाल में आने वाले पुष्पक सैटेलाइट और स्पेसक्राफ्ट को अन्तरिक्ष के चक्कर लगाने के बाद सकुशल धरती पर उतार कर न केवल देश के अति अतीत काल के पुष्पक विमान की सत्यता को पुष्ट करने जैसा यत्न किया है, अपितु इसरो की उपलब्धियों में एक और मोर-पंख लगा दिया है। इस सम्पूर्ण सफलता में श्रेय का एक बड़ा पक्ष यह भी है कि इस री-यूज़ेबल लांच प्रक्रिया में प्रयुक्त सम्पूर्ण ऑटोनामस लैंडिंग क्षमता पूर्णतया स्वदेशी मूल की है। इस उपलब्धि के साथ भारत ऐसी क्षमता वाले विश्व के चार बड़े देशों में शुमार हो गया है। इससे पूर्व अमरीका, रूस और चीन इस क्षेत्र में अहम उपलब्धि हासिल कर चुके हैं। अब भारत ने चौथा देश बन कर यह श्रेय भी हासिल किया है कि उसने अन्तरिक्ष में स्थापना और भ्रमण के साथ, लैंडिंग के लिए सम्पूर्ण रूप से स्वदेशी तकनीक को प्रयुक्त किया है। 
इस सम्पूर्ण परियोजना में नेविगेशन, नियंत्रण प्रणाली, लैंडिंग गियर और अलग होने की प्रक्रिया में सम्पूर्ण तंत्र स्वदेशी धरातल पर तैयार हुआ है। इसरो ने इस स्पेसक्राफ्ट (विमान) को पुष्पक नाम देकर सम्भवत: यह दर्शाने की भी कोशिश की है कि आदि काल में भी भारत के पास विमान द्वारा अन्तरिक्ष अथवा आकाश में विचरण करने की क्षमता थी, और उस समय के विमान को भी पुष्पक कहा जाता था। इसीलिए इस आधुनिक और पहले अन्तरिक्ष लांच व्हीकल (विमान)को सम्भवत: पुष्पक नाम दिया गया है। पुष्पक इसलिए भी अमरीका और रूस से अधिक उन्नत एवं सटीक है कि इसके निर्माण में अन्य देशों के कार्यक्रमों में दिखाई दी त्रुटियों एवं कमियों को भरसक दूर करने की कोशिश की गई है। इस परियोजना में पिछले वर्ष के फ्लाइट सिस्टम के कई हिस्सों के पुन: प्रयोग से भी लागत में कमी लाई गई है।
इससे पहले यह होता था कि किसी उपग्रह को रॉकेट के ज़रिये अन्तरिक्ष कक्षा में स्थापित करके रॉकेट वापिस धरती पर लौटने की प्रक्रिया के दौरान समुद्र में गिर कर नष्ट हो जाते थे। इस कारण देशों खासकर भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान केन्द्र को वित्तीय धरातल पर भारी नुक्सान वहन करना पड़ता था। मौजूदा उपलब्धियों के बाद देश के अन्तरिक्ष अभियान अब काफी कम लागत वाले और किफायती हो जाएंगे। अमरीकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा ने 1980 के बाद से ऐसे 6 अन्तरिक्ष वाहन बनाये थे। रूस के पास भी इसी काल के आस-पास यह आविष्कार पहुंच गया था, किन्तु भारत ने बेशक देर बाद यह उपलब्धि हासिल की हो, किन्तु एक तो यह शेष तीनों देशों से किफायती सिद्ध हुई है, दूसरे इसकी तकनीक भी काफी उन्नत तैयार की गई है। नि:संदेह इस सब का श्रेय संयुक्त रूप से विक्रम साराभाई अन्तरिक्ष केन्द्र, तरल प्रणोदन प्रणाली केन्द्र और इसरो को जाता है, किन्तु इसरो इसलिए अहम हो जाता है कि उसने इस प्रक्रिया को बिना किसी त्रुटि के सम्पन्न करके एक नया इतिहास रचा है। इस परियोजना की सफलता हेतु भारतीय वायु सेना, विमानन विकास संस्थान आदि का योगदान भी कम नहीं रहा। नि:संदेह इसरो इस उपलब्धि के बाद अन्तरिक्ष अनुसंधान के आकाश तक पहुंच गया है।
भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम की शुरुआत आज से लगभग छह दशक पूर्व की गई थी, और इसरो की स्थापना भी पिछली सदी के छठे दशक के अन्तिम पक्ष में हुई थी। तब से लेकर इसरो निरन्तर विकास और उन्नति के पथ पर नये-नये आयाम स्थापित करता आ रहा है। यहां तक कि विदेशों की भांति भारत में भी अन्तरिक्ष अनुसंधान और पर्यटन हेतु अनेक निजी केन्द्रों की आहट सुनाई देने लगी है। अमरीका में एलन मस्क के प्रतिष्ठान ने वैश्विक धरातल पर अन्तरिक्ष अनुसंधान को एक व्यापक बाज़ार बनाने की ओर तो कदम बढ़ा ही दिया है। इसी तर्ज पर भारत आज न केवल स्वदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण में अग्रणी देश बना है, अपितु विदेशी उपग्रहों की स्थापना में भी इसने अनेक आयाम स्थापित किये हैं। भारतीय अन्तरिक्ष केन्द्र इसरो आज विदेशी कारोबार में भी अग्रणी होता जा रहा है। एलन मस्क की संस्था की भांति भारत में भी स्काईरूट एयरो स्पेस प्रा. लिमिटेड नाम से निजी अन्तरिक्ष यान केन्द्र बन गया है। चेन्नई में स्थित एक अन्य अन्तरिक्ष यान संस्था की ओर से इसरो के सहयोग से ‘अग्निबाण’ जैसे अन्तरिक्ष यानों की ओर कदम बढ़ाना भी भारत की अंतरिक्ष उपलब्धियों को ही दर्शाता है। हम समझते हैं कि नि:संदेह ‘पुष्पक’ जैसी उपलब्धि के बाद ‘अग्निबाण’ की पूर्णता को हासिल करना कोई अधिक कठिन प्रतीत नहीं होता। कल्पना की इस उड़ान की पूर्णता को हासिल कर लेने में इसरो अवश्य बहुत शीघ्र एक दिन कामयाब हो जाएगा।