अदालतों पर बढ़ता मुकद्दमों का बोझ

भारतीय अदालतों की निष्पक्षता और न्यायप्रियता आज भी पूर्णतया असंदिग्ध है, और कि अदालतों की कार्य-प्रणाली में न्यूनतम अवसर ही ऐसे आये हो सकते हैं जब किसी को कोई आपत्ति हुई हो, अथवा किसी ने किसी फैसले को लेकर उंगली उठाई हो। देश की अदालतों की विश्वसनीयता का आलम यह है कि किसी नागरिक को सरकार के किसी भी बड़े विभाग से न्याय न मिला हो, तो वह तत्काल रूप से यही कहता है—ठीक है, मैं अदालत में जाऊंगा, किन्तु इन्हीं अदालतों की रौशन पक्ष तस्वीर का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि ‘तारीख पर तारीख’ पड़ते जाने वाले दशकों पुराने जुमले पर आज तक विराम नहीं लगाया जा सका है। स्थिति यह हो गई है कि अदालतों में लम्बित पड़े मामलों के ढेर का भार और पहाड़ निरन्तर ऊंचा होता जा रहा है, और कि न्यायाधीश निरुपाय से ऐसा होते देखते रहने को विवश हो गये  प्रतीत होते हैं। अदालतों में मुकद्दमों के निपटारे के लम्बा खिंचते जाने के अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु इनमें जो प्रमुख रूप से सामने आते हैं, उनमें एक बड़ा कारण वकीलों द्वारा सही समय पर पेशी हेतु उपस्थित न होना, अथवा जानबूझ कर अदालतों से अनुपस्थित रहना भी होता है। इसका परिणाम यह निकला है कि आज देश की तमाम छोटी-बड़ी अदालतों में चिरकाल से लम्बित बड़े मामलों की संख्या 4 करोड़ 40 लाख से ऊपर हो गई है।
इस संबंध में केन्द्र सरकार के न्यायिक प्रक्रिया से सम्बद्ध एक विभाग द्वारा किये गये विश्लेषण के बाद जो रिपोर्ट सामने आई है, उससे खुलसा हुआ है कि मामलों के निरन्तर लम्बे होते जाने के कारणों में, न्याय प्रदान करने वाले कई पक्षों के ज़िम्मेदारीपूर्ण तरीके से काम न किया जाना भी प्रमुख होता है। अन्य अमलों में रिकार्ड का बार-बार गायब होना, दस्तावेज़ों का समय पर न पहुंचना, गवाहों की अधिकता, गवाहों को सीमित करने की कोई प्रक्रिया न होना और वकीलों द्वारा समय व्यतीत करने हेतु कई चरणों पर बार-बार स्थगन ले लेना आदि शुमार होते हैं। वकीलों का यूनियनवाद भी मामलों को लटकाने का कारण बनता है। कई मामलों में अपराधियों के भगौड़ा हो जाने और पुलिस तंत्र द्वारा भगौड़ों की पुन: गिरफ्तारी हेतु पूरी ईमानदारी के साथ काम न करना भी इस समस्या के लिए उत्तरदायी हो जाता है। फैसला होने की प्रक्रिया लम्बी होते जाने के कारण वादी पक्ष द्वारा आर्थिक तंगी में घिर जाने से भी वादों का पहाड़ ऊंचा होता है। अदालतों में न्यायाधीशों की कमी और अन्य सम्बद्ध अमले की अपूर्णता भी इस समस्या के निरन्तर गम्भीर होते जाने का कारण बनती है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 10 लाख वादियों ने अपने मामलों के एक दशक तक लटके रहने के कारण अदालतों में आना ही छोड़ दिया। इस सम्पूर्ण स्थिति का भयावह पक्ष यह भी है कि न्यायाधीशों की तमामतर ईमानदारी, प्रतिबद्धता और निष्ठा के बावजूद, प्रत्येक धरातल पर लम्बित मामलों की संख्या पिछले वर्षों की तुलना में निरन्तर बढ़ती जाती है।
नि:संदेह यह स्थिति देश की न्याय प्रणाली और न्यायिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। इस कारण न्यायिक धरातल पर तारीख पर तारीख वाला जुमला निरन्तर भारी होते चला जाता है। अधिकतर मामलों के दशकों तक लम्बा खिंचते जाने से वादी अथवा प्रतिवादी न्याय मिलने से पहले ही दुनिया से विदा हो जाते हैं। इस कारण आम आदमी की आस न्याय मिलने की प्रतीक्षा में टूट जाती है। इस कारण जहां न्याय न मिलना अन्याय की कक्षा में शुमार होने लगता है, वहीं इस कारण अनेक मामलों में वादी अथवा प्रतिवादी पक्ष अप्राकृतिक न्याय की ओर भी अग्रसर हो जाते हैं जिससे कई बार निजी शत्रुतापूर्ण अपराधों के बढ़ने की आशंका पैदा होने लगती है। हम समझते हैं कि इस समस्या के हल के लिए सर्व-प्रथम अदालतों के भीतर जजों और अन्य स्टाफ की कमी को यथा-सम्भव एवं यथा-शीघ्र पूर्ण किया जाना होगा। सबसे बड़ी बात यह भी कि वकीलों को मौजूदा से थोड़ी अतिरिक्त प्रतिबद्धता का परिचय देना होगा। नि:संदेह वकीलों को किसी भी अन्य कारोबार की भांति अपने व्यवसाय को प्रफुल्लित करने का अधिकार है, किन्तु वकीलों की इस रीति-नीति के कारण ही, न्याय हासिल करना आम आदमी के लिए निरन्तर महंगा और कठिन होता जा रहा है। इस कारण ही आम लोगों के मन में न्यायिक प्रक्रिया के प्रति निराशा पैदा होने लगती है। हम यह भी समझते हैं कि लोक-अदालतों की प्रक्रिया को अधिकाधिक अपना कर भी अदालतों के सिर पर भारी होती जाती लम्बित मामलों की गठरी को हल्का किया जा सकता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता होगी, और ऐसे प्रयास तत्काल रूप से किये जाने होंगे।