भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हो सकता है मतदाताओं का ध्रुवीकरण

आज की तारीख में स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी मेरठ की सभा में और कुछ अन्य मंचों पर स्पष्ट कर दिया है कि इस बार का लोकसभा चुनाव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही लड़ा जाएगा। ऐसा लगता है कि कर्नाटक के चुनाव के नतीजों का मोदी के मानस पर गहरा असर पड़ा है। पहली बार उस प्रदेश में भाजपा की कोई सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बुरी तरह से पराजित हुई थी। मोदी ने मंच से विपक्ष पर 80 प्रतिशत भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था। विपक्ष ने भाजपा पर ‘चालीस प्रतिशत सरकारा’ यानी चालीस प्रतिशत कमिशन खाने वाली सरकार चलाने का आरोप लगाया था। मतदाताओं ने विपक्ष की बातों पर भरोसा किया, मोदी की बातों पर नहीं। दूसरे, केजरीवाल की गिरफ्तारी से यह मसला अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी का विषय बन गया है। जर्मनी, अमरीका और संयुक्त राष्ट्र की तरफ से उम्मीद व्यक्त की गई है कि इस मामले में कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया जाएगा। कर्नाटक के अनुभव और इन प्रतिक्रियाओं ने मोदी को बेहद चिढ़ा दिया है। वे इसी मुद्दे पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने पर आमादा हैं। 
एबीपी-सी वोटर का ताज़ा-तरीन सर्वेक्षण बताता है कि भ्रष्टाचार के मामले पर राय पूरी तरह से बंटी हुई है। सी वोटर के संस्थापक यशवंत देशमुख ने अपने सर्वेक्षण का स्पष्टीकरण करते हुए जो आंकड़े पेश किये हैं वे चौंकाने वाले हैं। देशमुख के अनुसार एनडीए के समर्थक वोटर बड़े पैमाने पर यानी करीब 72 प्रतिशत कह रहे हैं कि विपक्ष पर होने वाली कार्रवाई ठीक है। लेकिन दूसरी तरफ इसके जवाब में ‘इंडिया’ गठबंधन के समर्थक भी कह रहे हैं कि विपक्षी नेताओं को गलत फंसाया जा रहा है। यानी, दोनों तरफ से ध्रुवीकरण हो रहा है। अगर ये आंकड़े सही हैं तो पिछले दस साल में यह पहली बार होगा कि ़गैर-भाजपा वोटर किसी प्रश्न पर एक ध्रुव पर नज़र आ रहा है। अभी तक मोदी की जीत का सबसे बड़ा कारण यही रहा है कि उनके समर्थक वोटर तो एक जगह जमा हो जाते हैं, पर उनके विरोधी वोटर बिखर कर वोट देते हुए दिखते हैं। यह पहली बार है कि विपक्ष बिना किसी असाधारण संगठनात्मक गोलबंदी के किसी एक प्रश्न पर मोदी विरोधी वोटरों की एक जगह जमा होने की संभावना दिख रही है। यानी, भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना मोदी को महंगा पड़ सकता है।   
केजरीवाल और उनके साथियों को पहले से पता था कि पीएमएलए कानून के अनुच्छेद 45 के कारण उन्हें ज़मानत मिलने की संभावना ने के बराबर ही है। इस परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए उन्होंने पूरी योजना बना रखी थी। जैसा ही उन्हें पहला सम्मन मिला, उन्होंने कहा कि यह ़गैर-कानूनी है इसलिए इसका पालन नहीं किया जाएगा। सम्मन पर सम्मन मिलते रहे, और वे उन्हें गैर-कानूनी करार देते रहे। ईडी के लिए यह एक नयी बात थी। पहले किसी उसके सम्मनों के साथ ऐसा सुलूक नहीं किया था। शुरुआती भ्रम के बाद ईडी को स्वयं अदालत की शरण में जाना पड़ा ताकि उसके सम्मनों की कानूनी हैसियत सुनिश्चित की जा सके। लेकिन उम्मीद के खिलाफ ईडी को राउज़ एवेन्यू कोर्ट से अपने पक्ष में फैसला फटाफट नहीं मिल सका। इस समय भी यह मसला विचाराधीन है। इसके बाद केजरीवाल गिरफ्तारी को रुकवाने के लिए हाईकोर्ट गए। अदालत ने उन्हें स्थगन आदेश तो नहीं दिया, पर अदालत ने ईडी की बात भी नहीं मानी कि केजरीवाल की बात विचार करने काबिल भी नहीं है। उसने ईडी से पूछा कि अगर केजरीवाल के खिलाफ इतने ज्यादा सबूत हैं तो आपने अभी तक उन्हें पकड़ा क्यों नहीं। ज़रा फाइल तो दिखाइये कि उनके खिलाफ क्या प्रमाण हैं? इसके बाद हाईकोर्ट ने 22 अप्रैल की तारीख डाल दी। इससे ईडी पेचीदगी में फंस गई क्योंकि अदालत फाइल देख कर किसी ऐसे नतीजे पर भी पहुंच सकती थी जो ईडी के लिए मुफीद न होता। इसलिए आनन-फानन में केजरीवाल को गिरफ्तार करने का निर्णय लिया गया। जो भी हो, अभी 22 अप्रैल की ताऱीख पर सुनवाई बाकी है। 
केजरीवाल की योजना का दूसरा पहलू जेल से सरकार चलाने का है। अब यह भाजपा को तय करना है कि वे केजरीवाल को जेल से सरकार चलाने देंगे या नहीं। गेंद भाजपा के पाले में है। उसके सामने तीन रास्ते हैं। पहला, वह केजरीवाल को जेल से सरकार चलाने दे। अगर उसने ऐसा किया तो मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी का कोई भी फौरी राजनीतिक लाभ भाजपा को मिलने की संभावनाएं कम से कमतर हो सकती हैं। दूसरा, वह विधानसभा को निलम्बित कर दे। तीसरा, वह विधानसभा को भंग कर दे। इन दोनों कामों को करने के लिए उप-राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट भेजनी होगी कि राज्य में शासन-प्रशासन की संवैधानिक प्रक्रिया बाधित हो गई है। दोनों ही सूरतों में अगले 11 महीनों के लिए दिल्ली के ऊपर नौकरशाहों की हुकूमत कायम हो जाएगी। यह एक ऐसी हुकूमत होगी, जो जनता के प्रति जवाबदेही न होने के बावजूद आम जनता की निगाह में भाजपा की ही होगी। इसके नकारात्मक पहलुओं का ठीकरा भाजपा के दरवाज़े पर ही फोड़ा जाएगा। 2015 के चुनाव से पहले भी यही स्थिति थी और इसके कारण भाजपा के खिलाफ खासी एंटी-इनकम्बेंसी जमा हो गई थी जिसका नतीजा चुनाव में भाजपा की केवल तीन सीटों में निकला था। ध्यान रहे कि भाजपा के पास तो केवल सात विधायक हैं जिनके दम पर वह लोकप्रिय सरकार का गठन नहीं कर सकती। केजरीवाल ने अपनी योजना के मुताब़िक विश्वास मत भी हासिल कर रखा है। यानी अगले छह महीनों तक भाजपा अविश्वास प्रस्ताव भी नहीं ला सकती। केजरीवाल ने एक जनमत संग्रह करवा कर गिरफ्तारी के बाद भी मुख्यमंत्री बने रहने के पक्ष में नतीजा हासिल करवा रखा है। 
लोकसभा चुनाव में पाला खिंच चुका है। मोदी का ़ख्याल है कि उनके ऊपर निजी तौर पर भ्रष्टाचार का कोई इलज़ाम नहीं है। उनकी साख बहुत ऊंची है, और उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारत में अपनी लोकप्रियता के दम पर वे लोकसभा चुनाव दोबारा निकाल ले जाएंगे। लेकिन इसके लिए उन्होंने जो मुद्दा चुना है, उसमें गैर-भाजपा मतदाताओं को एकजुट करने की क्षमता है। 2019 के आंकड़ों से हमें पता ही है कि मोदी के पास केवल 38 प्रतिशत वोट हैं, और 62 प्रतिशत वोट ़गैर-भाजपाई हैं। इनमें अगर 10-15 प्रतिशत वोट इधर-उधर चले भी जाएं तो भी भाजपा को इन चुनावों में ब़ाकी वोटों से कड़ी टक्कर मिल सकती है। अगर 2019 के सभी वोट मोदी को दोबारा मिल भी जाएं, तो भी विरोधी वोटों का ध्रुवीकरण बहुत सी सीटों को मोदी से छीन सकता है। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।