लोकसभा चुनाव - तमिलनाडु में ‘कैश फॉर वोट’ का गहराता संकट

राजनीतिक दलों के स्टार प्रचारकों के भाषणों व ट्वीट और अखबारों की सुर्खियों से महसूस हो रहा था जैसे तमिलनाडु में इस बार सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा कच्चाथीवु द्वीप है, जो 1974 के भारत व श्रीलंका के समझौते में श्रीलंका को दे दिया गया था। इसी संदर्भ में जब ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान चेपौक, चेन्नै में सामान्य मतदाताओं से बात की गई तो कुछ और ही तस्वीर सामने आयी। अधिकतर वोटर्स, जिनसे वार्ता की गई, का कहना था कि हाल के दिनों में तो तमिलनाडु की राजनीति को ‘कैश फॉर वोट्स’ परिभाषित कर रही है बल्कि सही कहा जाये तो बदनाम कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि मतदान किसके पक्ष में होगा जैसे प्रश्न को तय करने के लिए पैसा भी एक मुख्य कारण बनता जा रहा है या बन गया है। इसलिए भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को वोट के लिए कैश वितरण को रोकने हेतु बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। 
इस समस्या को नियंत्रित करने के लिए आयोग राज्य सरकार के अधिकारियों पर निर्भर है। जो भी व्यक्ति 50,000 रूपये से अधिक नगद या बड़ी मात्रा में गोल्ड या अन्य कीमती सामान उचित कागज़ात के साथ या उनके बिना कैरी कर रहा है, उसे फ्लाइंग स्क्वॉड्स व स्टेटिक सरविलेंस टीम्स (एसएसटी) की स्क्रूटिनी से गुज़रना होगा। शिकायत मिलते ही फ्लाइंग स्क्वॉड्स को एकदम मौके पर पहुंचना होता है, जबकि एसएसटी संवेदनशील मार्क किये गये स्थानों पर तैनात रहती हैं। हालांकि अभी मतदान में दो सप्ताह से भी अधिक का समय शेष है, लेकिन ये टीमें 100 करोड़ रूपये से भी अधिक कैश में और अन्य कीमती वस्तुएं ज़ब्त कर चुकी हैं।
बहरहाल, सवाल यह है कि क्या ‘कैश फॉर वोट्स’ की समस्या केवल तमिलनाडु में ही है? जवाब है,नहीं। चुनावी हमाम में सभी राज्य व केन्द्र शासित प्रदेश नंगे हैं। आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं के भी स्थानीय अखबार पढ़ लीजिये आपको कैश, शराब व अन्य प्रलोभन के सामान की ज़ब्ती की खबरें मिल जायेंगी। सोशल मीडिया पर पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा साड़ी आदि बांटते हुए वीडियोज मिल जायेंगे। एक खबर में तो यह दावा भी किया गया है कि कार्यकर्ता उन वोटरों के खातों में पैसे ट्रांसफर कर रहे थे, जिन्होंने उनके उम्मीदवार को वोट देने का वायदा किया था। खबर में यह दावा भी किया गया है कि अगर उनके उम्मीदवार जीतते हैं तो उन्हें और पैसे दिए जायेंगे। ज़ाहिर है इन सबके पीछे की मानसिकता यही है कि गरीब वोटरों को रिश्वत देकर उनके मत प्रभावित किये जा सकते हैं। इस तरह कितने चुनावी नतीजे प्रभावित हुए हैं, इसका कोई डाटा उपलब्ध नहीं है। लेकिन इतना निश्चितता से कहा जा सकता है कि भारत में चुनावों के दौरान कैश, शराब व अन्य उपहारों से वोट खरीदने की परम्परा पुरानी है। 
लुभावने वायदे करना (जिन्हें रेवड़ी बांटना भी कहा जाता है) तो इस परम्परा का मात्र स्वीकृत पहलू है। वोटों को पैसे के बल पर खरीदने के अनेक कारण हैं- राजनीति में प्रतिस्पर्धा का अधिक बढ़ना, पार्टियों का मतदाताओं पर पहले जैसा नियंत्रण न होना, चुनाव परिणामों को लेकर अनिश्चितता, सियासत में ज़बरदस्त पैसा होना, जैसे भी संभव हो सत्ता पर कब्ज़ा करना आदि। लेकिन साइमन चौचर्ड, जोकि अमरीका के डर्टमाउथ कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, के नये शोध से मालूम होता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि रिश्वत लेने वाला वोट दे ही। डा. चौचर्ड का कहना है कि अधिक प्रतिस्पर्धा के चलते प्रत्याशी कैश, शराब आदि वितरित करने के बाद भी असमंजस में रहता है क्योंकि चुनाव में कोई भी किसी पर भरोसा नहीं करता है और हर कोई अपने फायदे के लिए काम करता है। डा. चौचर्ड के अनुसार, ‘उन्हें (उम्मीदवारों को) डर होता है कि उनके विरोधी पैकेट बाटेंगे। वो इसे ख़ुद बांटते हैं ताकि विरोधियों की रणनीति का मुकाबला किया जा सके।’ पैसे के पैकेट कमोबेश समान होते हैं। अधिकतर पैसे वोटरों के पास नहीं पहुंचते हैं क्योंकि बांटने वाले खुद पैसे रख लेते हैं। इसलिए अनेक मामलों में पैसे के पैकेट प्रभावी नहीं हो पाते हैं। 
डा. चौचर्ड का यह शोध महाराष्ट्र के 2014 विधानसभा और मुंबई के 2017 नगर निगम चुनावों में एकत्र किये गये डाटा पर आधारित है। शोध में बताया गया है कि एक उम्मीदवार जिसने सबसे ज्यादा पैसा खर्च किया था वह चौथे नंबर पर रहा। इससे यह अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है कि कैश व उपहार बहुत कम मतदाताओं को ही प्रभावित कर पाते हैं। लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि कार्यकर्ता वोटरों पर इल्ज़ाम लगाते हैं कि पैसे लेकर भी वोट नहीं दिए और वोटर कहते हैं कि उन तक पैसे पहुंचे ही नहीं (यानी कार्यकर्ताओं ने बीच में हड़प कर लिए)। इसके बावजूद डा. चौचर्ड कहते हैं, ‘वोटरों को पैसा देना पूरी तरह बेकार भी नहीं जाता है। आपको वोट नहीं मिलेंगे अगर आप ऐसा नहीं करेंगे। इससे आपको मैदान में बने रहने में मदद मिलती है। आप हार सकते हैं अगर आप उपहार नहीं बांटते हैं तो। अगर मुकाबला अधिक कड़ा है तो यह मामले को एकतरफा कर सकता है।’
दरअसल, एक ़गैर-बराबरी समाज में रिश्वत व उपहार परस्पर का भाव पैदा करते हैं, इसलिए गरीब मतदाता अमीर उम्मीदवारों की सराहना करते हैं। सभी पार्टियां वोटरों पर पैसा खर्च करती हैं ताकि जो उनके वोटर नहीं हैं उन्हें अपने पक्ष में लाया जा सके। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की समाजशास्त्री अनस्तासिया पिलियावस्की ने राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में मतदाताओं का अध्ययन किया और पाया कि वे उम्मीदवारों से खाने व पैसे की उम्मीद रखते हैं। उनके अनुसार, ग्रामीण भारत में चुनावी राजनीति अक्सर परम्परागत सोचों पर आधारित है और चुनावों का मूल-मंत्र ‘दाता-नौकर के बीच का संबंध है, जिसमें सामानों का आदान-प्रदान होता है और शक्ति का उपयोग होता है’। चुनाव आयोग की आंखों में धूल झोंकने के लिए उम्मीदवार नकली शादी व जन्मदिन की पार्टियों का आयोजन करते हैं, जिनमें अंजान लोग वोटरों के खाने-पीने व उपहार की व्यवस्था करते हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में समाज विज्ञान की प्रोफेसर मुकुलिका बनर्जी कहती हैं, ‘गरीब मतदाता उन सभी पार्टियों से पैसा लेते हैं जो इसकी पेशकश करते हैं, लेकिन वोट उन्हें नहीं देते हैं जो अधिक पैसे देते हैं बल्कि अन्य बातों का ख्याल रखकर वोट देते हैं।’
इसका अर्थ यह है कि चुनावों को प्रभावित करने के लिए पैसा समस्या अवश्य है जिसे नियंत्रित करने के लिए, मसलन, तमिलनाडु के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में दो या तीन फ्लाइंग स्क्वॉड्स व एसएसटी तैनात की गई हैं। लेकिन इन टीमों के कामकाज पर अक्सर सवाल उठते हैं। विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि उनके प्रतिनिधियों व जनता पर तो कार्यवाही होती है, लेकिन सत्तारूढ़ दल के सदस्यों को अनदेखा कर दिया जाता है। कैश कैरी करते हुए व्यापारियों, किसानों व पर्यटकों को भी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि फ्लाइंग स्क्वॉड्स उनसे रसीद का त़काज़ा करते हैं। नेताओं की कार के डैशबोर्ड व बूट को ही चेक किया जाता है; क्या कोई नेता इनमें भी पैसे लेकर चलता है?
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