चुनाव आयोग खर्च की सीमा ही तय न करे, पालन भी करवाए

भारत के चुनाव आयोग ने प्रत्यक्ष रूप से तो अपना काम गति से, नीति से, नियमानुसार प्रारंभ कर दिया है। पहली बार चुनाव आयोग का नाम तब आम जनता तक आया जब टी.एन. शेषण मुख्य चुनाव आयुक्त थे। शेषण के नाम से राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता डरते थे। रात के जलसे, जुलूस समय पर समाप्त कर देते थे। अप्रत्यक्ष रूप में नोट उड़ाने में अर्थात बहुत खुला खर्च करने में संकोच करते थे, लेकिन धीरे-धीरे ऐसा लगा कि कुछ जलसे जुलूसों पर प्रतिबंध लग गया और समय सीमा का भी ध्यान रखा जाने लगा, परन्तु यह चुनावी रण योद्धा अप्रत्यक्ष रूप में धन खर्च करते हैं, इस पर चुनाव आयोग का शिकंजा कभी नहीं कसा गया। नियम तो यह है कि चुनाव के पश्चात तीस दिनों में चुनाव आयोग को सारे खर्च का विवरण देना होता है, दिया भी जाता है। चुनाव आयोग ने शायद ही एक प्रतिशत उम्मीदवारों को भी अधिक खर्च करने का दोषी पाया हो या उन पर कार्यवाही की गई हो।
1952 में पहली बार संसद के प्रत्याशी के लिए खर्च सीमा पच्चीस हज़ार रुपये तय की गई थी। इसका कारण यह था कि तब शायद चाय का कप भी दो या चार आने में मिलता था। महंगाई बढ़ी और चुनाव में खर्च की सीमा एक लाख रुपये तक बढ़ा दी गई, जो आज धीरे-धीरे चुनाव आयोग के निर्देश के अनुसार एक प्रत्याशी 95 लाख रुपये खर्च कर सकेगा। वैसे महंगाई के अनुसार और मतदाताओं की बढ़ी हुई संख्या के अनुपात में 95 लाख चुनाव आयोग को अधिक न लगे हों, परन्तु हिंदुस्तान के राजनेताओं या बड़े-बड़े पूंजीपतियों को छोड़ कर 95 लाख रुपये तो अधिकतर भारतीयों ने देखे भी नहीं। पूरा जीवन मेहनत करके इतना रुपया कमाने वाले थोड़े ही भाग्यशाली हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि जिसके पास करोड़ों रुपये नहीं हैं, वह चुनाव लड़ ही नहीं सकता। 17वीं लोकसभा में भी पांच प्रतिशत सदस्य तो अरबपति रहे और करोड़पति सैकड़ों में हैं। जो लोग चुनावी प्रक्रिया से परिचित हैं या चुनाव कार्य में भागीदार हैं, वे जानते हैं कि चुनावी खर्च की जो जानकारी योग्य लेखाकारों से तैयार करवा कर चुनाव आयोग को दी जाती है, वह मेरे विचार अनुसार 95 प्रतिशत से ज्यादा सही नहीं। खाद्य पदार्थों पर कितना खर्च किया गया है, उसका लेखा चुनाव आयोग लेगा, क्योंकि इनकी कीमत भी चुनाव आयोग ने ही तय की है। वैसे यह सच है कि उत्तर भारत के राज्यों में उस कीमत पर डोसा नहीं मिलता, जो चुनाव आयोग ने लिखा है। झंडे और डंडों की बात भी दिल्ली के कार्यालय में बैठे चुनाव आयुक्तों ने निश्चित की है, परन्तु उसकी बात नहीं की जो करोड़ों रुपयों के बैनर, होर्डिंग्स, इश्तेहार, इलेक्ट्रानिक मीडिया पर विज्ञापन सभी राजनीतिक दलों के उम्मीदवार और बड़ी-बड़ी पार्टियों के राष्ट्रीय कार्यालयों से जारी किए जाते हैं। चुनाव आयोग के जो पर्यवेक्षक हर उम्मीदवार के क्षेत्र में निगरानी करने के लिए भेजे जाते हैं। वह यह निगरानी कभी नहीं करते कि कितने नोट बांटे जाते हैं। कितनी शराब पिलाई जाती है। कितनी साड़ियां, सूट, टीवी, कभी कभी दोपहिया वाहन दिए जाते हैं। अगर ये पर्यवेक्षक पूरा खर्च देखना चाहे तो शराब बनाने वाली कम्पनियों पर निगाह रखे कि इन दो महीनों में कितनी शराब बिकती है और किस-किस ने खरीदी है, परन्तु ऐसा कुछ नहीं होता। चुनाव आयोग को यह जानकारी देनी चाहिए आज तक कितने उम्मीदवारों को निर्धारित सीमा से ज्यादा खर्च करने पर दंडित किया गया है या उनका चुनाव रद्द हुआ है या उन पर भविष्य में कुछ निश्चित सीमा तक चुनाव लड़ने से रोका गया। 
अगर चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाली संस्था  एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) यह रिपोर्ट देशवासियों को दे रही है कि निवर्तमान संसद में 225 सांसद अर्थात कुल सदस्यों का 44 प्रतिशत कोई न कोई अपराध कर चुका है और निवर्तमान सांसदों में 29 प्रतिशत के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं तो यह स्पष्ट हो जाता कि धनपति, बाहुबली और समाज को भयभीत करके चुनाव जीतने वाले बहुत बड़ी संख्या में सांसद हैं। वे धनी भी हैं। पांच प्रतिशत सांसद तो अरबपति हैं, ऐसी रिपोर्ट संस्था ने दी है।
यह भी बताया गया है कि 28 निवर्तमान सांसदों ने चुनावी शपथ-पत्र में यह स्वीकार किया है कि उनके विरुद्ध हत्या प्रयास से जुड़े मामले दर्ज हैं। इसी प्रकार निवर्तमान 16 सांसद महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े आरोपों का सामना कर रहे हैं जिनमें से तीन के खिलाफ दुष्कर्म के आरोप हैं। इन सबको जानने के बाद प्रश्न यह पैदा होता है कि चुनाव आयोग के पास जितने अधिकार हैं, जितनी शक्तियां हैं क्या वे अधूरी हैं? 
मैं यह मानती हूं कि चुनाव आयोग पूर्ण शक्ति सम्पन्न है। यह काम दो आंखों से नहीं, सौ आंखों से चुनावी पर्यवेक्षकों को करना चाहिए। क्या इसे लोकतंत्र का दुर्भाग्य न कहा जाए कि जिन लोगों पर कई प्रकार के अपराधों के आरोप लगे हैं, वे चुनाव लड़ सकते हैं। जेल में बंद भी चार-चार चुनाव लड़ते और जीतते हैं। जो आरोप वर्तमान संसद के 44 प्रतिशत विधायकों पर लगे हैं, किसी आम व्यक्ति पर लगे हों तो कोई उसे चपरासी की नौकरी भी नहीं देगा, सरकार भी नहीं। कर्मचारी सरकारी सेवा में जाने के बाद आरोपित हो जाए तो उसे निलम्बित रखा जाता है। क्या मजबूरी है देश के लोकतंत्र की, सरकारों की, चुनाव आयोग की कि आपराधिक छवि वाले लोग या नेता भी चुनाव लड़ कर संसद में पहुंच जाते हैं। फिर भी उनके चुनावी आर्थिक विवरण चुनाव आयोग द्वारा स्वीकार कर लिए जाते हैं। चुनाव आयोग खर्च की सीमा तय करता है, अच्छी है परन्तु उनको सही से लागू करवाना भी तो चुनाव आयोग का ही दायित्व है।