अब सिर्फ यादों और किस्सों में है लंदन का इंडिया क्लब

कभी गांधी, नेहरू, दादाभाई नैरोजी, बटेऊर्ड रसल और बाद के दिनों में माउंटबेटेन जैसे दिग्गजों से गुलजार रहने वाला लंदन का इंडिया क्लब, पिछले साल यानी 17 सितम्बर 2023 को हमेशा हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में दफन हो गया। मगर इस क्लब में आखिर ऐसी क्या बात थी कि इसके न रहने को लोग पिछले छह महीने से बड़ी शिद्दत से याद ही किए जा रहे हैं। अब तक हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि इंग्लैंड के अखबारों और वेबसाइटों में भी इंडिया क्लब को याद करते हुए दर्जनों लेख छप चुके हैं। सैकड़ों लोग इस क्लब के बंद होने पर अपनी निराशा जता चुके हैं। सिर्फ भारत या कुछ ब्रिटिशों के ही दिल में इस क्लब की खास जगह नहीं थी बल्कि ब्रिटेन में बसे सैकड़ों दूसरे देशों के लोग भी बड़ी शिद्दत से इंडिया क्लब को पिछले छह महीनों से लगातार याद कर रहे हैं। कुछ दिन पहले बीबीसी न्यूज की वेबसाइट पर मशहूर लेखक चेरिलान मोल्लान ने एक लेख लिखा था, जिसमें वो कहते हैं, ‘इंडिया क्लब क्या गजब की जगह थी, जहां भारतीयों के लिए भारत के बाहर घर के जैसे स्वाद की मौजूदगी थी।’
दरअसल इंडिया क्लब महज किसी होटल का एक रेस्त्रांभर नहीं था बल्कि यह लंदन में जीवंत भारतीयता का एक प्रतीक था। जहां भारतीय ही नहीं बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति से प्यार करने वाले लोग खाने, पीने और भारतीय कला, संस्कृति आदि पर विचार विमर्श के लिए आते थे। जिन दिनों भारत गुलाम था, उन दिनों भी इंडिया क्लब इसी तरह गुलजार रहता था बल्कि भारत की आजादी के पहले वह भारतीयों की और भी अपनी खास जगह थी। 1900 के दशक में लंदन के होटल स्ट्रैंड कॉन्टिनेंटल की पहली मंजिल में द इंडिया क्लब की शुरुआत हुई थी, जहां इंडिया लीग जैसे राजनीतिक संगठन के सदस्य नियमित रूप से अपनी बैठकों के लिए आते थे। उन दिनों यह रेस्त्रां भारत की आजादी की लड़ाई के लिए तरह तरह के पकवानों को पेश करता था। इसके संस्थापक सदस्यों में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी थे। 1990 के दशक में इस संपत्ति को भारतीय मूल के पारसी मार्कर परिवार ने लीज पर हासिल किया था।
अपने गौरवशाली अतीत के साथ यह रेस्त्रां हमेशा से न सिर्फ भारत बल्कि दक्षिण एशियाई समुदायों के लिए अपनी घरेलू रसोई जैसा था। क्योंकि इस रेस्त्रां में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल आदि सभी देशों के मशहूर व्यंजन परोसे जाते थे। भारतीयों के लिए तो यह भारत के बाहर अपने घर जैसा ही था। 1950 और 60 के दशक में लंदन में यह एकमात्र ऐसी जगह थी, जहां न सिर्फ भारतीयों को अपने घर के जैसा खाना और बोलने के लिए भाषा मिलती थी बल्कि हाल में आज़ाद हुए भारत की आज़ादी का जश्न मनाने का मौका भी मिलता था। 
आज़ादी के बाद बड़े पैमाने पर भारतीय लोग, लंदन के दक्षिण इलाके में बस गए थे, जो पूरे लंदन में भारतीयों का अपना घर था और इस घर के मुकमिल पहचान इंडिया क्लब से थी। क्योंकि जो भारतीय देश के बाहर भारतीय खानपान को तरसा करते थे, उन सबके लिए द इंडिया क्लब अपने घर जैसा था। यहां ये लोग डोसा सांभर, बटर चिकन, तरह-तरह के पकौड़े, समोसा, मसाला चाय और कॉफी का आनंद लिया करते थे। लेकिन न सिर्फ 1950 की दशक में बल्कि 17 सितम्बर 2023 को जब इंडिया क्लब बंद हुआ, तब तक इसकी यही पहचान थी। सबसे बड़ी बात ये है कि चाहे आज़ादी के पहले की बात रही हो या बाद की, इंडिया क्लब ने अपनी पहचान के साथ रत्तीभर भी समझौता नहीं किया था और न ही उसने अपने में जरा भी गिरावट बर्दाश्त की थी। इसलिए ये हमेशा से लंदन में भारतीय प्रवासियों के लिए अपने घर जैसा था।  सभी बड़े भारतीय पत्रकार लंदन में रहते हुए सप्ताह में एक बार तो इंडिया क्लब में पहुंचते ही थे। ये सेंट्रल लंदन की उन खास जगहों में से एक था, जहां भारतीय संस्कृति जीवंत रूप में उपस्थित रहती थी। शशि थरूर की बहन और मोटिवेशनल स्पीकर स्मिता थरूर कहती हैं, ‘क्लब के संस्थापक सदस्यों में मेरे पिता चंदन थरूर भी थे, इसलिए लंदन का यह क्लब उन्हें अपना पुश्तैनी घर जैसा लगता रहा है।’ बहुत सारे भारतीय लेखक और सेलिब्रिटी लंदन में रहते हुए खास तौर पर इस क्लब में अपनी जिंदगी के खास दिन मनाने के लिए आया करते थे। लेकिन पिछले कई सालों से लगातार इसके अस्तित्व पर तलवार भी लटक रही थी, क्योंकि इंडिया क्लब की ये मालिक फिरोजा मार्कर थीं, जिनके मुताबिक यह जिस स्ट्रैंड कॉन्टिनेंटल बिल्डिंग में मौजूद था, उसके इर्द-गिर्द पुरानी इमारतों के नवीकरण का दबाव था। क्योंकि सभी पुरानी बिल्डिंगों की मौजूदा कीमतों में जमीन आसमान का फर्क हो गया था। 
हालांकि इस दबाव को टालने के लिए इंडिया क्लब ने तमाम कोशिशें की थीं। 9 हजार से ज्यादा लोगों के हस्ताक्षरों को लंदन के म्युनिस्पल कारपोरेशन को भेजा गया और कहा गया कि जहां कभी दर्शनिक बर्टेंड रसल, भारत के अंतिम गवर्नर जनरल लार्ड माउंट बेटन और ब्रिटेन में भारतीय मूल के पहले सांसद दादाभाई नैरोजी बैठकर गपशप किया करते थे, उस विरासत को उसी रूप में सहेजने की ज़रूरत थी। लेकिन प्रॉपर्टी के बढ़ते दामों के दबाव में आखिर यह संभव नहीं हुआ। संभव हो सकता था अगर भारत सरकार उतनी ही कीमत पर इस ईमारत को खरीद लेती, जितनी कीमत इसकी लग रही थी, तो भारतीय स्वतंत्र संघर्ष के इतिहास की यादें सहेजने वाला इंडिया क्लब आज भी मौजूद रहता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अब यह क्लब महज यादों और किस्सों में मौजूद रहेगा।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर