यूरोपीय संघ और अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव तय करेंगे नाटो का भविष्य

उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) इस वर्ष 4 अप्रैल को 75 वर्ष का हो गया, जिसने शीत युद्ध और सोवियत काल के बाद के दौर में कई उतार-चढ़ाव वाली यात्रा को चिन्हित किया। जब 1949 में नाटो का गठन हुआ था तो इसके शीत युद्ध समर्थकों ने दावा किया था कि इसका मिशन ‘सोवियत आक्रामकता’ को पीछे हटाना होगा, जो कि साम्यवाद-विरोधी झूठ है। यूरोप में तब और अब की तरह वास्तविक विस्तारवादी ताकत अमरीका था, जिसने सोवियत संघ को घेरने की अपनी नीति के तहत नाटो की शुरुआत की थी। नाटो का वास्तविक उद्देश्य यूएसएसआर को नष्ट करना था, एक जुनून जिसमें यूएसएसआर हमला करे उससे पहले ही परमाणु युद्ध की योजना भी शामिल थी। 1949 से 1960 के दशक तक ज्यादातर ध्यान सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप पर था। पूर्वी जर्मनी जिसे जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक कहा जाता था, नाटो के रडार पर था। अमरीका और उसके यूरोपीय साझेदार पूर्वी भाग में साम्यवादी प्रभुत्व वाले जर्मनी के अस्तित्व से सहमत नहीं थे। 1960 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ और चीन के बीच दरार का नाटो ने आगे दो दशकों तक फायदा उठाया। पूर्वी यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टियों के आंतरिक विरोधाभासों ने नाटो को इन देशों में सेना के एक वर्ग के साथ अपने संबंध बनाने में मदद की। 1990 के अंत में पूर्वी यूरोप में साम्यवादी शासन के विघटन की प्रक्रिया शुरू करते हुए पूर्वी जर्मन सरकार का पतन हो गया।
नाटो ने अपना प्राथमिक उद्देश्य तब हासिल किया जब पूर्वी यूरोप में समाजवाद नष्ट हो गया और 1991 में सोवियत संघ विखर गया। बेशक, इसका मतलब यह नहीं था कि अमरीका ने विराम ले लिया या नाटो ने अपनी भूमिका कम कर दी। शीत युद्ध समाप्त होने पर पश्चिमी नेताओं ने सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचोव से जो वायदा किया था कि नाटो पूर्व की ओर विस्तार नहीं करेगा, वह जल्द ही टूट गया। बाद के वर्षों मे चेक गणराज्य, पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, स्लोवाकिया और अन्य पूर्व वारसॉ संधि देशों को निगल लिया गया। बाद में यूएसएसआर के पूर्व गणराज्यों—लिथुएनिया, लैटविया और एस्टोनिया को भी समझौते में लाया गया।
रूस के कमजोर होने के साथ नाटो ने भी सीधे सशस्त्र आक्रमण में शामिल होना शुरू कर दिया, जिसकी शुरुआत 1990 के दशक में बाल्कन युद्धों और यूगोस्लाविया के अनुभागीय विघटन से हुई। नये लक्ष्यों की ओर अपना जाल फैलाने के बावजूद नाटो का रूस के साथ टकराव से ध्यान कभी नहीं हटा। 2002 से नाटो ने खुले तौर पर यूक्रेन को अपने मास्को विरोधी गठबंधन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है। हालांकि पूर्व राष्ट्रपति विक्टरयानु कोविच द्वारा झिड़की के बावजूद यूक्त्रेन में 2014 के तख्तापलट ने एक दक्षिणपंथी सरकार को सत्ता में ला दिया, जो खुद को वाशिंगटन में शामिल करने के लिए उत्सुक थी। यह अमरीका ही था जिसने उसे उसी सरकार को सत्ता में लाने में मदद की थी। 75वें वर्ष में नाटो विस्तार की होड़ में है और इस बार ध्यान रूस और चीन दोनों पर है। हालांकि नाटो का तत्काल ध्यान यूक्रेन को पूरे दिल से समर्थन देकर रूस को कमज़ोर करने पर है। इसके जनरल इन दिनों रूसी और चीनी राष्ट्रपतियों के बीच घनिष्ठ सहयोग से चिंतित हैं। नाटो जानता है कि चीन एक शीर्ष सैन्य शक्ति है और नाटो के साथ किसी भी टकराव में रूस का समर्थन करना पश्चिमी सैन्य गठबंधन के लिए महंगा पड़ेगा।
नाटो ने रूस के लिए सुरक्षा खतरा पैदा करते हुए फिनलैंड को सदस्यता दे दी है। यूरोप में इन दिनों चुनाव के नतीजों में दक्षिणपंथी बदलाव देखने को मिल रहा है। इससे नाटो को संतुष्टि भी है और चिंता भी। राष्ट्रवादी उभार है और कुछ पार्टियां जो यूरोपीय संघ के चुनावों में जीत सकती हैं, वे नाटो की परवाह किये बिना अपने देश में एक स्वतंत्र रक्षा और सुरक्षा नीति का समर्थन करना पसंद कर सकती हैं।
लेकिन वर्ष 2024 में नेटो के लिए सबसे गंभीर चिंता है नवम्बर में संयुक्त राज्य अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव का परिणाम। यदि डोनाल्डट्रम्प चुनाव जीतते हैं तो नाटो के प्रति पूरी अमरीकी नीति फिर से बदल जायेगी। अपने पिछले कार्यकाल में ट्रम्प ने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी लेकिन इस बार उन्होंने घोषणा की है कि अमरीका नाटो पर अपने खर्च में भारी कटौती करेगा। दूसरे देशों को खर्च का उचित बंटवारा करना होगा। इसके अलावा निर्वाचित ट्रम्प नाटो की परवाह किए बिना रूस और चीन के साथ अलग-अलग सौदे कर सकते हैं।इस तरहए 2024 के घटनाक्रम वर्ष 2025 और उसके बाद नाटो के भविष्य के बारे में बहुत सारी अनिश्चितताएं लाते हैं। नाटो में अमरीका के नेतृत्व वाली पश्चिमी शक्तियों का फोकस वही है लेकिन भू-राजनीति बदल गयी है। विस्तारित नाटो को ज़मीनी हकीकतों को ध्यान में रखते हुए अपनी भूमिका को फिर से बनाना होगा। मौजूदा दौर में सिर्फ  विस्तार से संगठन को कोई मदद नहीं मिल रही है। (संवाद)