चुनाव घोषणा-पत्रों को गम्भीरता से लें मतदाता राजनीतिक पार्टियों की भी होनी चाहिए जवाबदेही

कांग्रेस ने जैसे ही लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा-पत्र जारी किया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसे आड़े हाथों लेते हुए कहा कि कांग्रेस केवल घोषणा करती है जबकि भाजपा संकल्प-पत्र लेकर सामने आती है। क्या प्रधानमंत्री का यह दावा उनके पिछले रिकॉर्ड से प्रमाणित होता है? 2014 में चुनाव लड़ते समय प्रधानमंत्री ने दो तरह के वायदे किये थे। पहली किस्म के वायदे वे थे जो घोषणा-पत्र में लिखे हुए थे, और दूसरी किस्म के वायदे वे थे जो केवल भाषणों में किये गये थे। दूसरी किस्म के इन वायदों में प्रमुख थे—अच्छे दिन आएंगे, हर खाते में 15-15 लाख रुपये आएंगे, साल भर में दो करोड़ रोज़गार दिए जाएंगे, और एमएसपी के लिए उनकी सरकार कोई नया प्रस्ताव ले कर आएगी। मोदी के सत्ता में आने के बाद उनकी सरकार इन वायदों को तत्परता से भूल गई। जब उन्हें बार-बार इन बातों की याद दिलाई गई तो तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह ने बिना पलक झपकाए कह दिया कि ये तो चुनावी जुमले थे। ज़ाहिर है कि ये वायदे उनके घोषणा-पत्र में लिखे हुए नहीं थे। प्रश्न यह है कि इस बार क्या होगा? इस बार कौन-कौन से वायदे घोषणा-पत्र में लिखे जाएंगे, और कौन-कौन से चुनावी जुमले के रूप में सामने आएंगे?
कहना न होगा कि चुनाव में वोटों की होड़ शुरू होने से पहले ही घोषणा-पत्रों के बीच जंग होने लगती है। इस बार लगता है कि मतदाताओं की गोलबंदी में घोषणाओं की अहमियत पहले से ज़्यादा होने वाली है। कारण यह कि इस बार लोकसभा चुनाव के ऊपर किसी असाधारण घटना का साया नहीं मंडरा रहा है। 2019 में पुलवामा सीआरपी कैम्प पर हुए आतंकवादी हमले और उसके जवाब में की गई बालाकोट सर्जीकल स्ट्राइक ने मतदाताओं के मानस को बेहद उद्वेलित कर दिया था। राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रबल भावना और मोदी सरकार द्वारा ‘घुस कर मारा’ के ज़बरदस्त प्रचार के कारण घोषणा-पत्र कमोबेश पृष्ठभूमि में चले गये थे। इस बार नरेंद्र मोदी ‘भ्रष्टाचार’ के मुद्दे पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, और विपक्ष ‘लोकतंत्र बचाने’ का आह्वान कर रहा है। ये मुद्दे लोगों को प्रभावित करेंगे, परन्तु दोनों में ही वैसा भावनात्मक आवेग नहीं है। ज़ाहिर है कि मतदाताओं के पास इस बार घोषणा-पत्रों के वायदों पर ज़्यादा गम्भीरता से गौर करने का मौका है। 
माना जा सकता है कि इस बार कम से कम मतदाताओं का एक हिस्सा पार्टियों के वायदों की जांच-परख करके वोट देने का फैसला करेगा। तकरीबन सभी चुनाव शास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि धीरे-धीरे हमारी चुनावी राजनीति में दस से 15-20 फीसदी के बीच मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग उभर आया है जो अपनी मतदान-प्राथमिकताओं पर आ़िखर तक विचार करके फैसला करता है। यह छोटा सा बीच में बैठा हुआ मतदाताओं का समूह मोटे तौर पर न तो जाति के आधार पर वोट देता है, न धर्म के आधार पर, और न ही यह पार्टियों की विचारधारात्मक दावेदारियों से प्रभावित होता है। वह एक नयी श्रेणी से ताल्लुक रखता है। यह सत्तारूढ़ दल की ़खामियों और थोड़ी-बहुत एंटी इनकम्बेंसी के बावजूद उसे समर्थन देने का निर्णय ले सकता है, बशर्ते उसे विपक्ष की बातें पर्याप्त रूप से विश्वसनीय न लग रही हों। इसके विपरीत वह सरकार बदलने के लिए भी वोट कर सकता है, अगर उसे विपक्ष के नेताओं और उनकी बातों में ज़्यादा दम लग रहा हो। ऐसे मतदाता चुनावी नतीजे को गहराई से प्रभावित करते हैं। इसका प्रमाण 2022 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उस समय मिला जब जीतने के बाद प्रदेश भाजपा ने प्रधानमंत्री द़फ्तर की मांग पर उसे 80 पेज की एक रपट भेजी। आंखें खोल देने वाली इस रपट में माना गया था कि भाजपा की जीत में इसी ‘फेंस’ पर बैठे हुए वोटर-समूह की बड़ी भूमिका थी। अगर यह वोटर आखिर में भाजपा की तरफ झुकने का फैसला न करता तो शायद अखिलेश यादव द्वारा की गई पिछड़ी जातियों की एकता और अल्पसंख्यक वोटों का असाधारण ध्रुवीकरण आदित्यनाथ सरकार की वापिसी को मुश्किलों में डाल सकता था।
मतादाताओं के इस छोटे लेकिन अहम हिस्से के पास इस समय कांग्रेस पार्टी का घोषणा-पत्र का दस्तावेज़ है। उन्हें यह भी पता है कि 5-6 दिनों में भाजपा का घोषणा-पत्र भी जारी होने  वाला है। इन दोनों को सामने रख कर तुलनात्मक दृष्टि से पसंद-नापसंद करना आसान नहीं होगा। कांग्रेस अपने घोषणा-पत्र को न्याय-पत्र कहते हुए स्त्री, युवा, किसान और कमज़ोर जातियों को अपनी ओर खींचना चाहती है। भाजपा ने घोषणा कर दी है कि वह ‘संकल्प-पत्र’ जारी करेगी जिसके केंद्र में ‘ज्ञान’ (गरीब, युवा, अन्नदाता और नारी) होगा। जो भी हो, कांग्रेस के न्यायपत्र में हर वायदा बहुत ठोस किस्म का है। यानी, सामान्य किस्म की बातें कहने के बजाय उन्होंने संख्याओं के ज़रिये अपने वायदों को प्रामाणिक बनाने की चेष्टा की है। सारी बातें सीधे-सीधे हां या न में हैं। मुझे लगता है कि ऐसे घोषणा-पत्र के बाद अब भाजपा को भी इसी ठोस शैली में अपने वायदे मतदाताओं के सामने परोसने पडें़गे। 
मेरे विचार से अब वह समय आ गया है कि घोषणा-पत्रों को चुनावी राजनीति के केंद्र में अधिक गम्भीरता से स्थापित किया जाए। इसके लिए कुछ बातें ज़रूरी हैं। पहली, हर पार्टी अपने हर वायदे को पूरा करने के लिए घोषणा-पत्र में एक स्पष्ट समय सीमा निर्धारित करे। इस समय सीमा की निगरानी की ज़िम्मेदारी स्वयं चुनाव आयोग ले, और जीत कर सत्ता में आने वाले दल से लिखित रूप में जवाबतलबी की जाए कि उसने अपना वायदा पूरा क्यों नहीं किया। यह काम गैर-सरकारी क्षेत्र में नागरिक समाज की संस्थाएं भी कर सकती हैं। दूसरी महम्वपूर्ण बात यह है कि घोषणा-पत्र में जो नहीं लिखा है, उसे वायदे के रूप में जनता के सामने परोसने को नियम बना कर रोका जाए। मसलन, कोई पार्टी कहती है कि वह अमुक संख्या में रोज़गार देगी, या किसी तबके की आमदनी अमुक सीमा तक बढ़ जाएगी, या लोगों के खातों में अमुक रकम आ जाएगी, लेकिन ये बातें घोषणा-पत्र में बाकायदा लिखी गई नहीं हैं। इस सूरत में आयोग द्वारा या ज़िम्मेदार संस्थाओं द्वारा इन अलिखित वायदों को नोट किया जाए, और उन्हें भी बाकायदा घोषणा-पत्र का लिखित अंग करार दिया जाए। 
हो सकता है कि कोई सत्तारूढ़ दल किसी विशेष स्थिति (जैसे कोविड की महामारी) के कारण अपने वायदे तय समय में पूरे न कर पाई हो। उस सूरत में मतदाता उसे रियायती नज़रिये से देखेंगे। लेकिन, उस पार्टी को बताने के लिए मजबूर किया जाए कि महामारी ़खत्म होने के बाद के समय में उसने किस सीमा तक उन वायदों को पूरा किया। इसी तरह इन बातों का ख्याल रखने पर चुनाव के समय नेताओं द्वारा मंच पर की जाने वाली लफ्फाज़ी को घटाने में मदद मिलेगी। फिर नेताओं को यह कहने में कुछ तो परेशानी होगी ही कि अमुक बात तो उन्होंने चुनावी जुमले के रूप में कही थी।

-लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।