लोकसभा चुनाव 2024 - दक्षिण में दबदबा बनाती भाजपा

भाजपा को अपने नारे, ‘अबकी बार 400 पार’ को चरितार्थ करना हो या दलगत लक्ष्य 370 सीटों के करीब पहुंचना हो अथवा दुर्भाग्यवश उत्तर से घटी सीटों की भरपाई करनी हो, हर हाल में भाजपा को दक्षिण भारत से सीटें चाहिये। उत्तर भारत के कई राज्यों में वह पिछली बार इतनी सीटें जीत चुकी है कि बढत की गुंजाइश बहुत नहीं उलटे इनकैम्बेंसी के किंचित कम हुईं या अपनी कुल सीटों की संख्या बढानी है तो दक्षिण की ओर ही देखना होगा। विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा को यदि उत्तर भारतीय दल की पहचान को राष्ट्रीय बनाना है तो भी उसे दक्षिण में अपने सांसद और जनाधार बढाना होगा। भाजपा ने विगत कुछ वर्षों से इस ओर प्रयास प्रारंभ कर दिया था। अब ये आम चुनावों के परिणाम बताएंगे कि उसकी कोशिशें कितना रंग लाई हैं। नि:संदेह राजनीति संख्याओं का खेल है,परंतु मात्र सीटों की संख्या का नहीं है, यह प्राप्त मत प्रतिशत का भी खेल है। अब देखना होगा कि दक्षिण में भाजपा का मत प्रतिशत कितना बढता है।  
चुनाव परिणामों में वह कितनी सीटों पर जीत के कितना करीब पहुंची, कितनी जीती है और आने वाले वर्षों में वहां होने वाले विधानसभा चुनावों में जीत की कितनी आस बंधती है। दक्षिण भारत के पांच राज्यों, कर्नाटक, केरल, आंध्र, तमिलनाडु, तेलंगाना और एक केन्द्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में कुल मिलाकर 130 लोकसभा सीटें हैं। तमिलनाडु में 39, कर्नाटक में 28, आंध्र प्रदेश में 25, केरल में 20 और तेलंगाना में 17 के अलावा पुडुचेरी में एक। फिलहाल सबसे मौजू सवाल यह तो है ही कि ये दक्षिण के राज्य भाजपा को कितनी सीटें देंगे साथ ही यह भी कि इस बढत के गैर चुनावी निहितार्थ क्या हैं? प्रधानमंत्री कहते हैं कि भाजपा तमिलनाडु में सात सीटें ला रही है, तो राजनाथ आने वाली सीटों की संख्या नहीं बताते, कई सीटें जीतने का दावा करते हैं। उनको कर्नाटक की सभी 28 सीटें जीतने का भरोसा है तो केरल में भी वे भाजपा को बहुत सी सीटें दिला रहे हैं। प्रधानमंत्री तो केरल में सीटों के दहाई पार करने के प्रति आश्वस्त हैं। तेलंगाना में भाजपा के पास 17 में से 4 सीटें है।
गृहमंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि इस बार हम डबल डिजिट में पहुंचेंगे। भाजपा का मानना है कि ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां पार्टी अपना खाता नहीं खोलेगी। हम सभी राज्यों में बेहतर करेंगे। अतार्किक आत्मविश्वास राजनीति की आत्मा है। हर दिशा में बेहतर कर रही पार्टी की चुनावी माहौल में ऐसी सोच अतिशयोक्ति नहीं। भले ही विपक्षी दल भाजपा के पूर्व प्रदर्शन और इतिहास दिखाकर उसकी इन घोषणाओं को खुशफहमी मानें क्योंकि दक्षिण के पांच राज्यों की 129 सीटों में से भाजपा ने 2009 में 19 और 2014 में 21 जबकि 2019 में कुल 29 सीटें ही हासिल कीं। आंध्रप्रदेश, केरल और तमिलनाडु से भाजपा सांसदहीन है। कर्नाटक को छोड़ दें तो बाकी बचे कुल 101 सीटों में से उसे 2019 और 2014 में में महज 4 सीटें मिली थीं। कर्नाटक से 8-10 सीटें कम हो जायें तो भाजपा के तमिलनाडु और केरल में खाता खुलने से भी क्या होने वाला है, पुनर्मूषको भव वाली स्थिति हो जाएगी। पुराने आंकड़ों से बनी तस्वीर बहुत गुलाबी नहीं लेकिन भाजपा ने साल दर साल दक्षिण में जनाधार को मजबूत किया है। कार्यकर्ता, संगठन और सक्रियता बढाई है।
यदि भाजपा तमिलनाडु, केरल और आंध्र में अपनी मतसंख्या में आशातीत वृद्धि करती है तो उसकी यह उपलब्धि इसी के चलते होगी। केरल में शून्य से दहाई, कर्नाटक में शत-प्रतिशत सीटों का दावा कुछ अतिरेकी लग सकता है लेकिन भाजपा के आत्मविश्वास के पीछे कुछ ठोस वजहें, तर्क, समीकरण और वाजिब कारण हैं। प्रधानमंत्री 7 बार तमिलनाडु जा चुके। द्रविड राजनीति के दबदबे को खत्म करने और हिंदूवादी राजनीति को उभारने के प्रयास में भाजपा की तमिलनाडु में तीव्र सफलता बताती है कि वह यह बात समझाने में कुछ हद तक सफल रही है कि तमिल स्वाभिमान और संस्कृति की वही सच्ची संरक्षक है। आबादी के 14 प्रतिशत वन्नियारों के समर्थन वाली पीएमके से गठबंधन का भी उसे लाभ मिल रहा है। दोनों विपक्षी द्रमुक और कांग्रेस को भाजपा ने कच्चातिवू दांव से बुरी तरह घेर दिया। राजनीतिक पर्यवेक्षक तो कच्चातिवु के इस पत्ते को भाजपा का दक्षिण में प्रवेश पत्र मान रहे हैं। इस विवाद से प्रभावित तटवर्ती इलाके में रहने वाले लाखों मछुआरों का जिनका 15 सीटों पर गहरा असर है, भाजपा से जुड़ाव बढा है। विगत वर्षों की तैयारियों के चलते आज पार्टी मुख्य मुकाबले में है। 23 सीटों पर लड़ रही भाजपा की सीटें उसके 6 सीट के दावे से कम रहेंगी और मतप्रतिशत का 25 प्रतिशत तक पहुंचाना भीं संभव नहीं पर इसमें पहले की तुलना में चार गुणा की बढोतरी के साथ 12 प्रतिशत से ऊपर पहुंचने की संभावना उसे 2026 में होने वाले विधानसभा चुनावों में सफलता के प्रति आश्वस्त करेगी जोकि उसके हालिया प्रयासों का मूल उद्देश्य है।
भाजपा का दावा है कि केरल में कांग्रेस के कमजोर होने से अब उसकी सीपीएम से सीधी लड़ाई है। पिछली बार भले ही वह शून्य पर थी लेकिन इस बार उसका आंकड़ा दहाई पार करेगा। सच तो यह है कि हिंदू राष्ट्रवाद को केरल में बहुत कम समर्थन मिला और बहुत हद तक विकसित केरल पर विकास के नारे का भी असर नहीं पड़ा। यहां किसी चीज ने असर डाला है तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के जमीनी काम काज ने जिसके तहत संगठन ने समाज के बड़े वर्ग में पैठ बनाई है और उनके साथ सामाजिक समरसता बनाई। पिछले चुनावों में भाजपा तीन सीटों पर कम अंतर से हारी थे और दूसरे दो में उसका प्रदर्शन उल्लेखनीय था। इसी आधार पर कुछ भाजपा नेताओं का दावा है कि वे त्रिशुर, तिरुअनंतपुरम जैसी पांच सीटें जीतेंगे। यह संभव भले न हो पर उसके केरल में पहली बार खाता खुल सकता है। जहां तक आंध्र का सवाल है। चंद्रबाबू नायडू के साथ के बावजूद भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में नहीं है। नायडू घोटाले में गिरफ्तारी के डर से भाजपा के साथ आये हैं और भाजपा उनका राजनीतिक सहारा लेने के लिये। लगता नहीं कि भाजपा को यह राज्य बहुत सहायता कर पायेगा। एक सर्वे में तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटों में से भाजपा को 8 और कांग्रेस को 6 सीटें दे रहा है, तो दूसरा 5, एक दावा यह भी कि भाजपा को 2 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। कुछ भी हो करीमनगर, सिकंदराबाद, निजामाबाद में भाजपा मजबूत है और उसका मतप्रतिशत भी बढेगा। प्रशांत किशोर जैसे विश्लेषक भी तेलंगाना में भाजपा भाजपा को पहले या दूसरे नंबर रख रहे हैं। कर्नाटक में भाजपा ने जेडीएस के साथ गठबंधन में अपनी स्थिति सुधारी है। यहां से भाजपा 2019 में 25 सीटे पा चुकी है। मतलब साफ है कि कर्नाटक में भाजपा को घाटा नहीं होने जा रहा है और तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पुडुचेरी और केरल में भी वह कुल मिलाकर 15 से बीस सीटें जीतती लग रही है। ये जीत और बढी सीटें भाजपा के तात्कालिक उद्देश्य को पूरा करें न करें पर दक्षिण में उसका बढता प्रभाव द्रविड राजनीति के दबदबे के अंत का आरंभ बनेगा जैसे उसने कम्युनिस्ट खेमे तथा बहुजन प्रभाव को भारतीय राजनीति में धीरे-धीरे निष्प्रभावी किया है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर