चांदी की डिबिया
सुखराम कहने को किसान था पर काम दूसरे के खेतों पर करता था। मुश्किल से परिवार का गुजारा कर पाता था। एक दिन सुखराम को कुछ सामान लेने बाज़ार जाना पड़ा। वह साहूकार दीनदयाल की दुकान पर पहुंचा। साहूकार ने उसे पहचान कर कहा, ‘वर्षों पहले तुम्हारे पिता ने मुझसे पचास रूपए उधार लिए थे। वे रूपए न उन्होंने लौटाए, न उनके बाद तुमने। उन्हें जल्दी ही लौटा दो।’
सुखराम भोलाभाला था। उसके पास दस रूपए ही थे। कुछ दिनों की मोहलत मांग, उदास मन घर लौट पड़ा। पत्नी ने उदासी का कारण पूछा। उसने साहूकार की बात बताई। फिर सोचने लगा कि कर्जा कैसे चुकाया जाए? तभी उसे याद आया कि मरते समय उसके पिता ने उसे चांदी की एक डिबिया दी थी। उसे देते समय वह कुछ कहना चाहते थे पर सिर्फ दो शब्द ही बोल पाए थे, ‘राजा ने .......’
वह धीरे से उठा। कोठरी में पहुंचा। ढूंढ़ने पर उसे वह डिबिया मिल गई। मन ही मन वह बड़बड़ाया, ‘शुक्र है, यह वक्त पर मिल गई। इसे साहूकार को दे कर्जे से मुक्ति पा जाऊंगा।’
तभी उसकी पत्नी वहां आ गई। सुखराम के हाथ में वह डिबिया देखकर बोली, ‘दो-चार दिन सब्र करो। ले-देकर पुरखों की यही निशानी बची है। इसे मत गंवाओ। कुछ मैं काम करूंगी, कुछ तुम करना कर्जा उतर जाएगा।’ सुखराम ने बात मान ली। कुछ दिन बाद साहूकार सुखराम के घर जा पहुंचा। बोला, ‘मेरे रूपए अभी लौटा दो वरना, नालिश कर दूंगा।’
साहूकार के तेवर देख, सुखराम घर में गया। चांदी की डिबिया ले बाहर जाने लगा, तो पत्नी ने पूछा, ‘डिबिया को कहां ले जा रहे हो?’
‘साहूकार नालिश की धमकी दे रहा है। सोचता हूं, डिबिया दे, कर्जे से मुक्त हो ही जाऊं। रोज का उलाहना सहा नहीं जाता, ‘सुखराम ने कहा। दोनों साहूकार के पास पहुंचे। सुखराम साहूकार को डिबिया देने लगा तो पत्नी ने टोका, ‘इसे खोलकर तो देख लो, शायद अंदर कुछ हो।’ सुखराम ने डिबिया खोली। उसमें एक कागज रखा था। सुखराम अनपढ़ था। कागज साहूकार को दे पूछने लगा कि इसमें लिखा क्या है? साहूकार कागज पढ़ते ही चौंका। फिर संभलकर बोला, ‘रद्दी कागज है। यूं ही किसी ने रख दिया होगा।’ फिर एक पल गंवाए बिना उसने सुखराम के हाथ से डिबिया ले ली। बोला, ‘यह डिबिया भी पुरानी है। फिर भी कर्जे के बदले इसे ले लेता हूं।
साहूकार डिबिया लेकर चल पड़ा। वह कागज भी उसने डिबिया में रख लिया। सीधा पहुंचा राज दरबार में। राजा का अभिवादन कर उसने वह डिबिया उसके सामने रख दी। राजा ने चौंककर उस डिबिया को देखा। खोला। कागज पढ़ा। फिर साहूकार से पूछा, ‘तुम मेरे पिता के यहां क्या थे?’ साहूकार परेशान। इस कागज से राजा के प्रश्न का क्या संबंध? राजा ने दोबारा पूछा तो साहूकार के माथे पर पसीना आ गया। कोई उत्तर देते न बना। राजा उसे देख मुसकराया। फिर बोला, ‘कल आना।’
अगले दिन जब वह दरबार में पहुंचा तो सुखराम भी वहीं था। साहूकार मन ही मन घबराया। उसने सोचा कि सुखराम ने जरूर कह दिया होगा कि यह डिबिया उसकी है। तभी राजा ने साहूकार से पूछा, ‘क्या यह डिबिया तुम्हें सुखराम ने दी थी?’
‘हां, महाराज,‘ कहकर साहूकार ने राजा को अपने कर्जे की सारी बात बता दी। राजा ने मंत्री को पास बुला, धीरे से उसके कान में कुछ कहा। मंत्री वहां से चला गया। थोड़ी देर बाद वह वापस आया, तो उसके हाथ में भी बिल्कुल वैसी ही डिबिया थी। मंत्री द्वारा लाई गई डिबिया खोली गई। उसमें भी एक कागज रखा था। उस पर कुछ लिखा था। राजा ने पढ़कर सुनाया, ‘मैंने अपने कुछ वफादार सेवकों को ऐसी ही डिबिया भेंट दी हैं। उन पर कभी मुसीबत आए तो राज्य उनकी मदद करेगा।’
पत्र सुनाकर राजा ने साहूकार को डपटा, ‘सुखराम से तुमने यह डिबिया लेकर उसका अधिकार छीनने की भी कोशिश की। ज़रूर तुम्हारी नीयत खोटी थी। तुम्हें दंड क्यों न दिया जाए?’
‘गलती हो गई महाराज, मेरे मन में लालच आ गया था। मुझे अब धन नहीं चाहिए। सुखराम की ईमानदारी के आगे मैं बहुत ही शर्मिंदा हूं,‘ साहूकार गिड़गिड़ाया। राजा ने उसे छोड़ दिया। घोषणा कराई कि जिन-जिन के पास चांदी की ऐसी ही डिबिया हो, वे दरबार में उपस्थित हों। घोषणा सुन, कुछ व्यक्ति दरबार में पहुंचे। कुछ गरीब थे, कुछ अमीर। सबने अपनी-अपनी डिबिया राजा के सामने रख दी। हर डिबिया खोली गई। प्रत्येक में से कागज निकले। उन सब पर यही लिखा था, ‘मुसीबत आए, तो दरबार में आ जाना।’
राजा बोले, ‘यह पत्र मेरे पिता का है। एक बार उन पर संकट के बादल मंडराए। उनके कुछ सेवकों ने प्राणों की बाजी लगाकर उनकी रक्षा की। ऐसी डिबियां उन्हीं स्वामिभक्त सेवकों को दी गई थीं। मैं न जाने कब से इन व्यक्तियों की खोज में था। कल साहूकार ने डिबिया मेरे सामने रखी तो इस डिबिया के असली मालिक सुखराम का पता लगवाया। आज से सुखराम के साथ आप सभी भी इस राज्य के विशिष्ट नागरिक हैं। आपको राज्य की ओर से प्रति मास पांच स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी।’
दरबारियों ने राजा की इस घोषणा का स्वागत किया। उससे भी अधिक स्वागत डिबिया लाने वाले अमीर व्यक्तियों का हुआ। उन सभी ने अपनी-अपनी राशि राज्य की पाठशालाओं को दान देने की घोषणा जो की थी। (उर्वशी)