2024 में कौन जीता, कौन हारा ?

हम जीत गये हैं और तुम हार गये हो। इस समय देश में पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे से यही कह रहा है। किसकी बात सही है, और किसकी गलत है? नरेंद्र मोदी ने संसद में बोलते हुए विपक्ष से कहा कि उसे अपनी पराजय स्वीकार करनी चाहिए। राहुल गांधी, महुआ मोइत्रा व अखिलेश यादव ने इससे पहले भाजपा की पराजय को जम कर रेखांकित किया। इन नेताओं की बातों से लग रहा था कि वे आने वाले चुनावों में भाजपा की और भी ज़बरदस्त पराजय की उम्मीद कर रहे हैं। महुआ ने जो लाजवाब भाषण दिया। ‘एक अकेला कितनों पर भारी’ वाले मोदी के ़िफकरे और ‘मुझे तो लगता है कि मैं बायलॉजिकल नहीं हूँ’ की बेतुकी दावेदारियों को इन विपक्षी नेताओं ने बड़े प्रभावी ढंग से अपने पक्ष में इस्तेमाल किया। नरेंद्र मोदी के लिए यह एक नया एहसास था। 12 साल गुजरात में मुख्यमंत्री रहने और पिछले दस साल दिल्ली में प्रधानमंत्री रहने के दौरान व्यक्तिगत रूप से अपने ऊपर इतने अकाट्य तर्कों से ऐसा हमला उन्होंने कभी नहीं झेला था। 
सारी दुनिया इस समय भारत के मतदाताओं की राजनीतिक बुद्धि की प्रशंसा कर रही है। कहा जा रहा है कि उन्होंने जो जनादेश दिया है, उससे भारतीय लोकतंत्र का खोया हुआ संतुलन वापिस आ गया है। हमारे संसदीय इतिहास में विपक्ष पहले कभी इतना मज़बूत होकर नहीं उभरा। किसी एक पार्टी को बहुमत न मिलने के कारण केंद्र में गठजोड़ सरकार बनी। लेकिन वह भी कमज़ोर न होकर राजनीतिक स्थायित्व की संभावनाओं से भरपूर है। ज़ाहिर है कि मतदाताओं ने अपना काम ब़खूबी किया। लेकिन क्या राजनीतिक दल इस जनादेश को सही ढंग से पढ़ पा रहे हैं? क्या वे बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति के हिसाब से अपनी राजनीति के विन्यास को नये सिरे से बनाने की कोशिश कर रहे हैं? सत्तारूढ़ एनडीए का नेतृत्व कर रही भाजपा और विपक्षी ‘इंडिया’ का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के पिछले एक महीने में सामने आये रवैये पर ़गौर करके इन सवालों का कुछ-कुछ जवाब पाया जा सकता है। 
पिछले सप्ताह मैं यह कह चुका हूँ कि भाजपा की तरफ से जिस राजनीतिक रणनीति को लागू किया जा रहा है, उसके केंद्र में अंग्रेज़ी का शब्द ‘कॉन्टिनुइटी’ (निरंतरता) है जिसे उसके पैरोकारों द्वारा बार-बार इस्तेमाल किया जा रहा है। वे आग्रहपूर्वक बताना चाहते हैं कि कुछ नहीं बदला है। वही प्रधानमंत्री हैं। थोड़े से मंत्रियों को छोड़ कर वही मंत्री हैं। वही उनके मंत्रालय हैं। वही दावेदारियों हैं। सरकार का वही एजेंडा है जो पिछले दस साल से चल रहा था। ऐसा लगता है कि जैसे भाजपा के लिए चार जून का जनादेश घटित ही नहीं हुआ है। पार्टी के वैचारिक पितामह संघ ने महीने भर में कई बार बुलंद आवाज़ में उसे राजनीतिक परिस्थिति में हुए परिवर्तन का एहसास दिलाने की कोशिश की है। यह असंभव है कि भाजपा ने संघ की आवाज़ न सुनी हो। लेकिन, वह दिखावा यही कर रही है कि कुछ नहीं बदला है। 
भाजपा के इस रवैये के पीछे एक समझ काम रही है। इसके मुताबिक उसकी सीटों में आई गिरावट का मुख्य कारण कुछ और नहीं बल्कि इस बार चुनाव में हुई राजनीतिक बदइंतज़ामी है। अगर टिकटों के बंटवारे में कुछ होशियारी बरती जाती, अगर कार्यकर्ताओं की तरफ से सुस्ती न दिखाई जाती, कुछ नेताओं ने नासमझी वाले बयान न दिये होते, और अगर पार्टी के भीतर गुटबाज़ी को नियंत्रित कर लिया जाता तो इस तरह तो 2019 के चुनाव परिणाम को दोहराया जा सकता था। अर्थात, मोदी सरकार के खिलाफ किसी तरह की उल्लेखनीय एंटीइनकम्बेंसी नहीं थी, इसलिए किसी विशेष परिवर्तन की ज़रूरत नहीं है। राजनीतिक प्रबंधन को दुरुस्त करने से सब ठीक हो जाएगा। दरअसल, यही समझ उत्तर प्रदेश समेत उन प्रदेशों की पड़ताल कमेटियों के काम में देखी जा सकती है जिन्हें भाजपा ने सीटें कम हो जाने के कारणों का पता लगाने के लिए नियुक्त किया है। राजस्थान के वरिष्ठ नेता किरोड़ीमल मीणा के प्रदेश सरकार से इस्त़ीफे को इसी प्रबंधनमूलक रवैये के खिलाफ असंतोष के रूप में देखा जाना चाहिए। 
कांग्रेस के रवैये पर विचार करने से पहली नज़र में लगता है कि उसने बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति को अपने नज़रिये से समझ कर विपक्ष की दावेदारी के लिए एक नयी रणनीति बनायी है। ऐसा लगता है कि इस रणनीति के दो चरण हैं। पहले दौर में वह देश के सामने अपनी बढ़ी हुई ताकत का मुहाजिरा करना चाहती है। नयी लोकसभा के पहले सत्र में उसने अपना दबदबा बना कर दिखाया। अपनी बात एक के बाद एक भाषणों में (राहुल, महुआ, राजा, अखिलेश, बिमोल अकोईजाम) असरदार तऱीके से सत्तारूढ़ दल को सुना दी, और प्रधानमंत्री जब बोले तो विपक्षी सांसद लगातार नारेबाज़ी करते हुए मणिपुर के लिए न्याय की मांग करते रहे। दूसरे चरण में विपक्ष अपनी संसदीय एकता को सड़क पर किये गये राजनीतिक हस्तक्षेपों से जोड़ेगा। यह प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। नीट पर्चालीक के सवाल पर युवकों-छात्रों के साथ विपक्ष की आंदोलनकारी जुगलबंदी इसका प्रमाण है। अभी इस तरह के कई मौके आने वाले हैं। ़खुद सरकार अपनी अक्षमताओं और विफलताओं के कारण प्लेट पर रख कर इस तरह के अवसर विपक्ष को देने वाली है। अग्निवीर योजना और पुरानी पेंशन स्कीम की मांग पर मध्यवर्ग के आर्थिक असंतोष का सिलसिला कभी भी शुरू हो सकता है। ़खबरें आनी शुरू हो गईं हैं कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए पंजाब और हरियाणा के किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ मिल कर एक बार फिर दिल्ली की तरफ कूँच करने की तैयारी कर रहे हैं।
बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति के कारण नई सरकार को दो ऐसे मुकामों से दबाव का सामना करना पड़ रहा है जो उसके भीतर स्थित हैं। इनमें पहला है संघ परिवार जिसके संगठनों ने समझा जाता है कि सरकार को अपना मांग पत्र दे दिया है कि अगले बजट में वे क्या-क्या चाहते हैं। ऐसा दस साल में पहली बार हुआ है। ़खास बात यह है कि विपक्ष ने जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ा है, संघ के  मांगपत्र में कमोबेश वे सभी मुद्दे हैं। दूसरा भीतरी मुकाम है जनता दल (एकी) और तेलुगु दशम पार्टी। इन दोनों ने प्रस्ताव पास करके हज़ारों करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है। इनकी बात पूरी न सही, मगर कुछ न कुछ तो माननी ही पड़ेगी। उस सूरत में केंद्र सरकार के आर्थिक बंदोबस्त पर बहुत बड़ा असर पड़ने वाला है। संसद में यह देखना-समझना मुश्किल नहीं था कि जिस समय विपक्ष भाजपा और मोदी पर हमले कर रहा था, उस समय ये दोनों सहयोगी दल न विचलित लग रहे थे, और न ही उन्होंने तत्परता से सरकार का बचाव किया। ज़ाहिर है कि वे इस सरकार में सहयोगी हैं। वे अतीत की दो भाजपा सरकारों के कामों की ज़िम्मेदारी तो ले नहीं सकते। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।