डेरों की ओर क्यों हो रहा है प्रदेश के लोगों का झुकाव ?

पर्दा खुल तो गया फिर भी यकीं आए कैसे,
हम मुरीदों को तेरे ऐब करामात लगें।
(लाल फिरोज़पुरी) 
यह शे’अर मैंने यह सोचते-सोचते लिखा था कि जब कुछ कथित धार्मिक संतों के पर्दे फाश भी हो गए, उनकी अमानवीय हरकतें सिर्फ सामने ही नहीं आईं अपितु कानून तथा अदालतों में सिद्ध भी हो चुकी हैं, उन्हें सज़ा भी मिल चुकी है, फिर भी उनके चेले (मुरीद) अभी भी उन्हें भगवान का रूप क्यों तथा कैसे मान रहे हैं? इस प्रकार प्रतीत होता है कि उनका मन यह मानने के लिए तैयार ही नहीं होता कि उनका ‘मुरशिद’ ऐसा कुछ कर सकता है। फिर शायद वे अपने मन को यही ढाढस बंधाते हैं कि यह तो उनके ‘संत’ जी कोई करामात ही दिखा रहे हैं। 
़खैर, बात यह है कि डेरा सिरसा के प्रमुख से संबंधित मामलों पर अकाली दल की आंतरिक राजनीति इस समय पूरी तरह गर्माई हुई है। अकाली दल के बागी गुट द्वारा श्री अकाल तख्त साहिब पर मांगी ‘माफी’ तथा अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल को कटघरे में खड़ा करने वाले पत्र के बाद श्री अकाल तख्त साहिब द्वारा की जा रही कार्रवाई के संबंध में हर महफिल में सिर्फ इस बात पर ही चर्चा हो रही है कि अब अकाली दल बादल, बागी गुट या भाई अमृतपाल सिंह के पिता के नेतृत्व में बन रहे गुट में से पंजाब की सिख राजनीति में कौन तथा कितना सफल होगा? सुखबीर सिंह बादल का बिना शर्त समर्पण सिखों में कितना स्वीकार होगा? 
जबकि वास्तव में बहस का हिस्सा यह नहीं अपितु यह होना चाहिए कि लोग इन ‘कथित संतों’ के वेश में विचरण करते साधों के डेरों की ओर इतनी बड़ी संख्या में आकर्षित क्यों हो रहे हैं? ये डेरे इतने मज़बूत कैसे हो रहे हैं और कैसे लाखों की संख्या में लोग अपने पारम्परिक धर्म-स्थानों, मंदिरों मस्जिदों तथा गुरुद्वारों के बजाय इन डेरों को अधिमान देने लग पड़े हैं। यहां उल्लेखनीय है कि चाहे पंजाब तथा हरियाणा में बड़े डेरों की संख्या तो पौना दर्जन के लगभग ही है, परन्तु ‘इंडियन एक्सप्रैस’ की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार अकेले पंजाब में ही लगभग 9000 छोटे-बड़े डेरे हैं। 
कई कारण हैं विचारणीय
डेरों के प्रति लोगों के आकर्षण के कारणों की जांच करते हुए एक बात स्पष्ट रूप में सामने आती है कि इन डेरों के श्रद्धालुओं में से अधिक संख्या समाज के प्रताड़ित वर्गों, छोटे किसानों तथा गरीब लोगों की है, जो स्पष्ट करता है कि हमारा नेतृत्व विशेषकर सिख नेतृत्व, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी तथा स्थानीय गुरुद्वारा कमेटियां भी समाज में अपना दायित्व निभाने में असमर्थ रही हैं। ‘डुब्बदे नूं तिनके दा सहारा’ की कहावत के अनुसार मुश्किलों, परेशानियों तथा सामाजिक बेअदबी से प्रताड़ित मनुष्य कमज़ोर मानसिकता का शिकार हो जाता है और वह गैबी सहारों की तलाश में रहता है। चमत्कारों की उम्मीद करता है। हमदर्दी के बोल बोलने वाला तथा उसकी मुश्किलों के समाधान का आश्वासन देने वाला ‘बड़ा’ दिखता मनुष्य उसे ‘रब’ ही प्रतीत होने लगता है। यही स्थिति उसे देहधारी गुरुडम में फंसा देती है। 
साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने गुरगद्दी श्री गुरु ग्रंथ साहिब को सौंप कर सिखों को शब्द गुरु का आसरा लेने के लिए कहा था, परन्तु शब्द गुरु ने स्वयं तो बोलना नहीं, जबकि शब्द की व्याख्या करने वाले तथा उसका संदेश देने वाले कई बार अपना दायित्व पूरी नहीं करते और कई बार वे इसके समर्थ भी नहीं होते। वे सिर्फ उन लोगों तक ही पहुंच करते हैं जो पहले ही गुरुद्वारों में आते हैं। उन्होंने कभी उन लोगों तक पहुंचने की ज़रूरत ही नहीं समझी जो सिखी से दूर होते जा रहे हैं या जो गैर-सिख हैं। शिरोमणि कमेटी तथा हमारी अन्य धार्मिक संस्थाएं शब्द गुरु का संदेश देने में विफल रही हैं।  गुरु साहिबान ने पूरी मानवता को अपने आ़गोश में लिया था और सिख धर्म में जाति-पात, ऊंच-नीच का कोई स्थान नहीं था, परन्तु वास्तविकता यह है कि हमारे धर्म अस्थानों विशेषकर स्थानीय गुरुद्वारों में जाति-पाति बहुत हावी है। यही कारण है कि गांवों में जाटों तथा दलितों के गुरुद्वारे ही अलग-अलग नहीं बने हुए अपितु श्मशानघाट तक भी अलग-अलग हैं। शहरों में भी बिरादरियों के नाम पर गुरुद्वारे हैं। न तो इन गुरुद्वारों के जात-बिरादरी के नाम पर बनने की शुरुआत के समय ही शिरोमणि कमेटी तथा श्री अकाल तख्त साहिब द्वारा कोई नोटिस लिया गया और न ही अब की शिरोमणि कमेटी अथवा हमारे सिंह साहिबान इस बारे कुछ प्रभावी  कर रहे हैं जबकि डेरों में प्रताड़ित लोगों को समानता का एहसास करवाया जाता है। सिख धर्म की हालत मुजफ्फर वारसी के इस शे’अर जैसी प्रतीत हो रही है :
तूफान में हो नाव तो कुछ सब्र भी आ जाए,
साहिल पे खड़े होकर तो डूबा नहीं जाता।
परन्तु हम तो जैसे किनारे पर खड़े-खड़े भी डूबते जा रहे हैं। इन डेरों द्वारा नशे के खिलाफ प्रचार भी अपने नशेड़ी पतियों तथा बच्चों से परेशान महिलाओं को इनकी ओर आकर्षित करता है। इन डेरों में मुफ्त भोजन तथा रहना, हाथ से काम (सेवा) करवा कर तथा व्यक्ति के साथ सीधा संवाद रचा कर उसे नशे से दूर किया जाता है। लगभग सभी डेरों के श्रद्धालु शराब आदि नशों से दूर ही दिखाई देते हैं। 
गरीब का मुंह अब गुरु की गोलक नहीं 
पहले यह कहा जाता था कि ‘गरीब का मुंह गुरु की गोलक है’ परन्तु शिरोमणि कमेटी अब इतनी बड़ी संस्था बन चुकी है कि उसके अपने खर्चे ही बहुत हैं। दूसरी ओर यहां से गरीब को बर-वक्त प्रत्यक्ष मदद मिलना यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। पहले सिख घरों में दसवंद निकालने की परम्परा होती थी। यह दसवंद की राशि ज़रूरतमंदों की तत्काल ज़रूरतें पूरा करने के लिए इस्तेमाल की जाती थी। इसके इस्तेमाल के समय सिख या गैर-सिख नहीं देखा जाता था जिससे गैर-सिखों में भी सिख धर्म के प्रति एक आकर्षण पैदा होता था। अब या तो यह दसवंद कोई सिख निकालता ही नहीं। यदि निकालता है तो यह गुरुद्वारों को दे दिया जाता है, जहां यह पैसा इमारतों तथा व्यापारिक स्कूलों पर लगा दिया जाता है। यह किसी ज़रूरतमंद गैर-सिख तो क्या, किसी सिख के भी काम नहीं आता जबकि ये डेरे ज़रूरमंदों की सीधी मदद करने के समर्थ हैं और यह बात भी समाज के प्रताड़ित लोगों को आकर्षित करने में सहायक हो रही है। 
कट्टरवादिता एक बड़ा कारण
गुरु नानक जी का आंगन एक खुला आंगन था। गुरु नानक साहिब हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों में सम्मानित थे। उन्होंने धार्मिक कुरीतियों की विरोध किया। उस समय से लेकर गुरु साहिबान के समय के बाद तक भी सिखों के अतिरिक्त कितनी ही बिरादरियां, सम्प्रदाय तथा कौमें आदि सिखी के आगोश में थीं, जो सिखी के पौधों के लिए पौध की काम करती थीं, परन्तु आज़ादी के बाद सिखों के धार्मिक नेतृत्व तथा सिखों के बीच के ‘डेरावाद’ ने सिखी का दायरा लगातार सीमित किया है। उदाहरण के रूप में सिंधियों तथा निर्मलियों को सिखी से दूर कर दिया गया है, जबकि किसी समय पंजाब में अधिकतर हिन्दू परिवारों में से एक पुत्र को सिख बनाने की परम्परा बन गई थी, परन्तु अब हालत यह है कि साबत-सूरत सिख जिसने अमृतपान नहीं किया, उसे भी सिख मानने से इन्कार कर दिया जाता है। यह ठीक है कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अमृतपान करवा कर खालसा का सृजन किया था, परन्तु क्या जिन सिखों ने गुरु साहिब के समय अमृतपान नहीं किया था, क्या गुरु साहिब ने उनसे सिखी होने का अधिकार छीन लिया था? वास्तव में सिख धर्म में आई कट्टरता ने भी कई सिखों को डेरों की ओर धकेला है।  
राजनीतिक संरक्षण भी ज़िम्मेदार
नि:संदेह इन डेरों, जिनमें डेरा सिरसा भी शामिल है, को उभारने में राजनीतिक संरक्षण भी बड़ी सीमा तक ज़िम्मेदार है। जब राजनीतिक पार्टियों के बड़े-बड़े नेता, मंत्री, अधिकारी किसी डेरा प्रमुख के समक्ष झुकते हैं तो वह समाज के लोगों के लिए आकर्षण का कारण बनते हैं। डेरा सिरसा प्रमुख्र को उभारने में अकाली दल, कांग्रेस, भाजपा, इनैलो तथा अन्य पार्टियां भी बराबर की ज़िम्मेदार हैं, परन्तु सिखों की प्रतिनिधि जमात होने के कारण अकाली नेताओं का वहां जाना गरीब सिखों के लिए और भी अधिक आकर्षण का कारण बनता है। 
फिर डेरा प्रमुख को माफी तथा माफी वापसी का जो नाटक हुआ, उसने भी डेरावाद के समक्ष सिख नेतृत्व के समर्पण की प्रवृत्ति का ही खुलासा किया है। हम समझते हैं कि यदि सिख नेतृत्व खास तौर पर धार्मिक नेतृत्व तथा शिरोमणि कमेटी इन परस्थितियों की पड़ताल करवा कर लम्बे समय का कोई कार्यक्रम बनाए और उस पर क्रियान्वयन करे तो इन डेरों की ओर गए लोगों के वापिस लौटने की उम्मीद अभी भी समाप्त नहीं हुई, क्योंकि सिख धर्म एक मानवतावादी धर्म है। इसे कट्टरता में कैद नहीं रखा जा सकता अपितु मानव मात्र तथा विश्व के कल्याण के लिए इसके अनुयायियों को क्रियाशील होने की ज़रूरत है। सिखी को गुरबाणी की रौशनी में मानवतावादी रूप में ढालने तथा साझीवालता का प्रचार करने की ज़रूरत है। अमीर कज़लबाश के शब्दों में, फिर
मेरे जनूं का नतीजा ज़रूर निकलेगा,
इसी सियाह ममुदंर से नूर निकलेगा।

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