लोकतंत्र में ‘राइट टू रीकॉल’ पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए

लोकतंत्र यानि कि लोगों के लिए, लोगों के द्वारा और लोगों की सरकार लेकिन क्या यह तंत्र असलियत में अपना राजधर्म निभा रहा है? इसका निर्णय भी जनता को ही करना होता है। हमारा दायित्व सिर्फ  वोट डालने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए हालांकि यह आंकड़ा भी 50 से 60 प्रतिशत से अधिक भी नहीं हो पाता। शेष बची 40 से 45 प्रतिशत जनता इसलिए वोट नहीं डालती कि उन्हें उम्मीदवार पसंद नहीं या उन्हें वोट डालना पसन्द नहीं या वो वर्तमान के राजनीतिक हालात से खुश नहीं होते। ऐसी कई सम्भावनाएं हैं जो वोट के प्रतिशत को चुनाव आयोग के कई आयोजनों के बावजूद नहीं बढ़ा पा रही हैं। उन नाखुश वोटरों को बेशक वर्तमान में नोटा जैसा प्रावधान दिया गया है लेकिन इसके अलावा राइट टू रीकॉल रूपी हथियार को मजबूती दी जाए तो जरूर लोकतंत्र जमीनी स्तर तक वोटरों की भारी भागीदारी के साथ ऊंचे मुकाम पर पहुंचेगा। 
राइट टू रीकॉल के अधिकार के इतिहास की बात करें तो प्राचीन एथेन्सवासियों में यह प्रथा प्रचलित थी। प्रत्येक वर्ष की निश्चित तिथि पर वे निष्कासन प्रक्रिया का आयोजन करते थे। इस अवसर पर सभी नागरिकों को किसी पात्र में निष्कासन योग्य व्यक्ति का नाम लिखना होता था। जिस व्यक्ति के नाम के सबसे ज्यादा पत्र मिलते थे, उसे 10 महीने के लिए शहर से बाहर निकाल दिया जाता था। यह प्रक्रिया बेशक उस समय तानाशाह प्रवृत्ति पर लगाम ज़रूर लगाती होगी। आज भी ऐसी प्रक्रिया कुछ देशों में चल रही है, जिसे राइट टू रिकॉल का नाम दिया गया है। इस प्रक्रिया में मतदाताओं को किसी प्रतिनिधि को उसके कार्यकाल से पहले ही वापिस बुलाने का अधिकार होता है। वर्ष 1995 से ब्रिटिश कोलंबिया और कनाडा विधानसभाओं ने मतदाताओं को ऐसा अधिकार दे रखा है। अमरीका के जार्जिया, अलास्का, कैन्सास जैसे राज्यों में भी ऐसी व्यवस्था है जबकि वाशिंगटन में ऐसी प्रक्रिया तभी अपनाई जाती है अगर किसी प्रतिनिधि के बुरे आचरण या अपराध में शामिल होना प्रमाणित हो जाए। 
अगर अपने देश भारत की बात की जाए तो राइट टू रिकॉल की शुरुआत हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के घोषणा-पत्र में सचिन्द्र नाथ सान्याल ने 1924 में की थी । उस घोषणा-पत्र में लिखा था कि इस गणराज्य में मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार होगा, यदि वे ऐसा चाहें, अन्यथा लोकतंत्र एक मजाक बन जाएगा। भारत की आज़ादी के बाद वर्ष 1974 में संविधान (संशोधन) बिल जिसमें राइट टू रिकॉल के अंतर्गत विधायक व सांसदों को वापिस बुलाने संबंधित बिल लोक सभा में चर्चा के लिए रखा गया लेकिन पास नहीं हो पाया। वहीं वर्ष 2016 में भी उस समय के सांसद वरुण गांधी ने जन-प्रतिनिधित्व कानून (संशोधन) बिल के माध्यम से इस अधिकार को लागू करने के लिए प्रयास किये लेकिन वह भी असफल रहे । कई राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में ग्राम पंचायत स्तर पर राइट टू रिकॉल को रूपान्तरित किया गया है लेकिन जमीनी स्तर पर जनता में जागरूकता न होने कारण यह कानून सिर्फ  कागजों तक ही सीमित है। इस तरह के कानूनों को राजनीतिक पार्टियां भी जनता तक नहीं पहुंचाना चाहतीं। 
जाने माने राजनीतिक विचारक जेम्स मिल का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति को बिना किसी डर के शासन करने का अधिकार दे दिया जाए तो वे अधिकार का प्रयोग समाज के कल्याण से ज्यादा स्वयं के स्वार्थ के लिए करता है। इसलिए हमें सोच समझ कर शासन ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में देना चाहिए । सामाजिक तौर पर कई प्रकार की चुनौतियां भी लोकतंत्र के सामने आती हैं चाहे चुनाव आयोग का खर्च बढ़ने की बात हो या उस डर से राजनीति में रुचि कम लेने की बात हो। लेकिन विस्तृत नज़रिए से देखें तो यह अधिकार लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों और जनता दोनों की जवाबदेही तय करता है । इस अधिकार के जमीनी स्तर पर आने से सबसे पहले भ्रष्टाचार पर नकेल कसेगी, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार को जनता नहीं चुनेगी और प्रतिनिधि जनता की सेवा और उनके कल्याण के कामों को करने के लिए जवाबदेह रहेगा। 
यह बात तो तय है कि लोकतंत्र को और मजबूत करने के लिए विशेषकर युवावर्ग में इसके प्रति विश्वास पैदा करना होगा क्योंकि वोट प्रतिशत का गिरना लोकतंत्र की नींव को हिला रहा है। इस नींव की मजबूती के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों को एक मंच पर आना ही होगा क्योंकि इस प्रकार के निर्णय दूरगामी प्रभाव डालते हैं। एक साधारण सा सवाल है कि नौकरी पर काम करते हुए समय-समय पर हमारे काम का मूल्यांकन किया जाता है । सही न होने पर विशेषकर प्राइवेट नौकरी में मात्र एक नोटिस देकर निकाल दिया जाता है। यही नियम इस संदर्भ में क्यों नहीं? ये प्रतिनिधि तो देश व समाज की दशा व दिशा तय करते हैं । इसलिए जनता को भी जागरूक होकर सवाल पूछने चाहिएं, आखिर यह सवाल हमारे भविष्य का है। 

-सहायक प्रोफैसर, गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी कालेज, जालन्धर