श्रीलंका के आम चुनाव में दांव पर लगी है भारतीय विदेश नीति

श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव की डाक मतदान प्रक्रिया के तहत 7 लाख सरकारी और सैन्यकर्मी मत दे चुके हैं। अब प्रत्यक्ष मतदान होने हैं। अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ सहित कई अन्य देश इसके रणनीतिक अवस्थिति तथा लगभग 80 प्रतिशत अंतर्राष्ट्रीय मालवाही जहाजों का मार्ग होने के कारण श्रीलंकाई सत्ता पर पकड़ और यहां मजबूत आधार के आकांक्षी हैं। नज़दीकी पड़ोसी होने के नाते इसमें हमारी दिलचस्पी लाज़िमी है। अब इसे ही देखिए, मतदान से ठीक पांच दिन पहले वहां की वामपंथी पार्टी जेवीपी के नेता साजित प्रेमदासा ने कहा कि वे जीते तो श्रीलंका के उत्तर पूर्वी इलाकों मन्नार और पूनेरिन में चलने अडानी समूह के 44 करोड़ डॉलर की पवन ऊर्जा परियोजना को रद्द कर देंगे। अडानी भारत नहीं हैं, सो इससे भारत का कोई नुकसान भले न हो, लेकिन इससे श्रीलंकाई चुनावों में शामिल एक प्रमुख पार्टी की भारत विरोधी मंशा जाहिर होती है। ऐसे में हमें चीन के बढ़ते निवेश, प्रभाव व अपने पड़ोसी पहले की नीति एवं श्रीलंका के हित में किए पूर्व के निवेश के मद्देनज़र श्रीलंकाई चुनाव पर नज़दीकी नज़र रखनी होगी। देखना होगा कि वहां सत्ता समीकरण की प्रकृति, प्रवृत्ति कैसी रहने वाली है। विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने जून में अपने श्रीलंका दौरे के दौरान राष्ट्रपति विक्रमसिंघे व प्रधानमंत्री महामहिम दिनेश गुणवर्धने के अलावा विभिन्न पार्टियों के नेताओं यथा महिंदा राजपक्षे, साजित प्रेमदासा से अलग-अलग मिले और बताया कि श्रीलंका की सत्ता किसी के भी हाथ हो, भारत की सहायता पहले की तरह जारी रहेगी। 
मगर जेवीपी के रुख से साफ है कि श्रीलंका चुनाव में एक पक्ष ऐसा भी है जो मोदी जी के ‘सिक्यूरिटी एंड ग्रोथ आल इन द रीजन’ यानी सागर और नेबर्स फर्स्ट या पड़ोसी पहले की नीति पर बहुत विश्वास नहीं कर रहा। उसे भारत के दीर्घकालिक आर्थिक सहयोग और सुरक्षित हिंद महासागर के भारतीय भरोसे से ज्यादा चीन की चाकरी पसंद है। फिलहाल आर्थिक तौर पर कमजोर श्रीलंका के पास आज जो भी सांस लेने लायक स्थिति है, उधार के दम पर है। जब इस उधार की किश्तें लौटाने की बारी आयेगी, तब फिर आर्थिक तबाही और संकट झेलना पड़ेगा। श्रीलंका में सत्ता के सहारे उसके संसाधनों और अवसंरचना व्यवस्था में घुसपैठ कर कोई भी देश वहां अपना मज़बूत आधार बना सकता है तथा आर्थिक और सत्ता समीकरणों को अपने पक्ष में झुका सकता है। यदि चीन जैसे देश को आगे यह अवसर मिला तो श्रीलंका की तबाही के दिन दूर नहीं। श्रीलंका खुद तो तबाह होगा ही पड़ोस में चीन के प्रत्यक्ष प्रवेश से भारत के हित भी असुरक्षित हो जाएंगे। 
ऐसे में श्रीलंका को उदार आर्थिक सहायता देने वाले और विभिन्न मौकों पर उसके संकट मोचक साबित हो चुके भारत समर्थक दल के प्रतिनिधि को चुनना होगा। लेकिन यह तभी होगा, जब श्रीलंका के मतदाता ऐसा राष्ट्रपति चुनें जो चीनी दबाव से मुक्त और भारत समर्थक हो, उसे पड़ोसी पहले की भारतीय विदेश नीति पर पूरा भरोसा हो। कर्ज के बोझ में दबी श्रीलंका की अर्थ-व्यवस्था के चलते नया राष्ट्रपति कोई भी बने उसमें पूरी आज़ादी के साथ अपनी आर्थिक, वैदेशिक नीतियों को लागू करने की ताकत नहीं होगी। उस पर ऋणदाताओं और दानदाताओं का दबाव बना रहेगा। यदि वह चीन है तो वह अपने फायदे के लिये बदलाव का दबाव डालेगा। दो करोड़ 20 लाख नागरिकों के जीवन को प्रभावित करने वाले इस चुनाव में पौने दो करोड़ मतदाता जिसमें तिहाई से अधिक महिला और युवा होंगे 38 में से एक उम्मीदवार चुनेंगे। मुख्य मुकाबला चार के बीच है। सबसे आगे हैं साजित प्रेमदासा, जो कभी यूनाइटेड नेशनल पार्टी में राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के डिप्टी थे, पार्टी बंटी और प्रेमदासा विभाजन के बाद समागी जन बालावेगया के नेता हो गए। उनकी पार्टी ने कई पार्टियों से गठजोड़ किया है। उन्हें 11 प्रतिशत तमिल और 10 प्रतिशत मुस्लिम अल्पसंख्यकों का समर्थन मिला हुआ है। दूसरे नंबर पर नेशनल पीपुल्स पावर, एनपीपी के सांसद अनुरा कुमारा दिसानायके हैं। 
अनुरा एनपीपी गठबंधन के मुख्य घटक जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) से मार्क्सवादी-लेनिनवादी नेता हैं। ये दोनों नेता मूलत: भारत समर्थक नहीं समझे जाते। भारतीय राजनय को इन पर नज़र रखनी होगी। तीसरे नंबर पर निर्दलीय उम्मीदवार रानिल विक्रमसिंघे हैं, पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की श्रीलंका पोडुजना पेरमुना यानी एसएलपीपी के तमाम विधायकों का समर्थन उन्हें प्राप्त है। माना जा रहा है कि यह चुनाव राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के दो साल के शासन पर जनमत संग्रह है, जिन्होंने देश की अर्थ-व्यवस्था को नाजुक स्थिति से बाहर निकाला। चौथे स्थान पर परन्तु चौका देने वाले नतीजे दे सकने वाले उम्मीदवार राजपक्षे वंश से, महिंद्रा राजपक्षे के बेटे नमिल राजपक्षे हैं। महिंदा और गोटाबाए की अलोकप्रियता ने उनके बेटे नमल को श्रीलंका पोडुजना पेरामुना पार्टी से चुनाव मैदान में उतरने के लिए मज़बूर कर दिया। 
अन्य महत्वपूर्ण उम्मीदवारों में उत्तर से तमिल सांसद पी. एरियानेथिरन, 2022 में अरागालय विरोध आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नुवान बोपेज और पूर्व सैन्य प्रमुख सरथ फोंसेका हैं। अनुरा और साजित के पास बढ़त है और रानिल के पास उम्मीद कि मतदाता उन्हें देश की अर्थ-व्यवस्था को सामान्य स्थिति में लाने, आर्थिक संकट में देश को स्थिर रखने और पुराने अनुभवों को देखते हुए एक और मौका देगा। चुनाव वही जीतेगा जो टैक्स के जंजाल से मुक्ति दिलाते हुये इनकी गारंटी लेगा। श्रीलंका की आर्थिक राजनीतिक भविष्य के लिए यह चुनाव गेमचेंजर साबित होगा।
श्रीलंकाई मतदाता आखिरी दौर तक भ्रमित नज़र आ रहे हैं, वे किसे राष्ट्रपति चुनते हैं, यह उनका चयन है पर भारत को इस मामले में कोई भ्रम नहीं कि श्रीलंका में ज़रा सी चूक पडोस में चीनी संकट बढ़ा सकता है, इसलिये उसे न सिर्फ पड़ोस प्रथम वाली नीति को और मजबूती से लागू करनी होगी बल्कि श्रीलंका में चीनी प्रभाव को सीमित करने के उपक्रमों के साथ अन्य कूटनीतिक प्रयासों में तेजी लानी होगी। श्रीलंका चीनी कर्जे के बोझ से न दबे इसलिए भारत ने वहां आईएमएफ के दिए बेल आउट से एक अरब डॉलर ज्यादा, चार अरब डॉलर का निवेश किया, 7 करोड़ डॉलर के पेट्रोलियम की आपूर्ति के वादे के साथ दोतरफा पेट्रोलियम पाइपलाइन जैसी कुछ दूसरी अवसंरचना परियोजनाओं  के अलावा कोलंबो, कांकेसंथुराई, त्रिंकोमाली बंदरगाहों, जाफना और हंबनटोटा हवाई अड्डों पर निवेश किया। जवाब में श्रीलंका ने अपनी बिजली परियोजनाओं में चीन पर भारत को तरजीह दी। पिछले साल राष्ट्रपति विक्रमसिंघे भारत आये थे तब प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी पहले नीति के श्रीलंका के साथ समुद्री, वायु, ऊर्जा, पर्यटन, बिजली, व्यापार और शिक्षा क्षेत्रों को मजबूत करने वाले कई समझौते किए यही नहीं कोरोना के दौरान भारत ने श्रीलंका को पांच लाख टीके और 150 टन ऑक्सीजन भेजी थी। अगर श्रीलंका में चीन परस्त राष्ट्रपति बनता है तो ये इन पूर्व भारतीय प्रयासों की पराजय होगी, भारतीय राजनय को इसी सूत्र को ध्यान में रहते हुए इन चुनावों के परिणामों को देखना होगा और प्रयासों का परिमाण बढ़ाना होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर