परदेस जाने का अभिशाप

भारत से भारी संख्या में लोगों के विदेश की तरफ पलायन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी पक्षों से चिंतनीय है। गांव के गांव खाली हो रहे हैं, शहर भी इस रेस में पीछे नहीं हैं। कुछ ही दिन पहले अधिकारिक रूप से केन्द्रीय विदेश राज्यमंत्री ने राज्यसभा में विदेश पलायन करने वालों के आंकड़े पेश किये थे, वे गैर-मामूली ही है। अकेले साल 2023 में भारतीय नागरिकता छोड़ कर विदेश जाने वाले भारतीयों की संख्या 2,16,219 बताई गई जबकि इससे पूर्व 2022 में 2,23, 620 और 2021 में 1,63,370 भारतीयों ने देश की नागरिकता छोड़ दी। ज़ाहिर है कि यह संख्या उन भारतीयों की नहीं है जो कुछ समय के लिए विदेश गये और धन कमा कर लौट आये। यह संख्या उन भारतीयों की है जो हमेशा के लिए विदेश की धरती पर गये।
पिछले कुछ सालों से भारतीय छात्रों में विदेश में जाकर पढ़ने की ललक बहुत तेज़ी से बढ़ी है। हर साल लाखों विद्यार्थी विदेशी संस्थानों में दाखिला ले रहे हैं जिससे अरबों रुपया हर साल भारतीय मुद्रा के रूप में खर्च होता है। यह खर्च जुटाने या विदेश भेजने के लिए जो लाखों रुपया पानी की तरह बहाया जाता है, उसको जुटाना प्रत्येक साधारण परिवार के लिए आसान नहीं होता। कभी ज़मीने बेची जाती हैं, कभी घर गिरवी रखे जाते हैं। फिर एजेंटों की धोखाधड़ी अलग से मौजूद है। विशेषज्ञ इसके कारण बताते हैं कि एक तो भारत में अभी तक विश्व स्तरीय संस्थान नहीं खड़े हो पाए हैं। दूसरा यह कि भारतीय संस्थानों में पढ़ाई के बाद रोज़गार के अवसर बहुत सीमित हैं जबकि विदेश में रोज़गार की सम्भावनाएं अधिक हैं। कारोबारी कामकाज या नौकरी आदि के लिए हर साल 20 लाख से अधिक भारतीय विदेश जाते हैं। विभिन्न देशों में बसे भारतीयों की संख्या तीन करोड़ से अधिक बताई जाती है। पहले आम धारणा थी कि चीन से लोग अधिक प्रवासी हैं परन्तु भारत से जाने वालों ने यह रिकार्ड तोड़ दिया है। चिंता सिर्फ भारतीयों का जाना नहीं है, उनकी नागरिकता छोड़ने की चिंता कहीं ज्यादा है।
2013 में विदेश जाकर पढ़ने वाले छात्रों की संख्या लगभग एक लाख बयालीस हज़ार थी, लेकिन 1999 से 2006 तक भारी इज़ाफा हुआ। आगे जाकर यह चलन छूत के रोग से कम नहीं लगा। वर्तमान दशक में सौ करोड़ भारतीय छात्रों के विदेश जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। इस संकटग्रस्त स्थिति में सरकारों और शैक्षणिक संस्थानों की खामोशी चुभने वाली है। बताया जाता है कि यहां के 70 प्रतिशत से अधिक कालेज गुणवत्ता के मानकों पर खरे नहीं उतरते।
विदेश जाने वाले अधिकांश लोग औसत भारतीय मध्य वर्ग से आते हैं। वे भारत में ठीक-ठाक आर्थिक उपार्जक कर रहे थे बल्कि उनमें से कुछ के कारण बड़े पैमाने पर रोज़गार भी बढ़ रहा था। उनका जाना महज जाना नहीं बल्कि अपने साथ धन-सम्पत्ति लेकर हमेशा के लिए चले जाना भी है। फिर 1960 के आस-पास पंजाब से गये लोग विदेश केवल धन कमाने के लिए जाते रहे हैं। उनका यहां भेजा गया धन स्कूल खोलने, डिस्पैंसरी चलाने, पेड़ लगाने जैसे कामों में खर्च होता था लेकिन जो लोग अब जा रहे हैं उनका धन विदेश में ही रहता है। पहले बच्चे की पढ़ाई के रूप में खर्च, फिर माता-पिता का ही बच्चों के पास चले जाने का मतलब है धन का वहीं रह जाना। सैटिल होने के बाद वे यहां की ज़मीन, घर सभी कुछ बेच कर पैसा विदेश ले जाते हैं जिससे उनकी जन्म भूमि वंचित रह जाती है।